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अमृत वाणी

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श्री सत्य साई बाबा के अनमोल वचन

जिह्वा

इइन्द्रियों पर संयम किये बिना साधना करने का कोई लाभ नहीं। इस तरह की साधना अप्रभावशाली होती है जैसे किसी छेद वाले बर्तन में रखा पानी। यदि तुम सब इन्द्रियों में सर्वप्रथम जिह्वा पर नियंत्रण कर लो तो तुम निश्चित रूप से विजयी हो सकते हो। यदि जिह्वा किसी स्वादिष्ट व्यंजन के लिये ललचाती है तो दृढ़ होकर सोचो कि क्या तुम इसे पूर्णतया तृप्त कर सकते हो ? आज इस धरती के तपस्वी, संन्यासी, मठाधिपति जिह्वा की लालच में फँसकर उसके दास हैं। इस पर नियंत्रण पाने में असमर्थ हैं। यद्यपि वे संन्यासियों के गेरूए वस्त्र पहनते हैं, त्याग की मूर्ति बनते हैं, परंतु स्वादिष्ट व्यंजनों के प्रति उनकी लालसा उतनी ही है। वास्तव में इस प्रकार के संन्यासी, अपने को एवं संस्थानों को कलंकित करते हैं। यदि तुम सादा एवं सात्विक भोजन, जो अधिक गर्म मसालेयुक्त या अधिक स्वादिष्ट न हो परंतु पर्याप्त रूप से पोषक हो, करने का अभ्यास करो एवं जिह्वा को आदत डालो तो जिह्वा पर नियंत्रण कर सकते हो। प्रारंभ में निश्चित रूप से कठिनाई होगी, परंतु धीरे-धीरे अभ्यास के द्वारा तुम अपनी जिह्वा पर नियंत्रण कर पाने में सफल हो जाओगे। न केवल इतना ही, इससे तुम्हारी जीभ पर प्रभुत्व हो जाने से तुम इसके अन्य दुष्परिणामों से भी बच सकते हो। जिह्वा दूसरों की निन्दा करने के लिये तत्पर रहती है तुम्हें अपनी इस प्रवृत्ति पर भी रोक लगानी होगी। कम बोलो। मधुर वचन बोलो। अत्यधिक आवश्यक हो तभी बोलो। जिनसे बोलना आवश्यक है उन्ही से बोलो; चिल्लाओं मत। आवाज को क्रोध एवं शांति में भी तेज मत करो। इससे आपसी संबंध अच्छे रहेंगे तथा अन्यों के विवाद अथवा लगाव में कम फँसोगे। इस प्रकार इससे सार्वजनिक रूप से लाभ होगा। इस व्यवहार से संभव है समाज में हँसी उड़े परंतु तुम्हारे ‘लिये तो यह पूर्णतया हितकर ही होगा। इससे तुम्हारे समय और शक्ति की बचत होगी। तुम्हारी आंतरिक शक्ति का तुम सदुपयोग कर सकते हो। तुम मेरा संदेश स्वीकारो, स्वाद को नियंत्रित करो। अपनी वाणी पर संयम रखो।

चार ‘एफ’ (F)

मनुष्य को सदैव अपनी चेतना एवं आत्मिक शक्ति का विकास करना चाहिए। अपने विवेक को दृढ़ बनाना चाहिये। तुममें आत्मविश्वास होना चाहिये। अच्छाई एवं बुराई की परिस्थिति में तुम्हारा विवेक ही तुम्हारा पथ प्रदर्शक है। तुम्हारा अपराध बोध तुम्हारी बुराई का कारण होता है। आत्मविश्वास एवं आत्म शक्ति अच्छाइयों का कारण होती है। सर्वप्रथम तुम्हें ऐसी बातें करनी चाहिए जो तुम्हारे आत्मविश्वास में वृद्धि करे। इसलिये मैने तुम से कहा था कि निम्न चार ‘एफ’ का अनुसरण करो।

अपने स्वामी का अनुसरण करो (Follow the Master)- वास्तव में स्वामी का अभिप्राय है ‘आत्मा’ अपनी आत्मा को स्वामी मानकर उसकी आज्ञानुसार कार्य करो।

शैतान का डटकर सामना करो (Face the Devil) शैतान से अभिप्राय है जीवन में आने वाली बुराई, विपरीत परिस्थिति एवं तुम्हारे बुरे विचार, उनका सामना करो, उनसे डरकर मत भागो।

अंत तक संघर्षरत् रहो (Fight till the end) – अर्थात् जीवन के अंतिम क्षणों तक सन्मार्ग पर चलते हुए, दुर्गुणों से बचकर सांसारिक विपत्तियों का सामना करो।

