ज्ञान योग
आत्मा के सत्य को जानने के लिए यदि खोज, बौद्धिक स्तर पर प्रारंभ हो तो उस विधि को ज्ञान योग कहते हैं। इसके लिए शक्तिशाली दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है। इसका प्रारंभ नेति-नेति से होता है अर्थात् आत्मा को छोड़ अन्य प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व अस्वीकार कर देना और अन्ततः अर्न्तज्ञान द्वारा परम सत्य अर्थात् आत्मा का ज्ञान होना। उसके लिए वह स्वयं आत्मा है। चारों ओर स्थित संसार और सभी जीवधारी भी सिर्फ आत्मा ही हैं। आत्मा या ईश्वर से भिन्न किसी भी वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं है।
दृष्टांत
नामदेव विट्ठल के बहुत बड़े भक्त थे। पंढरपुर के विट्ठल भगवान विग्रह में से उनसे बाते करते थे। उनके द्वारा अर्पित भोग ग्रहण कर लेते थे। वे बहुत सुंदर कीर्तन रचते थे एवं उन्हें अपने सुमधुर स्वर में गाकर सबको मन्त्रमुग्ध कर देते थे।
सांवता माली, जनाबाई, नरहरी सुनार, सेना नाई, चोखा मेला, गोरा कुम्हार, निवृत्तिनाथ, ज्ञानेश्वर, सोपानदेव, मुक्ताबाई ये सभी नामदेव के समकालीन विट्ठल भक्त थे। एक बार वे सब एक स्थान पर एकत्र हुए। उन्होंने सबसे सुन रखा था कि नामदेव विट्ठल के सबसे प्रिय भक्त हैं, इसलिए उन्हें दूर से आते देखकर सब उन्हें सम्मान देने के लिए खड़े हो गए। परन्तु नन्हीं मुक्ताबाई बैठी रही, मानों नामदेव एक सामान्य व्यक्ति हों। ज्ञानदेव को बुरा लगा और वे लज्जित हुए। उन्होंने मुक्ताबाई को नामदेव के समान महाभक्त के प्रति आदर न दिखाते हुए, जो अविवेकपूर्ण व्यवहार किया उसके लिए फटकारा। मुक्ता बोली, ‘नामदेव अभी भी कच्चे ही हैं। उनमें अभी बहुत कुछ पकना बाकी है।’ उसकी ढिठाई से तीनों भाई खीझ उठे। वह बोली, “यदि मेरा कथन सही नहीं है तो गोरा चाचा परीक्षा ले लें और अपना फैसला सुनाएंँ।” गोरा से अनुरोध किया गया कि वे वहाँ उपस्थित सभी व्यक्तियों के आध्यात्मिक स्तर का निर्णय करें। गोरा उठे और उन्होंने प्रत्येक का सर बजाकर सुनने का प्रयास किया, जैसे कि वे घड़े को बजाकर देखते थे। उन्होंने अपना निर्णय दिया, कि यहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति पूर्णतः पका हुआ है, पूर्ण विकसित है और आध्यात्मिक दृष्टि से परिपक्व हैं। यद्यपि नामदेव भगवान विट्ठल के सर्वाधिक प्रिय भक्त हैं। तथापि वे अभी परिपक्व नहीं हैं। मुक्ता की उदासीनता और उसका मूल्यांकन न्यायोचित प्रमाणित हुआ।
नामदेव को सदमा लगा और वे बहुत निराश, हतोत्साहित हुए। यदि गोरा कहते हैं कि मैं अभी परिपक्व नहीं हूंँ तो ऐसा ही है, उनका निर्णय पूर्णतः उचित ही होगा। नामदेव दौड़ते हुए मंदिर में अपने विट्ठल के पास पहुँचे और रोते-रोते प्रार्थना करने लगे कि, ‘भगवन् मुझे सही राह दिखाइये।’ विट्ठल बोले, ‘सूदूर ग्राम में विसोबा खेचर रहते हैं, तुम उन्हीं के पास जाओ और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करो।’ नामदेव विसोबा से मिलने चल पड़े। गाँव पहुँचकर जब उन्होंने विसोबा के बारे में पूछा तो ग्रामवासियों ने बताया कि विसोबा अवश्य ही मंदिर में कहीं सो रहे होंगे। मंदिर में प्रवेश करते ही उन्होंने देखा कि एक बहुत दुबला-पतला जंगली सा दिखने वाला वृद्ध, पवित्र शिवलिंग पर पैर रखे सो रहा है। नामदेव अचंभित रह गए। भगवान ने भी मुझे उस अहंकारी और दम्भी लड़की मुक्ता के समान बेवकूफ बना दिया। उन्होंने क्रोधित हो उस वृद्ध को जोर से हिलाया और चिल्लाकर बोले, ‘क्या तुम्हे भान नहीं कि तुमने अपने पैर कहाँ रखे हुए हैं? क्या कोई अन्य स्थान नहीं मिला, तुम्हें अपने पैर रखने के लिए जो तुमने प्रभु के विग्रह पर ही पैर रख दिए।’ उस वृद्ध ने बहुत धीमे से कमजोर स्वर में कहा, ‘क्षमा करें। देखिए मैं ठीक से देख ही नहीं पा रहा हूँ। मैं आपसे विनती करता हूँ, कि कृपा कर मेरी सहायता कीजिए और मेरे पैर उस स्थान की ओर घुमा दें जहाँ शिवलिंग न हो।’ खीझ और क्रोध में भरे नामदेव ने उस वृद्ध के पैर शिवलिंग से दूर किए, परन्तु देखा वे उस वृद्ध के पैर जहाँ-जहाँ ले जाते, शिवलिंग उसी स्थान पर पहुँच जाता, मानो पैर शिवलिंग से चिपक गए हो। नामदेव आश्चर्यचकित रह गए। तभी नामदेव को समझ में आया कि ये तो विसोबा ही हैं। उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया कि विट्ठल पंढरपुर मंदिर में स्थित विग्रह में ही नहीं हैं, बल्कि वे तो ब्रह्माण्ड के कण-कण में समाए हुए हैं।
ज्ञान क्या है? परमात्मा के दर्शन सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में करना सर्वत्र उनकी अनुभूति करना ही ज्ञान है। तभी तो नामदेव सूखी रोटी उठाकर भागते कुत्ते के पीछे घी का कटोरा लेकर दौड़े थे ‘अरे विट्ठल घी लगा लो। सूखी रोटी कैसे खाओगे।’
उपसंहार:
प्रत्येक योग ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग है। कोई भी योग सर्वश्रेष्ठ नहीं माना जा सकता। मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार इनमें से किसी एक योग मार्ग का चुनाव करता है। जिस व्यक्ति को काम करते रहना पसंद है वह कर्मयोग का मार्ग चुनता है। भावुक व्यक्ति के लिए भक्तियोग सरल है। तर्क बुद्धि से सम्पन्न व्यक्ति ज्ञानयोग का चुनाव करता है एवं भावुक होने के साथ-साथ जो व्यक्ति बुद्धिवादी भी है, उसके लिए राजयोग उचित मार्ग है। अध्यात्म की अन्तिम अवस्था में ये सभी योग, अपना भेद समाप्त कर एक दूसरे में लीन हो जाते हैं अर्थात् व्यक्ति चाहे जिस योगमार्ग का अनुसरण करे, अंततः उसे सभी योगों की प्राप्ति हो जाती है।
उदाहरण के लिए शंकराचार्य ने अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया है, परन्तु वे श्रेष्ठतम भक्त भी थे। जब भी जिस किसी भी रूप में उन्होंने परमात्मा को पुकारा वे प्रकट हुए – कभी लक्ष्मी बनकर, तो कभी अन्नपूर्णा बनकर। ज्ञान योग के दृष्टान्त से स्पष्ट है कि भक्तिमार्ग को अपनाने वाले नामदेव अन्ततः ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। कोई भी राह अपना लें, मन का लक्ष्य एक है।