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अमृत वाणी

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अवकाश का सार्थक उपयोग

मेरे विचार से दीपावली अवकाश में लोग अपने-अपने घरों की सफाई करें, अपने हृदय को निर्मल करें तथा बच्चों को शिक्षाप्रद, सरल एवं निर्दोष मनोरंजन के अवसर दें। मुझे पता है कि आतिशबाजी बच्चों को आनन्द देती है। परन्तु यह इसलिये है क्योंकि हम बड़ों ने उन्हें आतिशबाजी की आदत डाली है। मेरी जानकारी के अनुसार एक अफ्रीकी बच्चा न तो आतिशबाजी चाहता है न ही माँगता है क्योंकि उसको यह सिखाया नहीं गया है। इसके बदले वह नृत्य करना पसंद करता है। बच्चों के लिये खेलकूद तथा पिकनिक, अधिक श्रेष्ठ एवं स्वास्थ्यप्रद है। बाजार की दूषित मिठाई की अपेक्षा ताजे फल एवं सूखा मेवा बच्चों को लाभकारी है। प्रत्येक बच्चे को चाहे वह अमीर हो या गरीब, स्वयं घर की सफाई व सफेदी करने के लिये प्रशिक्षित करना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें छुट्टियों के प्रारंभ से ही श्रम की महत्ता का ज्ञान कराया जाए। मैं यहाँ जिस बात पर बल देना चाहता हूँ वह है धन का सदुपयोग। आतिशबाजी आदि पर व्यर्थ में व्यय किये जाने वाले धन का यदि थोड़ा सा भाग भी सदुपयोग में लाया जाए तथा उससे निर्धनों की सेवा की जाय तो अच्छा होगा। जैसे ‘नारायण सेवा।’ सभी स्त्री, पुरुष, युवा एवं वृद्ध आदि को इससे अधिक आनंद किसी अन्य गतिविधि में प्राप्त नहीं हो सकता, कि वे अवकाश के दिनों में निर्धनों की चिंता कर उन्हें अपने अवकाश काल की गतिविधियों में सम्मिलित कर लें।

कल्याणकारक एवं आनंददायक

कल्याणकारक एवं आनंददायक (श्रेयस व प्रेयस) जीवन के ये दो मार्ग हैं, किस मार्ग पर चलें ये आपका निर्णय है।

दोनों मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। दोनों के उद्देश्य भिन्न-भिन्न हैं। दोनों मार्ग मनुष्य को ललचाते हैं। एक ओर जहां आनंददायक मार्ग दखने में सरल व सुखद प्रतीत होता है | परंतु वह मानव को अस्थायी सुख प्रदान कर पतन की ओर ले जाने वाला होता है। वहीं दूसरी ओर कल्याणकारी मार्ग देखने में कठिन एवं बाह्य आकर्षण से रहित है। परंतु यह मार्ग मनुष्य को वास्तविक लक्ष्य की ओर से जाकर उसका उत्थान करता है।

मानव के सम्मुख दोनों ही मार्ग है। विवेकी एवं बुद्धिमान पुरूष अपने विवेक से दोनों के यथार्थ स्वरूप को समझकर उनका भेद जान लेता है।और अखण्ड व आत्मिक शांति प्रदान करने वाले कल्याणकारी मार्ग को अपना लेता है। परंतु अविवेकी सांसरिक व्यक्ति लाभ एवं क्षणिक सुख को देखकर सुखदायी मार्ग को ही चुनता है।

हे नचिकेता ! तुमने विवेक से परीक्षण के पश्चात् उन भौतिक सुख भोगों को जो सुखदायी प्रतीत होते हैं, परित्याग कर दिया है। तुमने उस मार्ग को नहीं चुना जो अस्थिर, अस्थायी सुख व ऐश्वर्य की ओर ले जाता है, तथा जो असल में मानव के पतन का मार्ग है।

