श्लोक
- शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ
- मा कुरुयत्नं विग्रहसन्धौ॥
- सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं
- सर्वत्त्रोत्सृज भेदाज्ञानम्॥
भावार्थ
यह विचार करना कि कुछ लोग तुम्हारे शत्रु हैं, कुछ मित्र हैं, कुछ तुम्हारे पुत्र हैं और कुछ तुम्हारे बन्धु है और फिर उनसे राग और द्वेष करना उचित नहीं है। तुम इन सबमें एक आत्मा का निवास देखो और भेदभाव (माया) के भ्रमजाल को त्याग दो।
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---|---|
मित्रे | मित्र से |
पुत्रे | पुत्र से |
बन्धौ | बंधुओं/रिश्तेदारों से |
मा | मत |
कुरु | कीजिये |
यत्नं | प्रयत्न |
विग्रहसन्धौ | द्वेष या मैत्री |
सर्वस्मिन्नपि | सभी में |
पश्यात्मानं | आत्मा को देखो |
सर्वत्र | सब जगह |
उत्सृज | त्याग दो |
भेद अज्ञानम् | भेदभाव का अज्ञान |