भागवत वाहिनी – अध्याय चवालीस
देवकी और वसुदेव जेल में बन्द इस प्रकार रह रहे थे कि उनमें और पागलों में कोई भेद कर पाना कठिन था। उन्हें न अपना कोई होश था, न अपने वस्त्रों का, न ही शरीरों का। तन पर बहुत ही मैले और फटे वस्त्र, सिर पर बड़े-बड़े बाल जो बुरी तरह उलझे और बिखरे हुए थे। न उन्हें अपने खाने का होश था न पहनने का। गुम-सुम चुपचाप बैठे रहते। उन्हें अपने छः पुत्रों के मारे जाने का बहुत ही अधिक शोक था और वे उन्हीं के दुःख में डूबे रहते थे। इस प्रकार रहते हुए जब उनके जेल जीवन का दूसरा वर्ष चल रहा था तो देवकी ने आठवाँ गर्भ धारण किया। किन्तु उसी समय एक चमत्कार सा हुआ और देवकी तथा वसुदेव में एकदम परिवर्तन आ गया। जहाँ वे सूख कर काँटा हुये जा रहे थे वहाँ अब वे स्वस्थ एवं प्रफुल्लित, पूर्ण विकसित कमल से खिल उठे। उनमें एक अद्भुत कांति आ गई थी।
“देवकी तथा वसुदेव इतने अधिक स्वस्थ, सुन्दर और आकर्षक दिखाई देने लगे जितने शायद पहले कभी नहीं थें। जेल में जिस कमरे में देवकी रहती थी वह एक बहुत ही मनमोहन सुगन्ध से महकने लगा। उसमें से सदा एक प्रकाश और मन्द मन्द संगीत की चित्ताकर्षक स्वर लहरी उठती रहती थी। विस्मयकारी अद्भुत दृश्य दिखायी देने और ध्वनियाँ सुनाई पड़ने लगीं। देवकी और वसुदेव को इन सबका पूर्णरूपेण अनुभव हो रहा था।”
एक रात कारागार की कोठरी के फर्श पर पड़े हुये देवकी को प्रसव – पीड़ा होने लगी, वह उसी क्षण दीपक की लौ को देखते हुए ध्यान करने लगी और अपने आप से प्रश्न करने लगी, “अब मुझे क्या होगा? मेरे साथ क्या बीतेगी? मेरे भविष्य में आगे और क्या लिखा है!” अचानक दीपक की लौ बुझ गयी और सघन अंधकार छा गया। उस अंधकार में उसे एक प्रकाशवान आकृति, अपनी दिव्य आभा बिखेरती सामने दिखाई दी। उसे विस्मय हुआ कि वह कौन हो सकता है। भयभीत देवकी ने वसुदेव को पुकारा। वह सोच रही थी कि कहीं उस रूप में कंस तो नही आ गया था। संदेह और भ्रम में पड़ी उस आकृति को पहचानने में वह स्वयं को सर्वथा असमर्थ पा रही थी।
अचानक ही उस आकृति ने रूप धारण कर लिया, चतुर्भुज रूप। तीन हाथों मे शंख, चक्र और गदा धारण किये, चतुर्थ हस्त अभयमुद्रा में था। मन्द, मधुर, विनम्र और स्पष्ट वाणी में कहा, “दुखी मत हो मैं नारायण हूँ। मैं ही कुछ क्षण पश्चात् तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लेने वाला हूँ, जैसा मैंने तुम्हारी तपस्या के फलस्वरूप दर्शन देकर तुम्हें वचन दिया था। मैं तुम्हारे सारे संकट दूर कर दूँगा। मेरे सम्बन्ध में जानने को उत्सुक मत होओ। किन्तु जो नाटक होने वाला है उसे द्रष्टामात्र बन कर देखते रहो। चौदह भुवनों में न तो अभी तक कोई ऐसा उत्पन्न हुआ है और न ही होने वाला है जो मुझे तनिक सी भी क्षति पहुँचा सके, इस बात से पूर्ण आश्वास्त रहो, अपने में कोई संदेह या भय मत रहने दो। जो बालक तुम्हें होगा उसके प्रति प्यार और मोह के कारण यदि तुम्हें तनिक भी चिन्ता या भय अथवा मन में कोई शंका होगी तो तत्काल कोई न कोई ऐसा चमत्कार होगा कि उससे मेरी प्रवृत्ति प्रकट हो जायेगी ।” जैसे ही मैं जन्म लूँगा, तुम्हारी हथकड़ियाँ और बेड़ियांँ स्वतः ही खुल कर गिर पड़ेंगी। कारागार के द्वार खुल जायेंगे। उसी समय बिना किसी को ज्ञात हुए मुझे गोकुल ले जाना और नंद के घर में उनकी पत्नी यशोदा की बगल में लिटा देना और उसकी बगल में से उसी समय जन्मी कन्या को उठा लाना।