खेल को समाप्त करो (Finish at the Goal) – अर्थात् जीवन के अंतिम क्षणों तक सन्मार्ग पर चलते हुए जीवनरूपी खेल को उचित रूप से खेलकर समाप्त करो। तुम्हें इन आदशों को ध्यान में रखकर सदैव स्मरण करते रहना चाहिए एवं इन पर आचरण करना चाहिए।

पुस्तकों के विषय में विचार

‘पुस्तकों का संग्रह वर्तमान समय का वास्तविक विश्वविद्यालय है। ‘ किसी ने सत्य ही कहा है, पुस्तकें हमें जीवन के प्रति नया दृष्टिकोण देती हैं। तथा जीवन कैसे जीएं यह सिखाती हैं। शोकाकुल को वे सांत्वना देती हैं, तथा हठवादी को प्रताड़ित करती हैं, मूर्खों को वे फटकारती हैं। बुद्धिमानों के ज्ञान को दृढ़ता प्रदान करती हैं। हमारे एकाकीपन में वे हमें सहारा देती हैं, स्फूर्ति एवं चेतना प्रदान करती हैं। दूसरों के कपट व्यवहार को भुलाने में सहायक होती हैं। हमारी चिन्ताओं एवं चित्त के आवेगों को स्थिरता प्रदान करती हैं तथा हमारी निराशाओं को दूर करती हैं। ये हमारी तीव्र जिज्ञासा को नूतन विचारों व तर्क वितर्कों द्वारा शांत करती हैं; ये हमारी आत्मा की भूख को विचारों की खुराक देती हैं तथा प्यास को गहन विचारों रूपी कुओं के जल से शांत करती हैं।

पुस्तक हमारे जीवन का सबसे श्रेष्ठ, शिष्ट साथी है। हमारी प्रत्येक मनोदशा व मनःस्थिति में साथ देने के लिये तत्पर, हमारी अद्वितीय साथी है पुस्तकें, कटु व अप्रिय लगने वाली होते हुए भी स्पष्ट भाषी हैं। ये स्वयं नहीं बोलतीं जब तक इनसे बोला न जाए। ये तुम्हारे आगमन की चिरकाल तक प्रतीक्षा कर सकती हैं। ये सदैव अपने चाहने वालों के लिये अनुग्रह व सर्वोत्तम वस्तु देने के लिये तत्पर रहती हैं। वे तुम को शिक्षा व प्रेरणा देती हैं। और समय पड़ने पर व्यंग कस कर डाँटती भी हैं। परंतु जब आप इससे पर्याप्त ज्ञान एवं सही दिशा प्राप्त कर लेते हैं ये तत्काल रूक जाती हैं। जब कोई मूर्खतापूर्ण प्रश्न उससे पूछते हैं। तब भी वह मौन साधक की तरह अप्रसन्न नहीं होतीं। वह सिर्फ मुस्कराती है तथा अपनी सांस रोक लेती है। पुस्तक अद्भुत साथी है। एकाकी, नीरस एवं उदासीन जीवन के लिये एक विलक्षण गुरू एवं आनंद का आश्चर्यजनक स्त्रोत है।

स्वदेश प्रेम

इतनी तपस्या के पश्चात् में जान पाया कि जीवन का सर्वोच्च एवं यथार्थ सत्य क्या है। वास्तव में प्रत्येक प्राणी में वह ही विद्यमान है, ये सभी उसी के (ईश्वर के) विभिन्न रूप हैं। इनसे अलग ईश्वर नहीं है। सभी उसी के अंश हैं, अतः जो मानव की सेवा करता है, वो भगवान की ही सेवा या पूजा करता है। आगामी बहुत से वर्षों के लिए हमें अपने मन से प्राचीन रूढ़िवादिता तथा पुराने देवी देवताओं के प्रतीकों से हटकर आगे बढ़ना है। यही एक जागृत देवता है, चेतन अवस्था में हमारे सम्मुख है, वह ही ईश्वर है-हमारी प्रजाति अर्थात् मानव-ही माधव है। उस परमेश्वर के हजारों हाथ हैं, पैर हैं, कान हैं। कण-कण में वही व्याप्त है। बाकी सब देवता निद्रावस्था में हैं। सर्वप्रथम ईश्वर के विराट स्वरूप को समझो, जानो व उसकी पूजा करो। उसकी अभिव्यक्ति हमारे चारों तरफ है। संपूर्ण सृष्टि, चेतन, जड़, जीव-जन्तु प्राणीमात्र सभी उसका प्रतिरूप हैं। अतः हमें मानव में ही माधव रूप को देखकर उसी की पूजा-सेवा करनी है तथा हमें प्रत्येक देशवासी को इसी भावना से प्रेम करना है।

