श्लोक
- कैलाशराणा शिवचन्द्रमौली,
- फणीन्द्रमाथा मुकुटी झलाली|
- कारुण्य सिन्धु भव दुःखहारी,
- तुजवीण शंभो मज कोण तारी||
भावार्थ
हे भगवान शंकर! कैलाश पर्वत के स्वामी, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करने वाले, मस्तक पर नागराज के फण का मुकुट धारण कर झलकने वाले, करुणा सागर, दुःखों को हरण करने वाले| तेरे सिवा मुझे कौन तार कर सकता है (पार लगा सकता है)| मैं तेरी शरण में हूँ|
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---|---|
राणा | प्रभु, स्वामी, मालिक, राजा |
शिव | भगवान शंकर, मंगलदाता| |
चन्द्र | स्वच्छ एवं श्वेत तेज से प्रकाशित होने वाला चंद्र |
मौली | जटाजूटधारी| |
फणीन्द्र | फणी अर्थात् सर्प, इन्द्र अर्थात् प्रमुख श्रेष्ठ, फणीन्द्र अर्थात् सर्पराज |
माथा | मस्तक, भाल |
मुकुटी | मुकुट धारण करने वाला, मुकुट का अर्थ है – मस्तक पर धारण किए जाने वाला आभूषण |
झलाली | झलकनेवाला, प्रकाशमान होने वाला| |
कारुण्य | जो सदैव देने के लिये तत्पर है| कारुण्य का अर्थ है करुणा |
सिन्धु | सागर, समुद्र |
भव दुःखहारी | इसमेंभव+दुःख+हारी तीन शब्द हैं| भव – संसार, दुःख-शोक, हारी-हरण करने वाला| जो समस्त दुःखों का हरण करने वाले है| |
तुजवीण | तेरे सिवा |
मज | मुझे |
कोण | और कौन |
तारी | तार सकता है| (पार लगा सकता है) |