कठोपनिषद

दयालुता

वास्तविक ‘श्रेयस’ (कल्याण) क्या है?
मैंने चिंतन शील मुद्रा में पूछा,
न्यायालय के कहा ‘आदेश’
‘विद्यालय ने कहा ‘ज्ञान’
ज्ञानी पुरुष ने कहा ‘सत्य’
‘मूर्ख’ ने कहा ‘सुख भोग’
कुंआरी कन्या ने कहा ‘प्रेम’
नवयुवक ने कहा ‘स्वतंत्रता’
साधु बोला ‘घर’
सिपाही ने कहा ‘कीर्ति’
दृष्टा (देखने वाले) ने कहा ‘समभाव’
मेरा पूर्ण दुःखी मन बोला
मेरे हृदय ने पूर्ण विषाद से कहा
उत्तर यहाँ नहीं है।
तब मैने अपने हृदय की
धीमी-धीमी आवाज सुनी
‘प्रत्येक हृदय में’ इस रहस्य का भेद है।
दयालुता वह ‘शब्द’ है।

जॉन बॉयल ओ रेली

मानसिक शक्ति

त्येक व्यक्ति को ईश्वर प्रदत्त मानसिक शक्ति को पूरी तरह समझना चाहिए, चाहे वह कम हो या अधिक। यह ईशकृपा सर्वव्यापी है। दिव्य आध्यात्मिक शक्ति सब में है। अपने अंतःस्थल की गहराइयों में सुप्त, दिव्य आध्यात्मिक शक्ति को हम यदि पूर्णता की ओर से ले जाने का दृढ निश्चय करें तो हम सभी इस पूर्णता की ओर विकास के लिये सक्षम हैं। सभी व्यक्तियों में समान सामर्थ्य है। यद्यपि शरीर के साथ-साथ चेतना का विकास होता है, फिर भी शरीर की वृद्धि रुकने के पश्चात् भी चेतना का विकास अवरुद्ध नहीं होता। वह निरंतर होता रहता है। आयु बढ़ जाने पर भी बुद्धि, सौन्दर्यानुभूति के क्रियाकलाप, नैतिक शक्ति तथा आध्यात्मिक शक्ति निरंतर विकसित होती रहती है।

अलेक्सिस कॅरेल

संस्कृति – सौन्दर्य की भावना

सौन्दर्य को प्रत्यक्षानुकूल एवं अनुभूत करने की आंतरिक इच्छा: यह केवल इच्छा मात्र नहीं है वरन् यह जीवन के लिए प्राण वायु के समान महत्वपूर्ण है।

मैंने बहुत से सफल व्यक्ति देखे हैं। बहुत से अत्यधिक वैभव संपन्न धनी व्यक्ति देखे हैं। बहुतों को विजय प्राप्त होने पर सगर्व मुस्कुराते देखा है; परंतु मैने आंतरिक सौन्दर्य की भावना को समझने की शक्ति का अभाव पाया। संगीत का उनके लिये कोई अर्थ नहीं है, काव्य उन्हें रोमांचित नहीं करता। संसार में निहित अनुरूपता या सामंजस्यता का उन्हें आभास नहीं होता, न ही उनके चारों तरफ व्याप्त सौन्दर्ययुक्त, आश्चर्यजनक दृश्यों के प्रति वे सजग हैं, न उनके प्रति प्रेम या आसक्ति है।

यदि हम अपने अंदर सौन्दर्यानुभूति को जागृत नहीं करेंगे, तो अपनी मानसिक शक्ति का उत्थान नहीं कर सकते। हम उस निर्मम, निरंकुश मन के अभी तक गुलाम हैं। मन केवल तर्क करता है। अंत में मन के तर्क वितर्क आदि के झंझटों में व ज्ञान के बोझ तले दबकर हम मृत्यु को प्राप्त हो जाएँगे तथा जीवन के वास्तविक सौन्दर्य से अनभिज्ञ रह जाएँगे।

यदि कोई आदमी गलती पर है, तो सीधे शब्दों में कहने की अपेक्षा आप उसे एक दृष्टिपात से या स्वर के उतार-चढ़ाव से अथवा हाव-भाव से समझा सकते हैं। क्योंकि यदि आप कठोरता से या स्पष्ट रूप से उसकी गलती का एहसास कराते हैं, तो क्या आप समझते हैं कि वह आप से सहमत होगा ? कभी भी नहीं। क्योंकि आपने उसकी बुद्धि, निर्णय शक्ति, उसके अभिमान एवं आत्म सम्मान पर सीधे-सीधे प्रहार किया है। इस संपूर्ण धरती पर किसी से विवाद में जीतने का एक ही मार्ग है; और वह है विवाद को टालना।