स्वामी विवेकानंद

देश भक्ति

क्या आप देश भक्त बनना चाहते हो ? उसने पूछा और उत्तर दिया। अपने देश तथा देशवासियों के प्रति प्रेम-भाव रखो, उनके साथ स्वयं की एकात्मता अनुभव करो। यहाँ तक कि तुम्हारी परछाई तक को उनके विरोध या अहित में न जाने दो। अपने देश के कल्याण व उत्थान के लिये अपने व्यक्तिगत जीवन को न्यौछावर करने वाले सच्चे सिपाही बनो तथा देश की भलाई के लिये अपना सर्वस्व त्यागकर, अपने अस्तित्व को भुलाकर अर्थात अपने तुच्छ अहंकार का नाश कर देश के लिये कर्म करो, तभी देश तुम्हारे अपनत्व को अनुभव कर सकेगा। आगे बढ़ो, देश का नेतृत्व करो, देश तुम्हारा अनुसरण करेगा। स्वस्थ अनुभव करो: स्वस्थ सुदृढ़ देश की कल्पना करो तभी देशवासी भी स्वस्थ बनेंगे। तुम्हारी शक्ति उनकी धमनियों में प्रवाहित होगी।

मुझे यह अनुभव करने दो कि मैं संपूर्ण ही भारत हूँ, समग्र भारत। भारत की भूमि मेरा शरीर है, कन्या कुमारी मेरे पैर हैं, हिमालय पर्वत मेरा मस्तक है, मेरे केशों से गंगा प्रवाहित है; मेरे सिर से ब्रह्मपुत्र व सिन्धु नदियाँ बहती हैं, विन्ध्य पर्वत मेरी करधनी है। कॉर मण्डल मेरा दायाँ और मलाबार मेरा बायाँ पैर है। मैं ही समस्त भारत हूँ। इसके पूर्वी एवं पश्चिमी किनारे मेरी भुजाएँ हैं। मैं उन्हें समस्त मानवता के आलिंगन (अपनाने) के लिए फैलाता हूँ। मेरा प्रेम विश्वव्यापी है। ओह! कितनी आनंददायक है मेरे शरीर की रचना एवं मुद्रा यद्यपि व्यक्तिगत रूप में, मैं बड़ा होकर अनंत आकाश की ओर देख रहा हूँ। परन्तु वास्तविक रूप में, मेरी अंतरात्मा सबकी आत्मा है। अर्थात् सभी में एक आत्मा है। जब मैं चलता हूँ, तो मुझे लगता है कि मेरा भारत चल रहा है, जब मैं सांँस लेता हूँ तो महसूस होता है कि मेरा भारत सांँस ले रहा है। जब मैं बोलता हूँ तो भारत बोलता है। मैं ही भारत हूँ। मैं ही ‘शिव’ हूँ, मैं ‘शंकर’ हूँ। यही वास्तव में देशभक्ति की सर्वोच्च एवं सच्ची अनुभूति है, उपलब्धि है, और यही व्यावहारिक वेदान्त है।

स्वामी विवेकानन्द

यदि तुम केवल आलोचना करते हो,
तो तुम केवल दोषारोपण करना ही सीखते हो।
यदि तुम विद्वेष के साथ जीते हो,
तो तुम लड़ना-झगड़ना सीखते हो।
यदि तुम व्यंग्य करते हो,
तो तुम संकोची बनते हो।
यदि तुम लज्जाजनक जीवन व्यतीत करते हो,
तो तुम अपराध बोध से जीना सीखते हो।
यदि तुम सहिष्णुता से जीओगे,
तो तुम धैर्यवान बनोगे।
यदि तुम उत्साहयुक्त जीवन जीना सीखते हो,
तो तुम आत्म विश्वास सीखते हो।
यदि तुम प्रशंसा के साथ श्रेय प्राप्त कर जीओगे,
तो तुम दूसरे की सराहना करना सीखते हो।
यदि तुम अच्छाई के पथ पर चलते हो, तो तुम न्याय सीखते हो।
यदि तुम सुरक्षा के साथ जीते हो,
तो तुम श्रद्धा, विश्वास करना सीखते हो।
यदि तुम अनुमोदन की भावना में जीना सीखते हो,
तो तुम अपने आप को चाहने लगोगे।
यदि तुम सहयोग एवं मित्रता से जीते हो,
तो तुम्हें संसार में सर्वत्र प्रेम ही दृष्टिगोचर होगा।”

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Endnotes:
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