इच्छाओं पर नियंत्रण के विषय में दिव्य संदेश के कुछ अंश
अन्न का अपव्यय मत करो।
धन का अपव्यय मत करो।
समय बर्बाद मत करो।
ऊर्जा का अपव्यय मत करो।
प्रकृति का शोषण मत करो।
उक्त बातें भगवान श्री सत्य साई बाबा के उद्बोधनों से हैं, जो, उन्होंने “इच्छाओं पर नियंत्रण कार्यक्रम” के अंतर्गत बोलीं थीं।
इच्छायें कैदखाना है
इच्छाओं पर नियंत्रण का अर्थ क्या है? मनुष्य अपनी अनियंत्रित इच्छाओं से मोहित होकर एक स्वप्ननगरी मे खोया रहता है, और अपने दिमाग की छुपी हुई अनोखी शक्ति को भूलने लगा है। इस कारण, हमें अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना आवश्यक है और उस पर नियंत्रण करना भी अत्यावश्यक है। हम स्वयं की सुख-सुविधा पर आवश्यकता से अधिक खर्च कर रहे हैं, जबकि, हमें कुछ धन निरीह एवं ज़रूरतमन्दों के लिए खर्च करना चाहिए। इसी को सही मायने में इच्छाओं पर नियंत्रण कहते हैं।
यह समझने की भूल नहीं करना कि, केवल धन देना ही पर्याप्त है। दूसरों को देते हुए, स्वयं की इच्छाओं को बढ़ाना नहीं है। अपनी भोग विलास की वस्तुओं के प्रति, इच्छाओं को सीमित नहीं करने से, यह हमे बैचैनी और विनाश के राह पर ले जाएगी। इच्छायें एक क़ैदखाने के समान होती हैं। इससे मुक्त होने का एकमात्र उपाय है अपनी इच्छाओं को सीमित रखो। जीवन में केवल अतिआवश्यक जरूरतों को ही महत्व देना होगा।
हम अपनी इच्छाओं को कैसे कम करें?
सर्वप्रथम भोजन, केवल जितनी आवश्यकता हो उतना ही भोजन करें। लालची न बनें। आवश्यकता से अधिक भोजन थाली में लेकर, उसे छोड़ देना या फेंक देना महा पाप है। वह अतिरिक्त भोजन किसी और की भूख मिटा सकता है। अन्न का अपव्यय न करें, क्योंकि अन्न ही ब्रम्ह है। जीवन ईश्वर की देन है और मनुष्य अन्न से उत्पन्न होता है। अन्न, मनुष्य के प्राण, शरीर, मन, और चरित्र का निर्माणकर्ता है।
अन्न के स्थूल भाग को, शरीर मल के रूप मे त्याग देता है। भोजन का थोड़ा सा अंश, सूक्ष्म रूप में शरीर में रक्त के रूप में बहता हुआ आत्मसात होता है। और बिल्कुल सूक्ष्मतर भाग मन का निर्माण करता है। इसलिए कहते हैं जैसा अन्न वैसा मन। आजकल की अमानवीय और शैतानी प्रवृत्तियों का मुख्य कारण, वर्तमान में ग्रहण किया जाने वाला भोजन है।
फलस्वरूप मनुष्य दया, प्रेम, करुणा और धैर्य का पालन न करके, केवल घृणा और मोह को बढ़ावा दे रहा है। इसलिए जो भोजन हम ग्रहण करते हैं वह शुद्ध, स्वच्छ, और सात्विक होना चाहिए। यही मनुष्य को सही पोषण देता है। शरीर से काफी मात्रा में हमारे द्वारा पिया जाने वाला जल, मूत्र के द्वारा निष्कासित हो जाता है। बहुत थोड़ी सी मात्रा में जल हमारी प्राणशक्ति में परिवर्तित होता है। इसलिए जल और भोजन का स्वरूप जो हम ग्रहण करते हैं, हमारे चरित्र को दर्शाता है। केवल इन दोनों के स्वरूप को नियंत्रित रखने से हम दिव्यता के समीप जा सकते हैं। इसकारण से अन्न को ब्रम्ह कहा जाता है। कभी भोजन बर्बाद नही करना चाहिए। इसकी बर्बादी ईश्वर का अपमान होगा। केवल भूख लगने पर वही खायें, जो सात्विक हो। शेष बचे भोजन को ज़रूरतमन्दों में बाँट दें।
