निष्ठावान कर्ण

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निष्ठावान कर्ण

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महान महाप्रबंध काव्य महाभारत में अनेकानेक विशिष्ट चरित्र हैं। परंतु, कर्ण का चरित्र एक अत्यंत उच्च स्तम्भ पर खडा है। उसके अन्दर अनेक श्रेष्ठतम गुण थे जो कि अनुकरणीय हैं।

अंग राज्य के राजकुमार होने के नाते कर्ण अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध था। उसने कभी भी उससे कुछ भी माँगने वाले को ‘ना’ नहीं कहा। इन्द्र की दूरदर्शिता के अनुसार कर्ण, अर्जुन के लिए एक प्रबल प्रतियोगी था। इसलिए इंद्र ने एक योजना बनाई। एक दिन वह ब्राह्मण का रूप धारण करके कर्ण के पास गये।

ब्राह्मण को देखकर कर्ण अपने सिंहासन से उठे और उन्हें सम्मान प्रदान किया। वह जानते थे कि यह ब्राह्मण और कोई नहीं बल्कि इन्द्र है।

“पूजनीय विप्रवर, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ?” – कर्ण ने पूछ।| इन्द्र ने आशीष देते हुए कर्ण से कहा “अंगराज! मैंने तुम्हारी दानवीरता के बारे में बहुत सुना है। मैं एक गरीब ब्राह्मण हूँ और आपसे कुछ प्राप्त करने ही आया हूँ |”

गत रात्रि को कर्ण को स्वप्न में, सूर्यदेव ने इन्द्र के अपेक्षित आगमन एवं उनके मंतव्य के विषय में पहले ही सावधान कर दिया था। परंतु कर्ण को दान के विषय में कुछ भी भान विचार नहीं था। इसलिए उन्होंनेने कहा, “हे ब्राह्मण देवता, मैं जानता हूँ कि आप इन्द्र देवता हैं आप मुझसे कुछ विशिष्ट अलंकार लेने आए हैं, ताकि अर्जुन उससे लाभान्वित हो सकेगा, परंतु मैं अपने वचन से पीछे नहीं हटूँगा, आपकी इच्छित मांगपूर्ति के लिए जो आपके द्वारा माँगी गई हो।”

इन्द्र ने नि:संकोच, कर्ण से उसके कवच और कुंडल माँग लिए। कर्ण ने यह जानते हुए भी कि इस दान के परिणाम स्वरूप वह अपनी आधी शक्ति और आधी सत्ता दे रहा है, बिना किसी हिचकिचाहट के कर्ण ने कानों से कुंडल और कवच काट कर ये वस्तुएँ दे दीं। इन्द्र देव प्रसन्न हुए और ‘शक्ति’ के रूप में कर्ण को एक वरदान इस शर्त पर प्रदान किया कि वह केवल एक ही व्यक्ति के विरुद्ध प्रयोग किया जा सकेगा।

कर्ण अपने अंतरंग मित्र दुर्योधन से प्रगाढ स्नेह रखता था, जिसने उसे राजकुमार के पद के लिए अंगराज की मान्यता दी थी। इसलिए उसने किसी भी स्थिति में दुर्योधन के लिए अपना सब कुछ सौंप देने का निश्चय लिया था।

धृतराष्ट्र के दरबार में वार्ता के पश्चात कृष्ण ने कर्ण को नाटकीय रूप से कौरवों के खेमे से दूर रखने की योजना बनाई। हस्तिनापुर से प्रस्थान करने से पूर्व वे कौरवों के राजमहल में गए तथा अत्यंत चतुराई से कर्ण से भेंट की।

कर्ण ने अत्यंत सम्मानित भाव से कृष्ण का सम्मान किया एवं उन्हें उचित आसन पर विराजमान किया। कृष्ण ने आनन्द प्रकट करते हुए सम्बोधित किया, “ओह मेरे प्रिय बंधुवर।” कर्ण इस प्रकार के लुभावने संबोधन से तुरंत कृष्ण की मंशा भांप गया। परंतु उसने अपने विचार स्वयं तक ही रखे, कृष्ण के अत्यंत प्रगाढ़ स्नेह युक्त शब्दों के उत्तर में उनसे अपने आगमन का प्रयोजन कारण बतलाने को कहा – “प्रिय कृष्ण मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?” कृष्ण बोले, “प्रिय कर्ण, मैं तुम्हारी महान योग्यताओं से परिचित हूँ, इसीलिए मैं तुम्हारे साथ एक निजी वार्ता करने आया हूँ।”

