देशान्तरागत
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षष्ठ पद
- देशान्तरागत बुधास्तव दिव्य मूर्तिम्
- संदर्शनाभिरति संयुत चित्तवृत्त्या ।
- वेदोक्तमंत्र पठनेन लसन्त्यजस्त्रं
- श्री सत्य साई भगवन् तव सुप्रभातम् ॥६॥
भावार्थ
अन्य देशों से आए हुए बुद्धिमान लोग आपके दर्शनों के लिए बैठे हुए हैं। आपके दिव्यस्वरूप को देखने की उनकी तीव्र उत्कंठा है। उन्हें वैदिक मंत्रों का गायन करने में अत्यधिक आनंद का अनुभव हो रहा है।.
व्याख्या
देशान्तरागत | दूसरे देशों से आने वाले |
---|---|
बुधा | बुद्धिमान |
तव दिव्यमूर्तिम् | आपका दिव्य स्वरुप |
संदर्शनाभिरति | आपको देखने की लालसा |
वृत्त्या | मन का |
वेदोक्त | वैदिक, वेदों में कहा गया |
मंत्र | मंत्र |
पठनेन | पाठ करने के लिए |
लसन्त्यजस्त्रं | आनन्दमग्न होना। |
आंतरिक महत्व
छठवें पद में स्वाध्याय शास्त्रों के अध्ययन का महत्व बतलाया गया है। जब सत्य को जानने की तीव्र पिपासा उत्पन्न होती है, तब जिज्ञासु वेद, उपनिषद् और गीता जैसे हमारे पौराणिक ग्रंथों में रुचि लेने लगता है। ये ग्रंथ मनुष्य द्वारा नहीं लिख गए। ये चेतना की उच्च स्तरीय अवस्था में ऋषि-मुनियों के द्वारा सुने गए। संतों ने जीवन के सत्य को समझा, इसके लिए उन्हें बड़ी योग साधना करनी पड़ी। उन्होंने अपने अंत: करण में मंत्रों के दर्शन किए, इसलिए वे मंत्रदृष्टा कहलाते थे| ये मंत्र चेतना की उच्च अवस्था को प्राप्त करने के लिए बहुत ही शक्तिशाली सूत्र सिद्ध हुए।
इसीलिए आध्यात्मिक यात्रा करने वाला तीर्थयात्री साधु-संतों के अनुभवों और मंत्रों के रक्षा कवचों से सुसज्जित होकर दिव्यत्व की यात्रा पर आगे बढ़ता है। उसका ज्ञान जागृत होता जाता है और गीता तथा उपनिषदों में बताए गए कठिन प्रसंग भी उसकी समझ में सहजता एवं सरलता से स्पष्ट आने लगते हैं| इस तरह जिज्ञासु व्यक्ति पवित्र धार्मिक ग्रंथों पर चिंतन मनन करना प्रारम्भ कर देता है और गुरु के कथनों पर विचार करने लगता है, ध्यान केन्द्रित करने लगता है। शीघ्र ही उसे दिव्य तत्व का अनुभव होने लगता है। भक्त अब विज्ञानमय कोष की तरफ बढ़ता है अर्थात भक्त की चेतना एवं ज्ञान का आवरण खुलता है।
भक्त के मन में स्वयं को जानने की अभिलाषा उठती है और वह स्वयं से प्रश्न करने लगता है – मैं कौन हूँ? मुझे कहाँ जाना है? भगवान क्या है? वह कहाँ है? इत्यादि। भगवान बाबा कहते हैं इस तरह की जिज्ञासा या जानने की इच्छा ही हमारी साधना का तीन चौथाई हिस्सा होना चाहिए। गुरु के उपदेशों से हमारा ज्ञान धीरे-धीरे जाग्रत होता जाता है और हम अपने आपको जानने की इस स्थिति तक पहुँचते हैं या आत्म साक्षात्कार की स्थिति तक पहुँचने का प्रयास करते हैं।
कहानी
1. केवल ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है
महाभारत ऐसे अनेक आख्यानों से भरा पड़ा है जिनके द्वारा हम नैतिकता और ज्ञान अर्जित कर सकते हैं। उनमें से एक कहानी का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है।
