धर्म
भगवान बाबा इसको समझाने के लिए कहते हैं कि सत्य आचरण के लिए मानव की इच्छाओं का संयम ही धर्म है। दृढ़ तथा निर्दोष साधना से ही धर्म का आचरण होता है। सम्पूर्ण रूप से श्रेष्ठ व्यक्तित्त्व के लिए सदाचरण नितांत आवश्यक होता है। विचारों और कार्यों में एकरुपता ही धर्माचरण है।
भारतीय विचारधारा के अन्तर्गत मनुष्य के भौतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक सभी कर्त्तव्य कर्म धर्म की परिधि में आते हैं। प्रातः से सायं और जन्म से मृत्यु तक धर्म, मानव के समस्त कार्यकलापों को नियमित बनाता है।
सारांश यह है कि धर्म का तात्पर्य सत्य आचरण से है, जो स्वयं के कल्याण के साथ सर्वजन हितकारी भी होता है। ‘धारयेति इति धर्मः’ अर्थात् जो धारण करने योग्य हो उसे धर्म कहते हैं। समस्त ब्रह्मांड का मूलाधार धर्म है। इसी से सृष्टि में व्यवस्था तथा सामन्जस्य होता है। इस सृष्टि व्यापार में प्रत्येक मनुष्य एक कड़ी की तरह है जिसके सुव्यवस्थित रहने पर विश्व का सुसंचालन होता है।
सद्गुण और सदाचार पूर्ण धार्मिक जीवन के अतिरिक्त समस्त कर्मों को समर्पण के भाव से सदैव ईश्वर की पूजा मानकर करना चाहिए। हम जीवन में जो कुछ भी करते हैं उसमें नैतिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता का भी समावेश होना चाहिए। चारों पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में धर्म का स्थान सबसे पहले तथा प्रमुख है।
सत्यं वद धर्मं चर (सत्य बोलें। धर्म का आचरण करें)।