द्वितीय, धन भारतीय, धन एवं रुपये पैसे को, माँ लक्ष्मी का स्वरूप मानते हैं। इस कारण धन के अपव्यय को करने से बचते हैं। धन का अपव्यय मत करो। ऐसा करने से व्यक्ति कुव्यसनों, कुविचारों तथा बुरी आदतों का गुलाम बनने लगता है। अपने धन दौलत को अच्छे कार्य मे खर्च करना चाहिए। पैसे की बर्बादी पाप है। ऐसा करने सेआप कुमार्ग की ओर अग्रसर होने लगेंगे।
तृतीय है समय। समय सबसे अधिक मूल्यवान तथा सबसे अधिक आवश्यक है। कभी समय को बर्बाद न करें, हमेशा इसका उपयोग सही मायने में करना चाहिए। समय को पवित्र संसाधन मानना चाहिए, क्योंकि सभी कार्य समय पर ही आधारित होते हैं। हमारे शास्त्र में भी यह कहा गया है कि ईश्वर काल स्वरूप, एवम कालातीताय हैं। वे समय से परे है, और समय उनके आधीन है।
मनुष्य का जन्म और मृत्यु इसी काल या समय पर निर्भर है। समय हमारे विकास का प्रमुख कारक होता है। समय को बर्बाद करना हमारे जीवन को बर्बाद करने जैसा होगा। इसलिये समय को, हमारे जीवन का एक अतिआवश्यक अंग माना जाता है। कभी अपने मूल्यवान समय को व्यर्थ की बातों में, या दूसरों के विषय में लिप्त होकर, व्यर्थ न गवाएँ। “समय बर्बाद मत करो” के पीछे, सत्य ये है कि अपना मूल्यवान समय, बुरे विचार और कार्य में व्यर्थ न कर, उसका सदुपयोग, सृजनात्मक कार्य में करो।
चतुर्थ, ऊर्जा। हमें अपनी शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक ऊर्जा को कभी बर्बाद नहीं करना चाहिए। अब आप सवाल करोगे कि, “हम अपनी ऊर्जा कैसे बर्बाद करते हैं”? यदि तुम बुरा देखोगे, तुम्हारी ऊर्जा घटने लगेगी। गलत सुनने, गलत बोलने, बुरा सोचने से, और बुरा करने से तुम्हारी ऊर्जा का क्षय होता है।
अपनी ऊर्जा को इन पाँच क्षेत्रों मे बचा कर,आप अपने जीवन को सार्थक बना सकते हो।
बुरा न देखो – देखो जो अच्छा हो।
बुरा न सुनो – सुनो जो अच्छा हो।
बुरा न बोलो – बोलो जो अच्छा हो।
बुरा न सोचो – सोचो केवल अच्छा।
करो न कुछ बुरा – करो जो अच्छा हो।
यही ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग है।
दिव्यता के पथ पर चलना हो तो कुछ भी बुरा सुनना, देखना, बोलना, सोचना, करना वर्जित है। यदि इस रा्ह पर नहीं चलेंगे तो, हम अपनी ऊर्जा और शक्ति दोनों नष्ट करेंगे। इस मार्ग पर न चलने के कारण ही हम अपनी बुद्धिमत्ता, स्मरण शक्ति, विवेक और न्याय की क्षमता खोते जा रहे हैं।
आज कल मनुष्य अपने विवेक का प्रयोग अच्छे बुरे की पहचान के लिए नहीं करता है, फिर अच्छे कार्य के पथ पर कैसे अग्रसर होगा? अब आप सोचेंगे, यह कैसे सम्भव है, और हम किस तरह समय का दुरुपयोग कर रहे है? उदाहरण के तौर पर, जब तुम कोई खास कार्यक्रम सुनने के लिए रेडियो चलाते हो तो उसकी आवाज़ चाहे धीमी हो या तेज़, बिजली या बैटरी की खपत तो निरंतर होती ही रहेगी।
हमारा मन भी रेडियो जैसा ही है। चाहे आप किसी से बात करो या अपने मन में बात करो, ऊर्जा का उपयोग तो होगा ही। क्षमन सदैव ही कुछ न कुछ काम करता रहता है। इसलिए ऊर्जा का उपयोग भी निरंतर होता रहता है। उस ऊर्जा को निरर्थक सोच-विचार में व्यर्थ न गंवा कर उसको सही कार्य के लिए उपयोग में लाना चाहिए न?