जिस समय पांडव वनवास की अवस्था में थे उन्होंने अनेक तीर्थस्थलों के ऋषियों के तपोवन में दर्शन किए। प्रत्येक का अपना अलग ऐतिहासिक महत्व था। उनमें से एक ऋषि ऋभव जिनका आश्रम गंगा के किनारे था, उनके आश्रम में भी पांडव दर्शनार्थ गए।
ऋषि ऋभव के परावसु और अरावसु नामक दो पुत्र थे। वे शास्त्रों में निपुण तथा ज्ञानी और विद्वान थे। एक बार राजा वृहद्युम्न ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया, जिसे सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने इन ऋषि पुत्रों को बुला भेजा। वे राजभवन में रहकर यज्ञ सम्पादन करने लगे।
एक दिन परावसु रात के समय अपने पिता से मिलने आया। उसे पर्णकुटी के समीप वृक्ष के पास एक पशु जैसी आकृति दिखाई दी, उसने उसे मार डाला परंतु बाद में जब उसे पता चला कि उसने अपने पिता को ही मार डाला तो उसे बहुत दुःख हुआ। घृणा से उसका हृदय भर गया। शीघ्र ही उसने उनका क्रियाकर्म सम्पन्न किया और वापस महल लौट आया।
लौटकर उसने अपने छोटे भाई को सब वृतांत बताया और कहा, “अरावसु ! इसका किसी को पता भी नहीं चलना चाहिए क्योंकि हम यह पवित्र यज्ञ सम्पन्न कर रहे हैं। तुम जाकर पिता के शेष क्रियाकर्म का कार्य सम्पन्न कर आओ और फिर यज्ञ में मेरी सहायता करना। मैं क्योंकि मुख्य पुरोहित हूँ, अत: यज्ञ छोड़कर नहीं जा सकता और पिता का कर्म करके मुझे यज्ञ करने का अधिकार नहीं होगा।
बड़े भाई की आज्ञा पाकर अरावसु आश्रम लौट गया और बड़ी श्रद्धा तथा निष्ठा के साथ उसने कर्म का सभी विधान बड़ी कुशलतापूर्वक किया। उसके पवित्र आचरण के कारण उसके मुख पर एक अलौकिक तेज व कांति झलकने लगी थी।
जब वह लौटा तो उसके मुख पर उस अलौकिक तेज को देखकर परावसु को बड़ी ईर्ष्या हुई। वह तुरंत ही चिल्ला उठा, “देखो यह एक ब्राह्मण की हत्या करके आया है, इसे पवित्र यज्ञ में भाग लेने का कोई अधिकार नहीं है।”
भाई के द्वारा लगाए गए इस आरोप को सुनकर अरावसु एक क्षण के लिए स्तम्भित रह गया। उसकी कुछ समझ में नहीं आया कि उसका भाई ऐसा क्यों कर रहा है। वहाँ बैठे सभी व्यक्ति उसे इस तरह देखने लगे जैसे वह अपराधी हो और बहुत बुरा कर्म करके आया हो। उसे यह नहीं समझ में आ रहा था कि वह अपनी अज्ञानता का प्रमाण उन लोगों को कैसे दे। वह अपने क्रोध को सहन नहीं कर पा रहा था | उसने लोगों से कहा, “ओह मले मानवों मेरी बात सुनो। मैं सत्य कह रहा हूँ। वह मेरा बड़ा भाई है | वास्तव में उसी ने पिता को मारा है। उसने ही मुझे उनका अंतिम संस्कार करने की आज्ञा दी थी, जिससे वह यहाँ यज्ञ का संचालन कर सके।”
वहाँ एकत्रित सभी लोग इस पर हँसने लगे। उसके लिए यह और भी असह्य हो गया। वहाँ एकत्रित लोग कहने लगे कि, “यह अपने दोष को झूठलाने के लिए ही अपने भाई पर दोषारोपण कर रहा है।
धार्मिक, सत्यवादी, निर्मल व पवित्र हृदय वाले अरावसु को यह आक्षेप असह्य हो गया। वह सब छोड़कर वन में तप करने चला गया उसकी कठोर साधना और तप से प्रसन्न होकर भगवान ने उसे दर्शन दिए और उससे वर माँगने को कहा।