“यशोदा को भी उसी समय प्रसव वेदना हो रही होगी। वह उस बालिका को जन्म देने वाली ही है। उस कन्या को लाकर अपने पास जेल में रखना उसके बाद कंस को सूचित करवा देना। जब तक तुम कंस को समाचार नहीं भेजोगे तब तक न तो मथुरा में और न ही गोकुल में तुम्हें कोई देख पायेगा और न ही पहचान पायेगा। मैं इसकी पूर्ण व्यवस्था कर दूँगा।” इस प्रकार देवकी और वसुदेव को दिव्य स्वरूप के दर्शन और आश्वासन देकर वह स्वरूप पुनः एक प्रकाश पुंज में परिवर्तित हो देवकी के गर्भ में प्रवेश कर गया और कुछ ही समय के पश्चात् एक बालक का जन्म हुआ। ब्रह्म मुहुर्त था, ३-३० बजे थे। विष्णु की माया ऐसी व्यापी कि सब निद्रा से ग्रस्त हो गए। सारे चौकीदार, पहरेदार बेसुध अचेत थे मानो काठ के लकड़े पड़े हों। वसुदेव के हाथ की हथकड़ियाँ और बेड़ियांँ तुरंत खुल गयीं और वे जेल के दरवाजे से बाहर निकल गये। सारे रक्षक और सिपाही सोते ही रहे।
जैसे ही वे बाहर निकल कर चलने लगे तो वर्षा की बूँदे गिरने लगीं । उन्हें चिन्ता हुई कि नवजात शिशु भीग जायेगा किन्तु जैसे ही उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा तो वे आश्यर्यचकित हो गए। शेषनाग अपना फन फैलाये शिशु की पानी की बूँदों से रक्षा कर रहे थे। मार्ग के पग-पग पर वसुदेव जी को शुभ शगुन दिख रहे थे। यद्यपि सूर्योदय नहीं हुआ था किन्तु जलाशयों में कमल खिले हुये थे और वसुदेव जी की ओर झुके थे। यद्यपि अँधेरी रात्रि थी बादल छाये थे, चन्द्रमा के प्रकाश की कोई आशा नहीं थी किन्तु फिर भी शायद चन्द्रमा भगवान के दर्शन से लालायित होकर बादलों से झाँक रहा था और वसुदेव जी के पूरे रास्ते भर चन्द्रमा का प्रकाश केवल उस टोकरी पर पड़ता रहा जिसमें शिशु था। वसुदेव चुपचाप नन्द के घर में घुसे तथा बालक को यशोदा के पास लिटा दिया और वहांँ लेटी उनकी उसी समय जन्मी कन्या को उठाकर बाँस की उस टोकरी में रख लिया जिसमें रखकर मथुरा से अपने बालक को लाये थे एवं उसी समय लौट कर उस कन्या को देवकी की गोद में दे दिया। जैसे ही उन्होंने उस कन्या को देवकी की गोद में दिया, वसुदेव अपने आपको और अधिक न रोक सके। उनकी आँखों से आँसू बह चले, वे रो पड़े।”
कृष्ण का आगमन मुक्ति प्रदान करने के लिए हुआ था
“कृष्ण का जन्म अष्टमी (चंद्र मास के आठवें दिन) को हुआ था। जन्म के समय से ही उनकी विपरीत परिस्थितियांँ थीं। लेकिन जिसने भी हृदय में भगवान के नाम को संजोया वह बंधन से मुक्त हो गया। वसुदेव कंस की कैद में थे। लेकिन जिस क्षण देवकी ने शिशु कृष्ण को अपने पति के सिर पर रखा, वे मुक्त हो गये। जैसे ही भगवान ने उनके मस्तक को स्पर्श किया, वसुदेव की बेड़ियाँ गिर गईं। जब तक उन्होंने कृष्ण को अपने सिर पर रखकर यशोदा के घर में नहीं पहुँचा दिया, तब तक वे मुक्त रहे। फिर वह अपने कारागार में लौट आये और पहले की तरह कैद हो गए। इस प्रकरण का क्या अर्थ है? जब तक हमारे मन में दिव्य विचार भरे रहते हैं, तब तक कोई बंधन नहीं है। लेकिन जब आप भगवान को छोड़ देते हैं , तो हर तरह से बंधन में हो।”
-एसएसएस (श्री सत्य साई वचनामृत), 9/93, पृ.227
वसुदेव की भक्ति
आकाशवाणी के निर्देशानुसार वसुदेव ने नवजात बालक को एक टोकरी में रखा और उसे अपने सिर पर यमुना नदी के पार ले गए (जिसने स्वयं उन्हें गोकुल के लिए मार्ग दे दिया)। गोकुल, जहाँ उसी समय, नंद की पत्नी यशोदा ने एक कन्या को जन्म दिया था। जैसे ही वह जेल से बाहर आये, एक गधे ने अच्छे शगुन का संकेत देने के लिए रेंकना शुरू कर दिया! लेकिन, वसुदेव को डर था कि यह पहरेदारों को जगा देगा; इसलिए, उसने अपने दोनों हाथों से उसके पैर पकड़ लिए (टोकरी को जमीन पर रखकर) और प्रार्थना की कि वह चुप रहे। यह प्रभु के प्रति उनकी भक्ति की गहराई थी जिसे वे उन्हीं (प्रभु) के निर्देशानुसार ले जा रहे थे।
-दिव्य प्रवचन 2 सितम्बर 2010।