इच्छाओं पर नियंत्रण कार्यक्रम को इसी कारण बनाया गया है, जिससे मनुष्य भोजन, धन समय, और ऊर्जा व्यर्थ न गवाएँ।
[संदर्भ: सत्य साई न्यूज़लेटर (USA), क्रमांक 13/3 (Spring 1989) दिव्य सन्देश, साई संगठन सेवा गतिविधि पर, नवंबर 21, 1988]
मन को नियंत्रित करने के सबसे सरल उपाय
हमें सदैव ईश्वर की उपस्थिति का स्मरण होना चाहिए। इस एहसास को सदैव याद रखना होगा कि, जो भी कार्य हम सम्पादित कर रहे हैं, वह ईश्वर के निमित्त ही है। यह सर्वोत्तम तरीका है, मन को नियंत्रण में रखने का।
यदि आपको यह विश्वास होगा कि यह शरीर ईश्वर की संपत्ति है, फिर आप कोई भी पाप इस शरीर द्वारा नही करेंगे। बल्कि आप के सभी कार्य दिव्यता के लिए ही किये जायेंगे। यदि आप को सम्पूर्ण विश्वास है किआप में दिव्य ऊर्जा कार्य कर रही है, फिर आप उसका दुरुपयोग कभी नहीं करेंगे। इसी परिप्रेक्ष्य में सत्य साई केंद्र ने इच्छाओं पर नियंत्रण के कार्यक्रम को निर्धारित किया है।
प्रेम दीपक स्वयं में प्रज्जवलित करो
मानव प्रतिदिन इस प्रयास में रहता है कि उसे आनंद और खुशी प्रतिपल कैसे प्राप्त हो सके? परंतु क्या वह आनंदित हो पाता है? क्या सांसारिक भोग विलास, किताबों, या व्यक्ति में इसका मिलना, सम्भव है? नहीं, नहीं, कभी नहीं। आनंद मनुष्य में अंतर्निहित रहता है, जिसको मनुष्य भूल चुका है। वह बाह्य कृत्रिम आनंद की तलाश में भटक रहा है। हृदय के प्रेम और आनंद की सत्यता से अनभिज्ञ है। प्रेम का मूल स्रोत तो उसका स्वयं का हृदय है, संसार नही, यही परमानंद का मूल स्त्रोत है।
प्रत्येक को स्वयं में अधिक से अधिक प्रेम की भावना उत्पन्न करने की आवश्यकता है। परंतु आज, प्यार का स्थान क्रोध और घृणा ने ले लिया है। जिधर देखो उधर सिर्फ बढ़ती हुई इच्छाएँ, दुश्मनी, और भय। शांति कैसे प्राप्त हो? कैसे आनंद का अनुभव हो? स्वयं में प्रेम का दीपक जलाओ। भय और भ्रांति तभी दूर होगी, और स्वयं से परिचय होगा। अन्यथा कष्ट भोगना अवश्यम्भावी है। इच्छाओं पर नियंत्रण करना ही होगा। घर, ज़मीन तथा संपत्ति के भी नियम होते हैं, पर स्वयं की इच्छाओं पर नियंत्रण नही। नियंत्रण का अर्थ है, इच्छाओं को अपने काबू में रखने का सतत प्रयास। खुशी प्राप्त करने का एक मात्र यही उपाय है।
कम सामान सुखद यात्रा
जीवन एक लंबी यात्रा है। जीवन की इस लंबी यात्रा में कम सामान (इच्छाएँ) होना चाहिए। इसलिए कहा गया है कि “कम सामान सुखद यात्रा”। इसलिए इच्छाओं पर नियंत्रण को अपनाना आज के समय मे और आवश्यक है। प्रतिदिन अपनी इच्छाओं को थोड़ा-थोड़ा कम करना होगा। इस गलत धारणा से मुक्त होना होगा कि, इच्छाएँ पूर्ण होने पर सुख मिलेगा, अपितु सत्य यह है कि इच्छाएँ सम्पूर्ण समाप्त होने पर ही पूर्ण आनंद का उदय होता है।
जब आप अपनी इच्छाएँ कम करने लगते हैं, तब आप त्याग की ओर अग्रसर होने लगते हैं। आप में अनेक इच्छाएँ होती हैं, पर उनसे हासिल क्या होता है? किसी पर स्वअधिकार जताने का फल भोगना पड़ता है। जब एक जमीन का भाग आपके पास होता है, तो उसपर फ़सल आप ही को उगाना भी जरूरी हो जाता है। यह अहंकार, और मोह आपको चैन से जीने नही देता है। जिस क्षण आप, मेरा है का अहंकार त्याग देंगे, आनंद ही आनंद का अनुभव करेंगे।
