सत्य ही ईश्वर है
कोल्हापुर नगर में एक विद्यालय था। एक दिन की बात है, विद्यालय की एक कक्षा में, अध्यापक ने छात्रों को गणित के कुछ प्रश्न सुलझाने को दिये। कुछ देर बाद थोड़ी सी सरसराहट सुनाई दी। बच्चे शिकायत कर रहे थे कि इम्तिहान में आए कुछ प्रश्नों का पाठ कक्षा में नहीं पढ़ाया गया। इसलिए उनका उत्तर वो नहीं लिख पा रहे थे।
अध्यापक को भी अपनी गलती का एहसास हुआ।पर, उन्होंने कक्षा के होशियार बच्चों में से एक बच्चे, गोपाल को अपनी उत्तर-पुस्तिका में कुछ लिखते हुए देखा। अध्यापक ने गोपाल के पास जाकर देखा, तो पाया कि उसने सही उत्तर लिखे थे, “अरे वाह! तुमने सही उत्तर लिखे हैं, बिना पढ़ाए ही तुमने सही तरह से प्रश्न को सुलझाया है। तुम बडे होशियार हो, तुम्हें प्रथम श्रेणी मिलना है” गोपाल ने उठकर नम्रता पूर्वक कहा “सर, मैंने अपनी बुद्धि से नहीं सुलझाया है, मेरे रिश्तेदार के एक भैया ने, जो बाहर से आये थे, उन्होंने सिखाया। वो गणित में बड़े होशियार हैं। इसलिए मैं, प्रथम श्रेणी का हकदार नहीं हूँ।
अध्यापक गोपाल की बात सुनकर बहुत खुश हुए। उन्हें प्रसन्नता इस बात की हुई कि, गोपाल ने निश्छल मन से सत्य बात बताई। गोपाल ने उस प्रशंसा को अपनाने से, ईमानदारी पूर्वक मना किया जिसका अधिकारी उसने स्वयं को नहीं समझा। वो बालक कोई और नहीं, वरन् श्री गोपाल कृष्ण गोखले थे, जो भारत के श्रेष्ठ सामूहिक सुधारकों में से एक थे। महात्मा गाँधी ने भी उनको अपना गुरू माना। उन्होंने “सर्वेन्ट्स ऑफ इन्डिया सोसायटी” की स्थापना की, जो भारत के निर्धन और सामूहिक तौर से पिछड़े वर्गों की सहायता करती है।
प्रश्न:
- अध्यापक गोपाल की किस बात से खुश थे? हमें वह प्रशंसा अथवा श्रेय जिसके हम वास्तव में हकदार नहीं हैं, क्यों स्वीकृत करना नहीं चाहिए? अगर हम ऐसे प्रशंसा को अपनाएँगे, तो क्या होगा?
- इस कथा से आपने क्या सीखा?