शिव सिद्धांत
शिव विघटन और विलय(लय) की शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले परमात्मा के पहलू हैं। विष्णु और शिव दोनों एक परम सार्वभौमिक तथ्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे ‘वैराग्य’ के प्रतीक हैं – पूर्ण अनासक्त ईश्वर, जिसने अपनी इच्छा से ब्रह्मांड को पूर्ण किया है, वह अपनी रचना के अंश मात्र के भी अभिलाषी नहीं हैं।
शिव-शुभ-मंगल। वह मन्मथ हैं अर्थात् मनुष्य में छह दुर्गुण – काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर को भस्म कर देते हैं।
कैलाशराणा – प्रकाश, पवित्रता और आनंद के स्वामी। चंद्रमौली – चंद्रमा से सुशोभित। हमारे पास हर महीने शिव की पूजा के लिए समर्पित एक शिवरात्रि होती है। रात में चंद्रमा का प्रभुत्व होता है। चंद्रमा की 16 कलाएं हैं। हर दिन यह घटता है, एक अंश कम हो जाता है और अमावस्या की रात को पूर्ण नष्ट हो जाता है।
चंद्रमा का धीरे-धीरे विलय, मन के विघटन और माया से छुड़ाने का प्रतीक है; क्योंकि मन को नियंत्रित करना, इच्छाएंँ कम करना और अंत में सम्पूर्ण नष्ट करना है। सारी साधना इसी ओर निर्देशित है। हर दिन महीने के अंधेरे आधे पक्ष के दौरान, चंद्रमा का धीरे-धीरे घटना तथा एक-एक अंश कम होना प्रतीकात्मक रूप से मनुष्य की बुद्धि को दर्शाता है। अंततः इसकी शक्ति कम हो जाती है और चौदस की रात, यानी चतुर्दशी को थोड़ा अंश बचता है। यदि उस दिन साधक द्वारा थोड़ा और प्रयास किया जाए तो उसका “मनोनिग्रह” पूरा किया जा सकता है। भोजन और नींद के बारे में सोचे बिना शिव के साथ वास और जागरण कर, जप और ध्यान में रात बितानी चाहिए।
फणींद्रमाथा – एक सर्प का उठा हुआ फन। नाग का प्रतीक। नाग अपने छह चक्रों और सहस्रार (उठा हुआ फन) के साथ कुंडलिनी शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। मंदिरों में नाग के रूप में सुब्रमण्यम की पूजा की जाती है। सर्प उस महत्वपूर्ण आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रतीक है जो मनुष्य के तंत्रिका केंद्रों में निष्क्रिय है तथा जागृत होने और उत्थान के लिए किए जाने वाले प्रयास की प्रतीक्षा कर रही है।
नंदी का महत्व
शिव का वाहन सनातन धर्म का प्रतीक है, जो सत्य, धर्म, शांति और प्रेम के चार पैरों पर खड़ा है।
शम्भो अर्थात् “स्वयंभू”। उन्हें किसी ने नहीं बनाया है। शाम्भवी शिव की स्त्री व्युत्पन्न हैं, शिव वैराग्य के पहलू हैं। उस प्रभु ने ब्रह्मांड को अपनी इच्छा से प्रक्षेपित किया है।
डमरू का महत्व
श्रव्य स्तुति और गीत के माध्यम से शिव सुलभ हैं।
त्रिशूल का महत्व
वह भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी है और अपने भक्तों के सभी काल की जिम्मेदारी लेता है।
तीसरे नेत्र का महत्व
यह ज्ञान का चक्षु है। भगवान ‘सर्वज्ञ’ और ‘सर्वसाक्षी’ हैं। वह भूत, वर्तमान और भविष्य के दृष्टा हैं।
कारुण्य सिंधु
भगवान ‘कारुण्य सिंधु’ हैं। भगवान की कृपा, सागर के समान विशाल और असीम है। आपकी साधना, आपके जप, ध्यान और सद्गुणों की व्यवस्थित साधना से, उनकी कृपा बादलों में परिवर्तित हो जाती है और वे साधक पर प्रेम की वर्षा करते हैं, जो आनंद की धाराएँ और नदियाँ बनाती हैं।
भगवान ‘भव दुःख हारी’ हैं
आप जानते हैं कि गरुड़ पक्षी साँपों को खाता है। एक बार विष्णु भगवान गरुड़ सहित भगवान शिव को सम्मानपूर्वक नमन करने के लिए कैलाश गए, जिनके कंठ, हाथ, कलाई, कमर और चरणों में सर्प लिपटे रहते हैं। जब सर्पों ने गरुड़ को देखा, तब भी वे निर्भीक थे, उन्होंने गरुड़ पर अपनी लपलपाती जीभ निकालने की हिम्मत की और उसे अपने पास आने की चुनौती दी। प्रभु के साथ संगति के कारण उनमें वह साहस भरा था। इसलिए जब हम नियमित प्रार्थना और उसकी शिक्षाओं का पालन करके परमेश्वर के करीब होते हैं, तो कोई चिंता, दुःख अथवा भय हमें नुकसान नहीं पहुँचा सकते।
[Source : Sri Sathya Sai Balvikas Guru Handbook]