[सत्य साई वचनामृत 32, भाग 1, अध्याय – 6: इच्छाओं पर नियंत्रण]
कुछ भी साथ नही जाएगा, संसार छोड़ते वक़्त
जिधर देखो आजकल केवल इच्छाओं का अंबार है। इन इच्छाओं को नियंत्रित करो। तभी मन स्थिर होगा। तुम कहते हो “मुझे ये चाहिए, वो चाहिए”, इत्यादि। इस तरह और इच्छाओं का जन्म होता हैं। वो उड़ते हुए बादल के समान होते हैं। क्यों बढ़ाना चाहते हो इन उड़ते बादलों को, कुछ नहीं जाएगा साथ, जब इस शरीर को त्यागोगे।
बड़े बड़े शूरवीर राजा महाराजा इस पृथ्वी पर राज करके चले गए। कितने राज्य जीते, खूब दौलत इकट्ठा की। जिसे सब महान सिकंदर के नाम से जानते हैं, विश्व के अनेक अंश जीत कर भी, अंत समय, रत्ती भर की दौलत भी साथ नहीं ले जा सके और खाली हाथ ही गए।
इस सत्य को सब को समझाने के लिए उन्होंने अपने मंत्रियों से कहा था, अंतिम यात्रा में मेरे दोनों हाथ खुले हुए ऊपर आसमान की ओर रखकर मेरे पार्थिव शरीर को पूरे राज्य में घुमाना। मंत्री इस अनुरोध पर चकित थे, और कारण जानना चाहते थे। राजा बोले “अनगिनत राज्य जीत कर, असीमित धन जोड़ कर भी, सबसे सशक्त सेना होने के बावजूद, अंतिम यात्रा में मेरे साथ कोई नहीं चल रहा। मैं खाली हाथ जा रहा हूँ, इस सत्य को लोगों को जानना जरूरी है”।
[सत्य साई वचनामृत भाग 41, अध्याय – 19, ईश्वर पर चिंतन करो, जो असली हीरो है विजयी होने के लिए]
इच्छाओं की बहुलता प्रकृति में असंतुलन का कारण बनती है। मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इच्छाओं की सीमा तय करे। जैसा कि वर्तमान में मनुष्य का आचरण विकृत है, फलस्वरूप आज हम देखते हैं कि प्राकृतिक आपदाएँ अधिक मात्रा में हो रही हैं। गुजरात में भूकंप से हुई तबाही से आप वाकिफ हैं। हजारों लोगों की जान चली गई। इसका कारण यह है, कि मनुष्य अत्यधिक इच्छाओं को प्रश्रय दे रहा है। ईश्वर अपनी रचना में पूर्ण संतुलन बनाए रखता है। ईश्वर की रचना में, पृथ्वी और महासागर संतुलन से संपन्न हैं। लेकिन मनुष्य तेल निकालने के लिए अंधाधुंध पृथ्वी का शोषण कर रहा है। महासागरों से प्रतिदिन टन मछलियाँ पकड़ी जाती हैं। प्रकृति के इस अंधाधुंध दोहन से पृथ्वी में असंतुलन पैदा होता है, जो मानव जीवन के साथ खिलवाड़ कर रही है। मनुष्य जब भीतर की अस्थिरता से मुक्त होगा, तभी वह भूकम्प से परेशान नहीं होगा।
विज्ञान का उपयोग उसी सीमा तक करना चाहिए, जितना आवश्यक है। यहाँ एक उदाहरण है। एक बार एक लालची व्यक्ति के पास एक बत्तख थी, जो प्रतिदिन एक सोने का अंडा देती थी। एक दिन उसने यह सोचकर बत्तख का पेट चीर दिया कि उसे एक बार में कई सुनहरे अंडे मिलेंगे। आज मनुष्य भी ऐसे मूर्खतापूर्ण और लोभी कृत्यों में लिप्त है। प्रकृति उसे जो दे रही है उससे संतुष्ट होने के बजाय, वह अधिक से अधिक की कामना करता