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पारिवारिक कार्यों में सहभागिता

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वसुधैव कुटुम्बकम्।

सम्पूर्ण विश्व ईश्वर का एक परिवार है। यह हमारे वेद हमें बताते हैं और यही सत्य, अन्य सभी धर्मग्रन्थ भी सिखाते हैं। मानव, आपस में भाई-भाई हैं और सब उस परम पिता की संतानें हैं यह सबसे बड़ा सत्य है। बाइबिल में भी मनुष्यों को एक आदि पुरुष की संतान माना गया है। ‘एडम’ शब्द हिब्रू भाषा का है जिसका अर्थ है आदमी। हिन्दू मान्यता के अनुसार प्रथम मानव मनु है और सम्पूर्ण मानवता उनकी संतान है। जाति, श्रेणी और रक्त का अन्तर मानव मात्र की मौलिक एकता से श्रेष्ठ नहीं है। यहूदी संत रब्बीस ने पूछा – “मनुष्य एक क्यों बनाया गया? इसका उत्तर दिया गया कि ताकि कोई मनुष्य यह न कह सके कि मेरा पिता उसके पिता से महान है।” आगे बाइबिल कहती है कि, ‘अपने पड़ोसी से अपने जैसा प्रेम करो।’

विश्व नागरिकता का शुभारम्भ घर से

सच्चे विश्व नागरिक बनने के लिए उपर्युक्त लक्ष्य को प्राप्त करना है। इसके लिए मनुष्य को अपने व्यक्तित्व का विकास करना होगा। पहले यह व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से प्रारंभ होता है। फिर घर में आदर्श सदस्य के रूप में जुड़ता है तथा परिवार का उपयोगी सदस्य बन जाता है। तत्पश्चात् कालांतर में वह समाज, देश एवं विश्व का उपयोगी सदस्य बन जाता है। वास्तव में यह विकास की प्रक्रिया है जिससे क्रमिक वृद्धि होकर हृदय पुष्प खिलता है, बुद्धि प्रदीप्त होती है तथा विवेक का विकास होता है।

इस तरह प्रगति पथ में निश्चित रूप से घर ही प्रत्येक के लिये प्रारम्भिक बिन्दु है। थोड़े प्रयास से और विवेक से कोई भी व्यक्ति स्वयं को ऊपर बताये ढांचे में ढाल सकता है। यह सत्य कहा जाता है कि सभी सामाजिक संस्थाओं में परिवार सर्वाधिक प्राचीन है। एक कवि ने अपने घर के संदर्भ में एक गीत गाया था –

कितना अच्छा कितना सुन्दर है मेरा घर…

प्रेम, मित्रता, सुख समाज यह है प्रभु का वर।

घर समान कोई जगह नहीं दुनिया भर में है।

हम मानव अपने परिवार में ज्यादा आसक्त रहते हैं। पशुओं और पक्षियों ही शैशव और बाल्यावस्था बहुत थोड़े समय में समाप्त हो जाती है। ज्यों ही वे अपने को संभालने योग्य हो जाते हैं वे अपने माता-पिता से संबंध तोड़ लेते हैं। परन्तु हम मानवों का बचपन और शैशव बहुत लम्बे समय बाद समाप्त होता है। हमें अपने प्रिय माता-पिता की आवश्यकता प्रौढ़ावस्था तक ही नहीं बल्कि उसके बाद भी रहती है। बच्चों के विकास हेतु माता-पिता में बहुत कोमलता धैर्य और त्याग की आवश्यकता होती है यही कारण हैं कि हमें यह सदैव याद रखना होगा कि परिवार में ही हमारे चरित्र का निर्माण होता है। कम उम्र में पड़ने वाले प्रभाव से चरित्र का निर्माण होता है। इसलिए कम उम्र में पड़ने वाले प्रभाव विशेष रूप से स्थायी होते हैं। परिवार में ही हम मानव मूल्यों का निरीक्षण कर उन्हें आत्मसात करते हैं। जीवन के सभी मानवीय गुण आज्ञा पालन, आत्मसंयम, ईमानदारी पहले देना व बाद में लेना की परोपकारी भावना और इन सबसे ऊपर त्याग की भावना हम परिवार में ही सीखते हैं। इसलिए यह कहा जाता है कि घर अथवा परिवार नागरिक गुणों के विकास की प्रारंभिक पाठशाला है। वास्तव में व्यक्तित्व के विकास की जड़ें बचपन में हैं। देश की उन्नति के लिए परिवार की उन्नति आवश्यक है।

श्री सत्य साई बाबा कहते हैं-

‘यदि हृदय में सदाचरण है तो चरित्र सुन्दर बनेगा।’

चरित्र सौन्दर्य, से फिर घरों-घर सामन्जस्य होगा।

घरों में इस सामन्जस्य से, देश में होगी व्यवस्था,

देश की इस सुव्यवस्था से विश्व में शांति होगी।’

बच्चों द्वारा कुछ प्रयासों तथा अनुशासन के अभ्यास द्वारा और उससे भी अधिक माता-पिता एवं बड़ों के आदर्श उदाहरण द्वारा बच्चों के जीवन में ऐसे गुणों का विकास होता है जिससे बड़े होने पर वे आदर्श नागरिक बनते हैं।

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