विभीषण का प्रभु श्रीराम के चरणों में समर्पण
विभीषण का प्रभु श्रीराम के चरणों में समर्पण
विभीषण ने अपने भ्राता रावण को समझाने का अथक प्रयास किया। भरी सभा में उसने लंकापति रावण से विनम्र निवेदन किया कि वो माता सीता को लौटा दे। किंतु अभिमानी रावण पर उसकी किसी भी बात का असर नहीं हुआ बल्कि वह और क्रोधित हो उठा। उसने विभीषण की छाती पर लात से प्रहार करते हुए,उस पर देशद्रोही होने का आरोप लगाया।
विभीषण यह अपमान सहन नहीं कर सका। वह अपने विश्वस्त साथियों के साथ सभागृह से निकल गया। वे सभी समुद्र पार कर उस स्थान पर पहुँचे जहाँ भगवान राम अपनी सेना के साथ ठहरे हुए थे।
वानर समुदाय ने जब आकाश में पाँच काली आकृतियाँ देखीं तो वे उन आकृतियों का वध करने के लिए उद्यत हो उठे। परंतु विभीषण ने उन्हें रोकते हुए बताया कि हम श्रीराम की शरण में आए हैं। नीचे उतर कर उन्होंने भगवान के चरणों में शीश नवाया तथा शरण में लेने का निवेदन किया।
सुग्रीव ने इसका प्रतिरोध किया।उसे विभीषण की बातों पर तनिक भी विश्वास नहीं था। परंतु राम ने शांति पूर्वक लक्ष्मण, अंगद एवं हनुमान से इस विषय में विचार विमर्श किया। लक्ष्मण भी विभीषण को शरण देने के पक्ष में नहीं थे। अंगद ने निर्णय प्रभु पर ही छोड़ दिया। हनुमान ने विनम्रतापूर्वक कहा, “प्रभु आप विभीषण की विनती स्वीकार करें। जब मैं लंका में था, तब मैंने विभीषण की सात्विक प्रवृत्ति का परिचय प्राप्त किया है। लंका में दुष्ट प्रवृत्ति वाले लोगों के साथ रहते हुए भी विभीषण धार्मिक प्रवृत्ति का है। वह रावण की मनोवृत्ति का सदैव विरोधी रहा है।” किंतु सुग्रीव अभी भी पूर्णतया सहमत नहीं था। उसने श्रीराम से कहा जो अपने भाई का न हो सका,वह अपना कैसे हो सकता है?
तब श्रीराम ने मुस्कुरा कर कहा, “क्या तुम इतनी जल्दी अपनी कहानी भूल गए? क्या तुमने मुझसे संबद्ध होने के लिए अपने भाई से झगड़ा नहीं किया था?”
“मेरे प्रिय मित्र, रावण को त्याग देने के लिए विभीषण के पास कारण है पर हमें छोड़ने के लिए कोई कारण नहीं। इसके अतिरिक्त क्षत्रिय होने के नाते मेरा यह धर्म है कि शरण में आये व्यक्ति को मैं संरक्षण प्रदान करूँ।”
तत्पश्चात् प्रभु ने विभीषण को अपने निकट बुलाया एवं उससे मित्रता की। उन्होंने समुद्र से थोड़ा जल मँगवाकर कुछ आवश्यक रीतियों को पूर्ण किया तथा विभीषण को लंकापति घोषित किया।
सुग्रीव के मन में अभी भी शंका शेष थी। उसने संकोच के साथ श्रीराम से पूछा- “प्रभु यदि रावण स्वयं आपसे संरक्षण चाहे तो आप क्या करेंगे?” श्रीराम ने सहज मुस्कान के साथ उत्तर दिया- “नि:स्संदेह मैं उसे सुरक्षा प्रदान करूंगा।”
प्रभु की करूणा एवं सहृदयता से वहाँ उपस्थित संपूर्ण समुदाय अभिभूत था।
प्रश्न
- विभीषण ने रावण की राजसभा का परित्याग क्यों किया?
- सुग्रीव के मन में क्या संदेह था? राम ने उसकी उन शंकाओं का निवारण कैसे किया?
- राम ने विभीषण को शरण देना क्यों स्वीकार किया?