है, और इस प्रक्रिया में, वह प्रकृति में असंतुलन पैदा कर रहा है। आज वैज्ञानिक नए आविष्कारों में रुचि रखते हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी में प्रगति ने, प्रकृति में असंतुलन को भी जन्म दिया है। नतीजतन, भूकंप आते हैं और समय पर बारिश नहीं होती है। विज्ञान का उतना ही उपयोग करना चाहिए, जितना आवश्यक हो। विज्ञान की अपनी सीमाएँ हैं, और उन सीमाओं को पार करना खतरे की ओर ले जाता है।
आपको लंबा रास्ता तय करना है। सत्य और धर्म का पालन करो। हमारे प्राचीन ऋषियों ने कहा था, “सच बोलो, प्रिय बोलो, और अप्रिय सत्य मत बोलो।” प्राकृतिक संसाधनों का उचित उपयोग करें, और उनका दुरुपयोग न करें। सबकी मदद करें और उन्हें प्रसन्न रखें। अपने द्वारा सीखी गई सभी अच्छी बातों को दूसरों के साथ साझा करें। यह आपका प्रमुख कर्तव्य है।
[सत्य साई स्पीक्स, खंड 34, अध्याय 3: आत्मा की दृष्टि।]
इच्छाएँ ही मनुष्य की अशांति का मूल कारण हैं। मनुष्य जो भी साधना करता है, उसका उद्देश्य उसके मन को स्थिर करना है। यदि मन स्थिर नहीं है, तो लगातार भगवान का नाम जपने, ध्यान करने और आध्यात्मिक तपस्या करने से कोई फायदा नहीं है। एक बार जब आप पाँचों इंद्रियों को वश में कर लेते हैं, तो आप भगवान का अनुभव कर सकते हैं। वह आपसे दूर नहीं है। वह तुम्हारे भीतर है, तुम्हारे नीचे है, तुम्हारे ऊपर है, और तुम्हारे चारों ओर है। ईश्वर वास्तव में मनुष्य के अंत:करण में ही वास करता है। फिर भी मनुष्य उसे देख नहीं पाता। क्या कारण है? मनुष्य की असीम और स्वच्छंद इच्छाएँ उसे ईश्वर को देखने से रोकती हैं। इच्छाएँ ही मनुष्य की अशांति का मूल कारण हैं। इंद्रियों पर नियंत्रण और इच्छाओं का परिसीमन, उसे चारों ओर ईश्वर को देखने और आनंद का अनुभव करने में मदद करेगी। इसलिए हमें अपनी इच्छाओं को काबू में रखना होगा। हमें दूसरों की बुरी बातों से चिंतित नहीं होना चाहिए। हमें निंदा और आलोचना से प्रभावित नहीं होना चाहिए।
पाँच इंद्रियों को नियंत्रित करें। बुद्ध पाँचों इंद्रियों को नियंत्रित करना चाहते थे। उन्होंने सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, सही दृष्टि हासिल करने का फैसला किया। मन की चंचलता के कारण आज मनुष्य अपनी दृष्टि को नियंत्रित नहीं कर पा रहा है। सिनेमा, वीडियो, टीवी आदि ने मनुष्य के मन को दूषित कर दिया है। वह अच्छा नहीं देखता और अच्छा नहीं सुनता। मनुष्य अपनी बेचैनी का कारण स्वयं है।
सही दृष्टि के अलावा, बुद्ध ने सम्यक श्रवण, सम्यक भाषण, सही भावना और सही सोच की आवश्यकता पर जोर दिया। इनके अभाव में मनुष्यता तेजी से आसुरीता और पाशविकता का मार्ग प्रशस्त कर रही है। मनुष्य में पशु गुण तेजी से बढ़ रहे हैं। जानवरों के पास एक मौसम और एक कारण होता है, लेकिन मनुष्य के पास कोई कारण नहीं होता है। मनुष्य आज जानवरों से भी बदतर हो गया है। उनमें करुणा, दया, प्रेम और सहनशीलता जैसे मानवीय गुण अनुपस्थित हैं। उसे बुरे विचारों से मुक्त होना चाहिए, जो उसकी चिंताओं का मूल कारण है। इसके लिए निरंतर और निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती है।
