उपसंहार
सभी धर्म एक समान महान और सच्चें हैं। वे सभी एक ही लक्ष्य तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। वे सभी इस बात को विशेष महत्व देते हैं कि सभी इन्सान एक-दूसरे के भाई हैं और ईश्वर हम सबके पिता हैं। सभी धर्म यह सिखाते हैं कि मनुष्य को अन्य मनुष्यों तथा सम्पूर्ण सृष्टि से प्रेम करना चाहिए। सभी धर्म एक ही उपदेश देते हैं, “अच्छे बनो, अच्छा करो, अच्छा देखो।”
अत: सभी धर्मों को ऐसे मित्रों के रुप में स्वीकार करना चाहिए जो एक साथ मिलकर मनुष्य मात्र के नैतिक और आध्यात्मिक जीवन का विकास करने का प्रयास करते हैं। आज विश्व की सबसे बड़ी आवश्यकता है सर्वधर्म समभाव। यदि सभी धर्म एक दूसरे को समझकर एक दूसरे का पोषण करें तो विश्व में एकात्म भाव की स्थापना होगी। आइए, हम किसी धर्म विशेष अथवा किसी एक राष्ट्र की बात न करें वरन् मानवता का विकास करें। हमारे हृदय एक हों। इसी एकता के प्रचार-प्रसार हेतु भगवान ने सर्वधर्म ऐक्य चिन्ह प्रदान किया है जिसमें सभी धर्मों के बीच सामन्जस्य, एकता तथा एकात्मकता को दिखाया गया है।
सभी मनुष्य सुखी रहें, सभी मनुष्य निरोगी हों, सभी सुसम्पन्न हों और कोई भी कुमार्गगामी न हो।
असतो मा सदगमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
मृत्योर्मा अमृतंगमय ।
कहा जाता है कि मनुष्य ईश्वर का ही प्रतिरूप है। बाबा भी हमें दिव्यात्मस्वरूप कहकर ही सम्बोधित करते हैं। इसका अर्थ यह है कि हमारा यथार्थ स्वरूप दिव्यता है और यही दिव्यता सर्वत्र व्याप्त है। परन्तु हमारे भीतर यह दिव्यता क्रियाशील नहीं है वरन् सुप्तावस्था में है। उसके स्थान पर हमारा अहं ही कार्य कर रहा है और यह अहं ही हम पर शासन करता है। सभी धर्म, अहंकार को नष्ट कर हमारा उत्थान करते हैं। अहं के नष्ट होते ही हमारे भीतर स्थित दिव्यत्व जाग्रत हो जाता है। हमारे विचार, वाणी तथा कर्मों पर दिव्यत्व का प्रभाव झलकने लगता है। जब दिव्यता हमारे जीवन एवं हमारे सभी कर्मों का आधार बन जाती है तभी हम दिव्यात्मास्वरूप बन पाते हैं। सभी धर्मों का एक ही लक्ष्य है मनुष्य को दिव्यत्व प्रदान करना, उसे ईश्वर सदृश्य बनाना।