हम सबको विदित है कि इच्छाएँ दुःख का मूल कारण हैं और उन्हें कम करना चाहिए। परंतु इच्छाओं को त्यागने या उनका दमन करने से क्या तात्पर्य है ? इच्छाओं के बिना जीवनयापन कैसे होगा? इसका अर्थ यह नहीं कि आपको धन संपत्ति की इच्छा नहीं करनी चाहिए। ऐसा भी नहीं कि आवश्यक वस्तुएँ अथवा वस्तुएँ जो विलासिता या आराम की हैं वह आपके पास नहीं होनी चाहिए। जो चाहते हो वह सब प्राप्त करो और अधिक भी, परंतु जीवन के वास्तविक सत्य को जानो एवं उसे प्राप्त करने का प्रयास करो कि संपत्ति किसी के अधिकार की नहीं होती । स्वामित्व, मालिकाना हक, अधिकार जताने आदि की भावना को त्याग दो। समझो कि सभी कुछ भगवान का है।

स्वामी विवेकानंद<

अपने मन को उच्च व पवित्र विचारों से भरो। प्रतिदिन उन सद्विचारों को सुनों, प्रतिपल उनका चिंतन करो। असफलताओं की चिन्ता मत करो, जीवन में असफलताएँ बिलकुल स्वाभाविक हैं। जीवन की सुन्दरता हैं ये असफलताएँ ! सोचो तो, उनके बिना जीवन क्या और कैसे होगा ? यदि जीवन में संघर्ष नहीं होगा तो ऐसा जीवन जीने योग्य नहीं होगा। बिना संघर्षमय जीवन के जीवन का काव्य कहाँ होगा ? संघर्ष का दूसरा नाम ही जीवन है।

वस्तुतः हमें मस्तिष्क व हृदय दोनों की आवश्यकता है। अनंत भावना एवं अनन्त विचार व तर्क दोनों का समान महत्व है। इन दोनों को साथ-साथ असीमित रूप में आने दो।

स्वामी विवेकानंद

मानव को चार कार्य करना सीखना है,
यदि मानव जन्म सफल बनाना है।
बिना भ्रमजाल के स्पष्ट चिंतन करना,
बंधु-बांधवों को सच्चा प्यार करना,
ईमानदारी व शुद्ध उद्देश्य से युक्त कार्य करना तथा
ईश्वर एवं स्वयं में दृढविश्वास रखना।

वॅन डाईक

संसार हमारे लिये है, हम संसार के लिये नहीं हैं। अच्छाई व बुराई हमारी दास है, हम उनके दास नहीं है। कर्म करते हुए निश्चल रूप से पड़े रहना, प्रगति नहीं करना यह तो पशु का स्वभाव है। मनुष्य का स्वभाव बुराईयों, दुर्गुणों को दूर कर, अच्छाईयों की ओर तथा गुणों की ओर बढ़ना, अपना उत्थान करना। इसके विपरीत भगवान का स्वभाव है अच्छा या बुरा इन दोनों में से किसी को भी प्राप्त करने का यत्न न करना अर्थात् सब में निर्लिप्त रहना और परमानंद में मग्न रहना। आओ हम ईश्वर बनें। अपने हृदय को सागर की भाँति विशाल एवं गंभीर बनाओ। संसार की सभी क्षुद्रता से परे जाएँ, सांसारिक आकर्षण के प्रति उदासीन रहें और उनमें आसक्त न होकर, बुराई से प्रभावित न हो एवं उसके प्रति समभाव रखें। अपने ही आनंद में मझ रहो। संपूर्ण संसार को एक चित्र की तरह देखो और उनके सौन्दर्य का आनंद लो। आसमें लिप्त मत हो। यह जानते हुए कि कुछ भी तुम्हें प्रभावित नहीं करता, शांत, स्थिर चित्त से एवं आत्मसंतुष्टि की भावना से उसे निहारो। अच्छाई, बुराई को समदृष्टि से देखो क्योंकि दोनों ईश्वर की ही लीला मात्र है। अतः सब का आनंद लो।

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