दिमाग को प्रशिक्षित कर उस पर नियंत्रण करें, और मास्टरमाइंड बनें। मनुष्य मन को नियंत्रित कर सकता है तथा निरंतर अभ्यास से शांति प्राप्त कर सकता है। शांत मन में ही उत्तम विचार उत्पन्न होते हैं। मन मनुष्य के वश में होना चाहिए। दिमाग पर काबू रखो, और मास्टरमाइंड बनो। दुर्भाग्य से मनुष्य मन को वश में करने के स्थान पर, इन्द्रियों का दास हो गया है। यही उसकी अस्थिरता का मुख्य कारण है। इसके अलावा, उसे शरीर से लगाव है। यही कारण है कि अगर लोग उसमें गलती ढूँढते हैं तो वह आसानी से परेशान हो जाता है। जब शरीर पानी के बुलबुले की तरह है, तो उसे शरीर की चिंता क्यों करनी चाहिए? आपको शरीर के मोह से छुटकारा पाना चाहिए।
[2002 में वृंदावन में ग्रीष्मकालीन शिविर, (समर शॉवर); अध्याय 11: इन्द्रिय नियंत्रण ही सर्वोच्च साधना है।]
प्रकृति से सबक लीजिए
“इच्छाओं की सीमा” शब्द में चार घटक हैं। वे हैं – अत्यधिक बात करने पर नियंत्रण, अत्यधिक इच्छाओं और व्यय पर अंकुश, भोजन की खपत पर नियंत्रण और ऊर्जा की बर्बादी को रोकना।मनुष्य को अपने भरण-पोषण के लिए कुछ अनिवार्य वस्तुओं की आवश्यकता होती है, और उसे उससे अधिक की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। इस संबंध में हम प्रकृति से एक सबक सीख सकते हैं। हवा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने पर ही यह आरामदायक और अच्छी होगी। यदि यह अत्यधिक है और आँधी चल रही है, तो आप असहज महसूस करेंगे। प्यास लगने पर आप सीमित मात्रा में ही पानी का सेवन कर सकते हैं। आप गंगा नदी के पूरे पानी का उपभोग नहीं कर सकते! हम उतना ही ले पाते हैं जितना शरीर के भरण-पोषण के लिए आवश्यक होता है।
डॉक्टर जानते हैं कि शरीर का तापमान सामान्य रूप से 98.6 डिग्री होता है। यदि यह 99 डिग्री तक चला जाता है, तो वे कहते हैं कि शरीर में किसी विकार के कारण बुखार आ गया है। हम सामान्य गति से श्वास लेते और छोड़ते हैं। यदि इसकी गति में मामूली वृद्धि या कमी होती है, तो यह शरीर में विकार का संकेत देता है। नाड़ी दर या रक्तचाप में परिवर्तन भी विकार का संकेत देता है। तो इस प्रकार आप देखते हैं कि यदि आप सीमा से थोड़ा भी अधिक करते हैं तो यह शरीर के लिए खतरनाक या हानिकारक है। हर चीज के सामान्य तरीके से काम करने की एक सीमा होती है। जब आपकी आँखें तस्वीरें लेते समय बिजली की एक फ्लैश या प्रकाश की एक फ्लैश देखती हैं, तो वे स्वचालित रूप से बंद हो जाती हैं, क्योंकि वे इतनी अधिक रोशनी का सामना नहीं कर सकती हैं। कर्णपटल (ईयरड्रम्स) भी एक निश्चित मात्रा से अधिक सुनने को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं, और हम अपने कानों को ढँक लेते हैं या कानों के अंदर रूई रखते हैं। इन सब उदाहरणों द्वारा हम देखते हैं कि हमारा जीवन एक मर्यादित कंपनी है!
