सीता सती
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अष्टम पद
- सीता सती सम विशुद्ध हृदम्बुजाता
- बह्वंगना करगृहीत सुपुष्पहारा ।
- स्तुन्वन्ति दिव्यनुतिभिः फणिभूषणंत्वां
- श्री सत्य साई भगवन् तव सुप्रभातम् ॥८॥
भावार्थ
भक्त सीता के समान पवित्र है क्योंकि उनके हृदय कमल के समान है, जिस तरह कमल जल में रहते हुए भी जल में आसक्त नहीं है उसी तरह इन भक्तों के हृदय सांसारिक भोग-विलास से अनासक्त हैं। ऐसे अनासक्त, पवित्र हृदयी भक्त आपका दिव्य गुणानुवाद करते हुए, आपकी स्तुति करते हुए, आपका नाम संकीर्तन करते हुए, आपके पास आए हैं। वे सुंदर पुष्पों की माला आपके लिए, अपने प्रभु के लिए, अपने महाप्रभु शिव के लिए, जो अपने कंठ में सर्पों की माला सुशोभित किए हैं, लाए हैं। हम आपका आशीर्वाद पाने के लिए प्रार्थना करते हैं जिससे हम अपने दिव्यत्व को जागृत कर सकें और सबमें दिव्यत्व को देख सकें।
व्याख्या
सीता | श्री राम की पत्नी सीता |
---|---|
सती | समर्पित और पवित्र |
सम | समान |
विशुद्ध | पवित्र |
हृदम्बु | हृदय कमल, कमल के समान हृदय |
जाता | उत्पन्न हुआ |
बह्वं गना | बहुत सी स्त्रियाँ, सम्पूर्ण मानवत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली| भगवान पुरुषतत्व है और मनुष्य प्रकृति तत्व | |
करगृहीत | हाथों में पकडे हैं | |
सुपुष्पहारा | पुष्पों की माला |
स्तुन्वन्ति | प्रशंसा कर रहे हैं, स्तुति कर रहे हैं | |
दिव्यनुतिभिः | दिव्य स्तुति |
फणिभूषणं | जो सर्पो के आभूषणों से सुशोभित हैं | |
त्वाम् | तुम |
आंतरिक महत्व
यह पद आध्यात्मिक जीवन की चरम सीमा है। यह अवस्था प्रारम्भिक अनुशासनों से गुजरने के बाद प्राप्त होती है। भक्त उन सब अवस्थाओं से होकर अपने आप को पवित्र बना लेता है तब कहीं अगले चरण के लिए अर्थात ईश्वर से एक रूप होने के लिए उसमें लीन होने के लिए स्वयं को योग्य बना पाता है।
यहाँ ‘बह्वंगना’ शब्द सम्पूर्ण मानवमात्र का प्रतिनिधित्व करता है। जब मानव पहले बताई गई साधना के द्वारा यथा-जप, ध्यान, मौन, नाम स्मरण आदि के द्वारा अपने आप को पवित्र कर लेता है तब वह भगवान का यंत्र बन जाता है। धर्म स्थापना के उसके कार्यों में उसका सहभागी बन जाता है।
यह जीव और शिव, प्रकृति और पुरुष, आत्मा और परमात्मा की एकता का प्रतीक है |
हे भगवान ! आप मेरी आत्मा में प्रकाशित होईए, जिससे मैं साधना के द्वारा स्वयं को पवित्र कर सकूँ, जिससे अपने साथियों में प्यार, एकता, शांति और आनंद को बाँट सकूँ।
वास्तव में यह व्यक्तिगत आत्मा और परमात्मा जीव और शिव का मधुर-मिलन है, पवित्र बंधन है | भक्ति की तुलना पवित्र नारी से की गई जो पूर्ण समर्पण की माला लेकर अपने स्वामी के पास आए हैं। अब हम आनंदमय कोष तक पहुँच गए हैं।
सुप्रभातम् का उद्देश्य हमारे अंदर निहित दिव्य शक्ति को जागृत करना है। एक बार यह कुंडलिनी शक्ति जागृत हो जाए तो वह षट्चक्र से होती हुई सहस्रचक्र तक पहुँच जाती है। भगवान की कृपा या सद्गुरु की कृपा से ही यह शक्ति जागृत हो सकती है। ऐसा कहा जाता है कि यह शक्ति रीढ़ की हड्डी में नीचे की ओर सुप्तावस्था में रहती है।
बच्चों को संक्षिप्त में कुंडलिनी योग के सम्बन्ध में जानकारी देना चाहिए। अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिए हम बच्चों से कह सकते हैं कि यदि यह शक्ति जागृत होती है तो उसमें बहुत से गुणों का विकास होता है, उसका हृदय सद्गुणों से भर जाता है। उसका चरित्र और व्यक्तित्व सुंदर बनता है। उसमें पहले की अपेक्षा अधिक ज्ञान शक्ति का विकास होता है। ऐसा व्यक्ति षड्रिपुओं पर विजय प्राप्त कर लेता है- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे शत्रु उसके अधीन हो जाते हैं।
बाबा कहते हैं – संगीत, गायन, तबला, संतूर, सितार आदि किसी भी क्षेत्र पर विद्या प्राप्त करने के लिए कला के प्रति प्रेम और एकाग्रता होना आवश्यक है जो मानव में वह शक्ति जागृत करती है। प्रत्येक विद्वान अपने-अपने क्षेत्र में यह शक्ति प्राप्त करता है।
इस तरह सांसारिक हो या आध्यात्मिक किसी भी क्षेत्र में पूर्णता व्यक्ति की उच्च स्थिति को दर्शाती है, जबकि अज्ञानी या सुप्त व्यक्ति चेतना के निम्न स्तर पर रहता है| ऐसे व्यक्ति केवल खाने, पीने और मौज करने के लिए जीवित रहते हैं और अपनी पशु प्रवृत्तियों को दर्शाते हैं।
समाज या राष्ट्र के लिए कल्याणकारी कार्य करने के लिए जो महान शक्ति और उत्साह है वह ईश्वरीय शक्ति है। बच्चों की इस शक्ति को उच्च आदर्शों और मूल्यों की ओर प्रवृत्त करना चाहिए। इस तरह से हम भगवान के मिशन के यंत्र बन जाएँगे और प्रेम और शांति का विस्तार करने में सफल होंगे।
हमें अपनी आत्मिक चेतना को प्रतिदिन जागृत करना चाहिए और जागृत अवस्था में ही अपने दैनिक कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। तभी हमारी भटकन समाप्त होगी और हम आनंद के साथ विजयी की भाँति अपने घर पाएँगे अर्थात् संसार के आकर्षणों में भटकते हुए, जब हमें दिव्य चेतना प्राप्त होगी तो हम उसे छोड़कर ईश्वर की कृपा पाने के लिए तत्पर होंगे और पुन: अपने पूर्व स्वरूप ‘सद् चित आनंद’ को प्राप्त करेंगे।