कठोर तप और गहन ध्यान के कारण उसका क्रोध शांत हो गया और वह मुक्ति की कामना करने लगा। निर्मल और निष्पाप हृदय होने के कारण उसने भगवान से प्रार्थना की, कि उसके पिता की आत्मा को शांति मिले और उसका भाई दुष्टता छोड़ दे एवं अच्छा व्यक्ति बन जाए। यह न केवल उसके भाई के लिए ही आवश्यक था परंतु अन्य लोगों के लिए भी जिन्हें परावसु कष्ट और हानि पहुँचाता था।
यद्यपि परावसु और अरावसु दोनों भाई विद्वान, कुशाग्र बुद्धि वाले प्रकांड पंडित थे परंतु दोनों में महान अंतर था। परावसु बुरे विचारों वाला था और छोटा भाई दयालु, गुणी और अन्य लोगों का दुःख दर्द समझने वाला था। ज्ञानी दोनों थे परंतु पढ़ने से कोई महान नहीं होता बल्कि अच्छे निर्मल विचारों, कथन व पवित्र कर्मों के द्वारा व्यक्ति महान बनता है। व्यक्ति के मन, वचन और कर्म में पवित्रता होनी चाहिए।
2. पुस्तकीय ज्ञान से अनुभव ज्ञान अधिक श्रेष्ठ है
एक दिन एक पारसी संत तब्रेज़ अपने मित्र के घर मिलने गए। मित्र का नाम मौलाना रम था और वे दर्शन शास्त्र के बहुत अच्छे आचार्य थे।
सदैव की तरह आचार्य एक जलाशय के किनारे बैठे थे और किसी रचना के ऊपर विचार कर रहे थे।
संत तब्रेज़ ने उनसे पूछा कि वे क्या कर रहे हैं ? मौलाना रम ने कहा, “ओह, यह आप नहीं समझ सकते क्योंकि इनमें बहुत ही गूढ़ दैवी रहस्य छुपा हुआ है। जब तक आप इनके बारे में अत्यधिक ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते, आप इन रचनाओं को नहीं जान सकते समझ सकते।”
तब्रेज़ केवल मुस्कुरा दिए, कुछ बोले नहीं। परंतु आगे बढ़कर मौलाना के हाथ से रचना ली और पानी में यह कहते हुए फेंक दी कि, “दिव्य ज्ञान पुस्तकों में नहीं बसता मेरे दोस्त।”
मौलाना रम को इससे बड़ा आघात पहुँचा। अपनी प्रिय रचना के इस तरह फेंक दिए जाने पर उन्हें बड़ा दुःख हुआ परंतु वे क्रोधित नहीं हुए| बड़ी उदास मुस्कान के साथ उन्होंने कहा, “यह तुमने क्या किया, तुम अजीब फकीर हो? तुम कभी नहीं जान पाओगे कि इन अनूठी रचनाओं के नष्ट हो जाने से संसार को कितनी अधिक क्षति उठानी पड़ेगी?
तब्रीज़ फिर मुस्कुरा दिए। उन्होंने पानी के अंदर हाथ डाला और बिना क्षति पहुँचे रचनाओं को बाहर निकाल लिया और बोले, “मौलाना! कृपया मुझे क्षमा कर दो, मेरे दोस्त, बच्चों के खिलौने जैसा अपने हृदय को मत तोड़ो।”
मौलाना रम घबरा गए कि यह क्या हो गया। यहाँ उन्होंने तब्रीज़ में ईश्वरीय शक्ति के दर्शन किए, रचनाएँ पानी में फेंकने के बाद भी गीली नहीं हुई थीं। वे समझ गए कि अब भगवान उन्हें अनुभव के द्वारा सच्चे ज्ञान को प्राप्त कराना चाह रहा है। उन्होंने पुस्तकों को अलग कर दिया और अपने जीवन को पूरी तरह बदल डाला। तब्रीज़ ने उन्हें संस्कारित कर दिया और मौलाना ने उनसे ज्ञान प्राप्त किया और परसिया के एक बहुत ही प्रसिद्ध संत के रूप में पहचाने जाने लगे।