इसी तरह हमारी इच्छाएँ भी सीमित (मर्यादित) होनी चाहिए। जब महिलाएँ किसी दुकान या प्रदर्शनी में जाती हैं, तो आमतौर पर नयी साड़ियाँ खरीद कर अपनी अलमारी में रखीं साड़ियों में वृद्धि कर लेतीं हैं, फिर उनके पास पहले से ही कितनी भी साड़ियाँ क्यों न हों। आपके पास उचित संख्या में साड़ियाँ होनी चाहिए, किन्तु धूमधाम या प्रदर्शन हेतु बहुत बड़ा संग्रह नहीं। धन का दुरूपयोग बहुत बड़ी बुराई है। यहाँ तक कि पुरुषों को भी अवांछित और अनावश्यक चीजों पर होने वाले खर्च को नियंत्रित करने में अपना योगदान देना होगा।
धन देवत्व का रूप है। जब आप धन की बात करते हैं, तो आपको लोभ पूर्ण संचय और फिजूलखर्ची से बचने के लिए सावधान रहना चाहिए। भोजन बनाते समय भी अपव्यय से बचने में सावधानी बरतनी चाहिए। शरीर के लिए जितना आवश्यक है, उससे अधिक भोजन करके हम केवल अहित कर रहे हैं। तीसरा, आपको “समय” के बारे में सावधान रहना चाहिए, जो कि जीवन का पैमाना है। सेकंड घंटे बन जाते हैं, घंटे साल बन जाते हैं, साल उम्र बन जाते हैं, इत्यादि। आपको सबसे मूल्यवान “समय” को बर्बाद नहीं करना चाहिए। फालतू के कामों में खोया हुआ समय किसी भी तरह से वापस नहीं आ सकता। उपलब्ध समय का अधिकतम लाभ उठाने के लिए हमारी सभी गतिविधियों की योजना बनाई जानी चाहिए। अत: हमें अन्न, धन, समय और ऊर्जा को व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए।
[सत्य साई वचनामृत, खंड 16, अध्याय 3: इच्छाओं पर नियंत्रण – I।]
“इच्छाओं पर नियंत्रण कार्यक्रम” के उद्देश्य “इच्छाओं पर नियंत्रण” एक कार्यक्रम है। जिसका उद्देश्य धन, समय, भोजन या अन्य संसाधनों की बर्बादी को रोकना और इन सभी का उपयोग लोगों के कल्याण के लिए करना है। समय बर्बाद न करो। समय की बर्बादी,जीवन की बर्बादी है। समय ईश्वर है। शुद्ध और निःस्वार्थ भाव से सेवा कार्यों को अंजाम देकर अपने जीवन में हर समय पवित्र रहें। आज हम अनावश्यक तथा अवांछित बातों में, लिप्त होकर व्यर्थ के कार्यों में समय बर्बाद करते हैं। इन सभी कार्यों में हम समय-समय पर शरीर का शोषण कर रहे हैं। इसके बजाय हमें समय को अपना सेवक बनाने का प्रयास करना चाहिए। इसका अर्थ है, अपना समय अच्छे विचारों और अच्छे कार्यों में व्यतीत करना।
अपने दैनिक अस्तित्व के प्रत्येक सेकंड में आपको ये प्रश्न पूछने चाहिए: “मैं समय का उपयोग कैसे कर रहा हूँ? क्या यह अच्छे या बुरे उद्देश्य के लिए है?”
