कृष्ण का आकर्षण

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कृष्ण का आकर्षण

वह अपनी दिव्या क्रीड़ा और चमत्कारी शक्तियों से सभी के हृदय को मोह लेता है, और अपने प्रेम द्वारा हमारे मन को संवेदी इच्छाओं से दूर करता है | बाबा कहते हैं कि यह आकर्षित करने की अभिवृत्ति दैवत्व की विशेषता है तथा देव हमें परिवर्तित, पुनर्निर्मित एवं दोषनिवृत्त करने हेतु आकर्षित करता है, न कि छल या गुमराह करने हेतु |

कृष्ण भाव को विकसित करना

‘कृष्ण’ शब्द का मूल रूप है ‘कृष’, अर्थात खेती करना | अतः ‘कृष्ण’ का अर्थ है, ‘वह जो मानव हृदय से नकारात्मक प्रवृत्ति रुपी अपतृण को निकालकर, श्रद्धा, साहस तथा हर्ष जैसे सकारात्मक गुण के बीज बोता हो | कृष्ण अपने भक्तों के हृदय में प्रसन्नता के फसल विकसित कर उन्हें अपने सत् -चित् -आनन्द होने से अवगत कराते हैं |

स्वामी कृष्ण के रूप में

यह अनुभव गाली शारदा देवी नमक एक धर्मनिष्ठ भक्तिन का है | उनका यह परम सौभाग्य था कि उन्हें भगवान के पूर्व अवतार शिरडी में उनका सामीप्य प्राप्त हुआ और बाद में स्वामी के पास पुट्टपर्ती भी आईं | स्वामी उन्हें स्नेह से ‘पेद्द बोट्टू’ नाम से पुकारते थे, क्योंकि वे हमेशा अपने माथे पर कुमकुम की एक बड़ी बिंदी लगाती थीं | वे एक अति पवित्र व भद्र नारी थीं | उन्होंने अपनी अंतिम साँस तक प्रशांति निलयम में अपना जीवन व्यतीत किया | स्वामी से उनका अत्यंत लगाव था और स्वामी भी उनसे परस्पर प्रेम करते थे |

छोटी उम्र से ही वे कृष्ण भक्त थीं और कृष्ण की मूर्ति की पूजा करती थीं | आजीवन उन्हें अनेक दिव्य अनुभव व दर्शन हुए | स्वामी के पास आने के पश्चात् उनकी एक इच्छा थी कि स्वामी को बाल गोपाल के रूप में देखें, किन्तु अपने मन की इच्छा को स्वामी से कभी व्यक्त नहीं किया |

एक अवसर पर जब स्वामी उनसे बात-चीत कर रहे थे, उन्होंने स्वामी के चरण पकड़कर एक श्लोक कहा, जिसका सार था, बाबा तुम ही मेरे माता, पिता, बंधु, सखा ज्ञान, धन सब कुछ हो और मैं तुम्हरी चरणों में शरण लेती हूँ | फिर क्या हुआ ? आईये सुनते हैं पेद्द बोट्टू के शब्दों में ही |

अपनी आत्मकथा में वे लिखतीं हैं, “मैंने अपनी आँखें मूँदकर उनकी चरणों में अपना शीश रख दिया | मुझे घुटने तक पीताम्बर में लिपटे उनके पैर दिखे | मुझे ६ साल के बाल कृष्ण पीताम्बर पहने और पैरों में पायल पहने नज़र आए | होश आने पर मैंने स्वामी से पूछा, “क्यों किया आपने ऐसा ? मुझे क्यों पूर्ण दर्शन नहीं दिया?” स्वामी ने उत्तर में कहा, “इतना पर्याप्त था | आधे दर्शन से ही तुम अध -मरी सी हो गई, मैं पूर्ण दर्शन देता तो तुम पूरी तरह से मर जाती |”

Source: Autobiography of Pedda Bottu, pg 251

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