उन्होंने आगे कहा, ” प्रिय कर्ण मैं तुम्हें तुम्हारा कर्तव्य स्मरण कराने आया हूँ जिसके बारे में तुम्हें जानकारी नहीं है।” कर्ण ने पूछा वह क्या? कृष्ण ने कहा, “मैं तुम्हें एक भली भाँति छुपाया गया गुप्त रहस्य बताने जा रहा हूँ। वास्तव में तुम भगवान सूर्य की कृपा से उत्पन्न, कुंती के पुत्र हो। परंतु सामाजिक अपराध बुराई की अवधारणा के कारण कुंती ने तुम्हें शैशव काल में ही गंगा में छोड़ दिया था। तुम्हें रथ सारथी और उसकी पत्नी राधा द्वारा उठा लिया गया और उनके द्वारा पालन पोषण किया गया। अब तुम्हारे लिए सच्चाई समझ कर पांडवों के साथ जुड़ जाने का समय आ गया है, जो कि सचमुच में ही तुम्हारे छोटे भाई हैं। तुम जानते हो पांडव सौम्य और न्याय प्रिय हैं तथा कौरव अपने आचार व्यवहार में क्रूर और अन्यायी हैं। तुम एक निष्ठावान व्यक्ति हो। मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ इसलिए तुम अधर्म त्याग कर धर्म का साथ दो। इस कर्म के द्वारा तुम अपनी माता कुंती को भी प्रसन्न कर सकोगे।”

परंतु कर्ण के पास अपनी स्वयं की आचार संहिता एवं अस्मिता थी। उसने कहा, “हे कृष्ण आप तो स्वयं अंतर्यामी हैं और ऐसा कोई धर्म नहीं है जो आप नहीं जानते। मैं अपनी वर्तमान मान सम्मान सत्ता के लिए दुर्योधन का आभारी व ऋणी हूँ। इसके अलावा हम अच्छे मित्र हैं। ऐसे कठिन समय में यदि मैं उससे मित्रता तोड़ दूँ या छोड़ दूँ तो वह मुश्किल में पड़ जायेगा।” तब कृष्ण ने कर्ण को प्रलोभन देने का प्रयास किया, “कर्ण तुम जानते हो धर्मराज और उसके चारों भाई तुम्हें अपना ज्येष्ठ भ्राता के रूप में स्वीकार कर अत्यंत प्रसन्न होंगे और तुम्हें राजा बना देंगे।”

परंतु कर्ण तनिक भी आकर्षित, लालायित नहीं हुआ। “कृष्ण, मैं मेरे हितैषी (दुर्योधन) के प्रति मेरे कर्तव्यों से विमुक्त होना नहीं चाहता उसका शिविर त्यागकर, वह भी तब जब कि आसन्न कालीन आनेवाले युद्ध के समय में उसे मेरी बहुत जरूरत है। मुझे क्षमा करें, मैं उत्तरोत्तर उन्नति करुँ अथवा मृत्यु का वरण करूँ परंतु मैं अपनी ख्याति या व्यक्तिगत आनन्द के लिए कौरवों का शिविर नहीं छोड़ सकता। मैं जानता हूँ अंततः पांडव ही विजयी होंगे, परंतु इससे मेरा निर्णय नहीं बदल सकता।”

कृष्ण समझ गए कि कर्ण को वे किसी भी प्रकार के प्रलोभन से प्रभावित नहीं कर सकते। इसलिए उन्होंने वहाँ से विदा ली।

कुछ दिनों पश्चात् कुंती कर्ण के पास आई, और उसे समझाया कि वह कौरवों को छोड़कर पांडवों का साथ दें, परंतु कर्ण अपने निश्चय पर अडिग था। यद्यपि उन्होंने, अपनी माँ को यह वचन दिया कि युद्ध के अंत में वह केवल एक ही पांडव भाई को मारेगा ताकि कुंती के शेष में जीवित पांचों पुत्र रहेंगे।

प्रश्न:
  1. अपने पुत्र अर्जुन के हित में इन्द्र ने कैसी योजना बनाई?
  2. कृष्ण ने कर्ण को क्या प्रलोभन दिया?
  3. कर्ण की क्या महान विशेषताएंँ थीं?

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