श्लोक
- दिनमपि रजनी सायं प्रातः,
- शिशिर वसन्तौ पुनरायातः।
- कालः क्रीडति गच्छत्यायुः,
- तदपि न मुञ्चत्याशावायुः॥
भावार्थ
दिन, रात, सांझ, सबेरा तथा इसी प्रकार शिशिर, वसंत तथा अन्य ऋतुओं का आगमन एक के बाद एक होता रहता है। कहने का तात्पर्य है कि समय का चक्र घूमता रहता है और साथ ही हमारा जीवन भी समाप्ति की ओर अग्रसर हो रहा है, फिर भी हम न तो अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करते हैं और न ही कामना-पाशों को ढीला करते हैं।
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---|---|
सायं | शाम |
प्रात: | सुबह |
शिशिर | ठंड का मौसम |
वसंतौ | वसंत ऋतु |
पुन: | फिर से |
आयात: | आते हैं |
काल: क्रीडति | समय का खेल |
गच्छति | चला जाता है |
आयुः | जीवन, आयु |
तदपि | फिर भी |
न | नहीं |
मुञ्चति | कम करना, छोड़ना |
आशा | उम्मीद, इच्छा |
वायुः | हवा |