इसी तरह, भोजन के संबंध में आपको पूछना चाहिए, “क्या मैं सिर्फ वही और उतना ही ग्रहण कर रहा हूँ जिसकी मुझे आवश्यकता है, अथवा इससे अधिक? क्या मैं खाना बर्बाद कर रहा हूँ?” पैसे के संबंध में भी: “क्या मैं इस पैसे का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए कर रहा हूँ या अपने नाम और प्रसिद्धि को बढ़ाने के लिए अथवा अपने अहंकार और घमंड को संतुष्ट करने के लिए कर रहा हूं?” एक बार जब आप इन सवालों के जवाब तलाशना शुरू कर देते हैं, तो इससे बड़ी कोई साधना नहीं होती। ये “सीलिंग ऑन डिज़ायर्स प्रोग्राम” के उद्देश्य हैं।
हमेशा खुश रहो।
आपके समक्ष चाहे कितनी भी मुसीबतें आएँ, आपको किसी भी परिस्थिति में प्रसन्न रहना सीखना चाहिए। उदाहरणार्थ, मान लीजिए यदि आपको बिच्छू ने काटा है, तो आपको खुद को दिलासा देना चाहिए कि आपको साँप ने नहीं काटा है, और जब आपको साँप ने काटा है, तो आपको खुद को दिलासा देना चाहिए कि यह घातक साबित नहीं हुआ है। यहाँ तक कि अगर आपके पास वाहन नहीं है, तो भी खुश रहें कि आपके पैर चलने में सक्षम होने के लिए बरकरार हैं। भले ही आप करोड़पति न हों, लेकिन खुश रहें कि आपके पास अपने और अपने परिवार का पेट भरने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं। विपरीत परिस्थितियों में भी आनंद का अनुभव करने का यही तरीका है। वास्तविकता को समझने के लिए प्रयासरत रहें। शांतिपूर्ण और सार्थक जीवन जीने के लिए इच्छाओं पर नियंत्रण अनिवार्य है। आपको अधिक से अधिक धन की तलाश करने की इच्छा पर अंकुश लगाना चाहिए और अपने प्रयास को भीतर की वास्तविकता का आनुभव करने की दिशा में मोड़ना चाहिए। इस प्रयास को करने में, आपको भोजन, धन, समय, ऊर्जा और ज्ञान की बर्बादी से बचना चाहिए क्योंकि ये सभी भगवान के रूप हैं। अनावश्यक बात करने से बचना चाहिए क्योंकि इससे ऊर्जा की बर्बादी होती है और स्मरण शक्ति में कमी आती है।
[सत्य साई वचनामृत, खंड 27, अध्याय 20: शिक्षा के लिए आध्यात्मिक अभिविन्यास।]
ईश्वर की कृपा से ही शांति प्राप्त की जा सकती है आज के समय में, हर व्यक्ति शान्ति पाने के लिए कड़ी मेहनत करता है। शांति आध्यात्मिक उपदेशों से प्राप्त नहीं की जा सकती, न ही इसे बाजार से वस्तु के रूप में प्राप्त किया जा सकता है। इसे ग्रंथों के ज्ञान, या जीवन में उच्च स्थान के द्वारा भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। ईश्वर की कृपा से ही शांति प्राप्त की जा सकती है। चूंकि मनुष्य शांति प्राप्त करने के लिए उत्सुक है, अतः वह मार्ग में अनेक बाधाओं का सामना करता है। जो लोग ट्रेन से यात्रा करते हैं, वे “कम सामान, अधिक आराम, यात्रा को सुखद बनाते हैं” के नारे से अच्छी तरह परिचित हो सकते हैं। अब मनुष्य अपने आप पर असीम इच्छाओं का बोझ डाल रहा है। वासनाओं के इस अतिभारी बोझ के कारण उसे जीवन की यात्रा को जारी रखना अत्यंत कठिन लगता है। इच्छाओं के इस तरह के प्रसार से, वह अपना संतुलन खो देता है, अपने लक्ष्य से बहुत दूर चला जाता है, और यहाँ तक कि पागल भी हो जाता है।
दुर्गुण आपके अपने विचारों का परिणाम हैं। मान लीजिए आपको गुस्सा आता है। यह गुस्सा कहाँ से आया? यह आप से ही आया है। इसी तरह, ईर्ष्या एक ऐसा गुण है जो आपके मन से प्रकट होता है। इस प्रकार इनमें से प्रत्येक बुरा गुण आपके अपने विचारों का परिणाम है। इसलिए यदि आप अपने विचारों को ठीक से नियंत्रित करने में सक्षम हैं, तो आप जीवन में कुछ भी हासिल करने में सक्षम होंगे। मन, बुद्धि और जागरूकता आत्मा के प्रतिबिंब हैं। मन में कोई स्थिरता नहीं है। यह विचारों और इच्छाओं का भंडार है। ऐसा कहा जाता है, “मन ही बंधन या मुक्ति का कारण है।” इसलिए इच्छाओं पर कुछ अंकुश लगाकर मन को उचित नियंत्रण में रखना होगा।
[सत्य साई वचनामृत, खंड – 42, अध्याय – स्वयं को जानो, आप सब जान जाएँगे।]