श्लोक
- ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतम्|
- ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना ॥
भावार्थ
भोजन रुपी यज्ञ में अर्पण भी (अर्पण करने का साधन अर्थात् श्रुवा) ब्रह्म है , हवन की सामग्री (अर्थात् भोजन) भी ब्रह्म। ब्रह्मरुप अग्नि (जठराग्नि) में आहुति (ग्रास) देने वाला कर्ता भी ब्रह्मरुप है – आहुति देने की क्रिया भी ब्रह्म है। इस प्रकार ब्रह्म कर्म में स्थित पुरुष को प्राप्त होनेवाला फल भी ब्रह्म ही है।
[/vc_column_text][/vc_column][vc_column width=”1/2″][vc_custom_heading text=”ऑडियो – 2″ font_container=”tag:h5|text_align:left|color:%23d97d3e” use_theme_fonts=”yes” el_class=”hi-Vesper” css=”.vc_custom_1648142730238{margin-top: 0px !important;}”][vc_column_text el_class=”title-para postaudio” css=”.vc_custom_1648020525673{margin-bottom: 10px !important;}”] http://sssbalvikas.in/wp-content/uploads/2021/06/Aham_vaishvanaro.mp3 [3] [/vc_column_text][vc_column_text el_class=”hi-Vesper”]श्लोक
- अहंवैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
- प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥
भावार्थ
‘मैं (कृष्ण) ही सब प्राणियों के शरीर में रहने वाले प्राण और अपान वायु से संयुक्त वैश्वानर अग्निरूप होकर निम्न चार प्रकार के भोजन पचाता हूँ |’
चार प्रकार के अन्न:
- भक्ष्य – चबाकर खाया जाने वाला जैसे रोटी आदि।
- भोज्य – जिसे निगला जाता है जैसे दूध आदि।
- लेह्य – जिसे चाटना पड़ता है, जैसे चटनी मधु आदि।
- चोष्य – जिसे चूसना पड़ता है, जैसे आम, गन्ना आदि।