आन्तरिक समानताएंँ - Sri Sathya Sai Balvikas

आन्तरिक समानताएंँ

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आन्तरिक समानताएंँ
  1. सभी धर्म आस्तिक हैं और ईश्वर पर विश्वास करते हैं। यद्यपि बौद्ध और जैन धर्म ईश्वर के बारे में मौन हैं परन्तु वे भी पूर्णता के दैवी सिद्धान्त पर विश्वास करते हैं। जैन धर्म में जब कोई साधक इस पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो उसे अरिहंत कहकर पुकारा जाता है। मनुष्य को जिस उच्चतम अवस्था को प्राप्त करना है उसे मोक्ष या निर्वाण कहते हैं। इस अवस्था को प्राप्त करते ही सारी सांसारिक इच्छाएँ तथा आवश्यकताएंँ समाप्त हो जाती हैं एवं मनुष्य परम आनन्द की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, यह जैन धर्म की मान्यता है। बौद्ध धर्म भी ईश्वर के अस्तित्व के बारे में मौन है और विश्वास करता है कि मनुष्य जिस उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर सकता है वह है बुद्धत्व। वह दिव्य व्यक्ति, कैवल्य या मुक्त है, वह प्रेम का प्रतिरूप और प्रज्ञान है। अन्य सभी धर्म ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करते हैं और मानते हैं कि ईश्वर एक है। हिन्दू उसे ब्रह्म, ईश्वर या परमात्मा कहते हैं, ईसाई स्वर्ग के पिता, यहूदी यहोवा, पारसी अहूर मज्द तथा मुसलमान उसे अल्लाह कहकर पुकारते हैं। सभी धर्म ऐकेश्वरवादी हैं एवं ईश्वर को निम्नलिखित नामों से पुकारते हैं:
    • हिन्दू- ईश्वर, परमात्मा, ब्रह्म (पूर्णत्व)।
    • पारसी – अहूर मज्द (प्रज्ञावान) सत्यस्वरूप प्रज्ञा और प्रकाश के ईश्वर।
    • जैन धर्म – अरिहन्त, कैवल्य।
    • बौद्ध धर्म – बुद्धत्व निर्वाण की स्थिति (अवधूत, अक्षर, ध्रुव, सत्य) प्रेम और प्रज्ञान की प्रति मूर्ति।
    • यहूदी – यहोवा।
    • ताओ धर्म – ताओं अर्थात परम सत्य।
    • इस्लाम – अल्लाह- दयावान, करुणामूर्ति तथा सृष्टि के एकमात्र अधिपति (मालिक)।
    • सिक्ख धर्म – सत या अकाल परन्तु ईश्वर एक ही है जिसे सत्य या सनातन कहकर पुकारा जाता है।
    • ईसाई धर्म स्वर्ग में निवास करने वाले पिता।
  2. सभी धर्म ईश्वर को तीन आधारभूत कार्य, सृष्टि, पालन और संहार करने वाला मानते हैं। हिन्दुओं का विश्वास है कि ब्रह्म का त्रिगुणात्मक स्वरूप है ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर जो क्रमशः सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहारकर्ता हैं। ईसाई ईश्वर के इन तीन स्वरूपों को पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा कहकर सम्बोधित करते हैं। बाईबल के ओल्ड टेस्टामेन्ट में ईश्वर को सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता व नियन्ता (नियम जानने वाला) माना गया है। सिक्ख ईश्वर को सृष्टिकर्ता, रखवाला और अन्ततः जिनमें सब कुछ समा जाता है इन तीन स्वरूपों में मानते हैं।
  3. मनुष्य ईश्वर का ही एक अंश है, ऐसा हिन्दू मानते हैं। पारसी धर्म के अनुसार जैसे नाक, आँखों के अति निकट हैं उसी प्रकार ईश्वर भी मेरे बहुत निकट है। यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम धर्म कहते हैं ईश्वर ने धूल से मनुष्य की रचना की और उसमें आत्मा डाल दी। बौद्ध धर्म के अनुसार – “आत्मा मनुष्य का मालिक है”। परमात्मा आपके अंदर ही है”, सिक्ख धर्म कहता है। यहूदियों के अनुसार ईश्वर सम्पूर्ण सृष्टि के अस्तित्व का कारण है।”
  4. सभी धर्म देवों या स्वर्ग दूतों के अस्तित्व पर विश्वास करते हैं। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं लगाना चाहिए कि वे अनेक ईश्वरवादी हैं। सभी एक ही परमात्मा के अस्तित्व को मानते हैं।
  5. सभी धर्म तीन लोकों के अस्तित्व पर विश्वास करते हैं पृथ्वी, स्वर्ग और नरक। इसकी दार्शनिक व्याख्या यह है कि ये चेतना के तीन विभिन्न स्तरों के प्रतिरूप हैं। नरक मनुष्य से निम्न स्तर का, पृथ्वी अर्थात् मनुष्य के स्तर का और स्वर्ग अर्थात् चेतना में दैवी स्तर का प्रतीक है।
  6. सभी धर्म आत्मा के अस्तित्व को मानते हैं। गीता के अनुसार शरीर की मृत्यु होती है परन्तु आत्मा अमर है। बाईबल के वचन हैं, “आप धूल हैं और आपको धूल में ही वापस जाना है ऐसा आत्मा के लिए नहीं कहा गया है।”
  7. सभी धर्म आत्मत्याग की आवश्यकता और गरिमा को विशेष महत्व देते हैं। कुरान कहता है “ईश्वर के संकल्प के प्रति समर्पण का भाव रखो।” अपनी आत्मा को परमात्मा के श्री चरणों में समर्पित कर दो, गीता का यही उपदेश है।
  8. सभी धर्म मनुष्य की समानता पर विश्वास करते हैं। हम सभी उसी एक परमात्मा की संतानें हैं। सभी एक समान है। कोई ऊँच या नीच नहीं है। “व्यक्तित्व के सूक्ष्म स्तर पर तुममें, ईश्वर में और मुझमें कोई अन्तर नहीं है।”
  9. सभी धर्म प्रार्थना की आवश्यकता तथा महत्व को सर्वोपरि मानते हैं। यह ईश्वर और मनुष्य के बीच स्वर्णिम सम्पर्क सूत्र है। यह परमपिता परमेश्वर से घनिष्ठ संबंध स्थापित करने का एकमात्र उपाय है। यह एकाग्रता बढ़ाती है, हृदय को पवित्र बनाती है और अन्दर-बाहर शान्ति स्थापित करती है।
  10. परम लक्ष्य – प्रत्येक धर्म का लक्ष्य एक ही है- मनुष्य को पूर्ण (श्रेष्ठतम) बनाना। धर्म के बिना मनुष्य अधूरा है। धर्म मनुष्य को ईश्वर से जोड़ता है और अन्ततः उसे ईश्वर के समान बना देता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपना प्रयास करना पड़ता है फिर ईश्वर का अनुग्रह उसकी सहायता करता है।

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