जपमाला
जपमाला के बारे में, सर्वप्रथम 800 ईसा पूर्व अथर्ववेद में लिखा मिला था। इस माला में 108 मनके होते हैं। एक धागा इन मनकों को एक साथ बाँधे रखता है, एवं इनका आधार माना जाता हैं।
– श्री सत्य साई वॉल्यूम 7, पृष्ठ 36
“जपमाला की प्रयोग पद्धति”
कनिष्ठा, अनामिका, और मध्यमा, तीन उंगलियाँ तीन गुणों को दर्शाती हैं। तामसिक, राजसिक और सात्विक। मध्यमा उंगली, सात्विक गुण को दर्शाती है, तर्जनी को दिशा बोध भी कहते हैं। यह अंगुली मनुष्य में जीव को परिलक्षित करती है। अंगुष्ठ या अँगूठा ब्रम्ह को दर्शाता है। तर्जनी और अँगूठे को जोड़ने के बाद बाकी तीन उँगलियाँ सीधे रखने पर ईश्वर से जुड़ने की भाव मुद्रा बनती है। इस मुद्रा को चिन्नमुद्रा कहते हैं। मौन जप करने के लिए माला को मध्यमा पर रखते हैं जो सत्व गुण को दर्शाता है। इसके पश्चात् तर्जनी (जीव को दर्शाने वाली) को तीन गुणों का प्रतिनिधित्व करने वाली तीनों उंगलियों से दूर रखकर अँगूठे के पोर से धीरे धीरे मनके को एक एक करके, सरकाते जाते हैं।
यह साधक की, अर्थात् जीव की ब्रम्ह से एकाकार होने की इच्छा को दर्शाता है। इस कार्य में यदि तर्जनी का मध्यमा से स्पर्श हो जाता है, तब भी वो सात्विक गुण ही प्राप्त करती है, बाकी गुणों का प्रभाव नहीं होता।