अर्जुन की एकाग्रता
अर्जुन की एकाग्रता
प्राचीन काल में धृतराष्ट्र नामक एक राजा थे। उनके पांडुराज नामक एक भाई थे। धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव कहलाए जाते थे, और पांडु के पुत्र पांडव कहलाते थे। वे सभी राजकुमार गुरू द्रोणाचार्य के शिष्य़ थे। वह उन्हें अन्य शिक्षा के साथ ही धनुर्विद्या भी सिखाते थे। पांडवों में अर्जुन तीसरे राजकुमार थे।पांडव पाँच भाई थे, और कौरव सौ।
सभी राजकुमारों में से अर्जुन सर्वाधिक होशियार थे, और सदैव अपने अध्ययन में उत्कृष्ट, विशेष रूप से धनुर्विद्या में पारंगत थे। धनुर्विद्या की कला में उनकी अभिरुचि और निपुणता थी, जो वे प्रदर्शित भी करते थे, उससे वह अपने गुरू द्रोणाचार्य के अति प्रिय शिष्य बन गये। अर्जुन कर्मठ, कठोर परिश्रमी शिष्य था। अर्जुन की दक्षता, कौरव भाईयों के लिए ईर्ष्या का कारण बन गई। परंतु, इसी दक्षता ने उसे अपने गुरू का परमप्रिय बनाया। चूंकि अर्जुन द्रोणाचार्य के परमप्रिय थे, दुर्योधन व अन्य उससे ईर्ष्या करने लगे। उन्होंने शिकायत की कि गुरू पक्षपाती हैं, और अर्जुन के प्रति विशेष कृपादृष्टि दिखाते हैं।
यह शिकायत गुरु द्रोण तक पहुँची। वह युवा राजकुमारों के मनोविकार से ग्रस्त झूठे आरोपों का निराकरण कर देना चाहते थे, और सिद्ध कर देना चाहते थे, कि उनका प्रेम पक्षपाती नहीं, अपितु अर्जुन द्वारा स्वअर्जित कृपादृष्टि थी।
एक दिन, गुरु द्रोण ने अपने सभी शिष्यों को बुलाया और बोले, “देखो बच्चों, मैं धनुर्विद्या में तुम लोगों की दक्षता की परीक्षा लेने जा रहा हूँ। तुम्हें उस शाखा पर अपने तीर से लक्ष्य साधना होगा |” शिष्य अति-प्रसन्न थे, और तुरंत उत्तर दिया, “जी गुरूजी”|
तब द्रोण ने दुर्योधन से शुभारंभ करके, क्रमानुसार सभी शिष्यों को बुलाना आरंभ किया।द्रोण ने कहा, “दुर्योधन तुम्हें उस वृक्ष को अपने तीर का लक्ष्य बनाना है। क्या उसे देख रहे हो?”
दुर्योधन ने उत्तर दिया, “गुरूजी, मैं विशाल नीला आकाश देख रहा हूँ। बड़ा वृक्ष, घनी पत्तियाँ, आप, मेरे भाई, धर्मराज तथा अन्य सभी मुझे दिखाई दे रहे हैं |” तब, द्रोण ने कहा, “तुम जा सकते हो |” इसी प्रकार उन्होंने अन्य शिष्यों को बुलाया। सभी ने लगभग उसी प्रकार एक समान उत्तर दिए।
अंत में द्रोण ने अर्जुन से पूछा, “अर्जुन, क्या तुम उस विशाल वृक्ष की शाखा के शिखर पर चिड़िया देख रहे हो?” अर्जुन ने कहा, “जी हाँ, गुरूजी”। द्रोण ने प्रश्न किया, “इसके अलावा और क्या देख रहे हो?” “कुछ भी नहीं गुरूजी” – अर्जुन ने उत्तर दिया। द्रोण ने पुनः प्रश्न किया, “क्या तुम आकाश, शाखाएँ, पत्तियाँ इत्यादि नहीं देख रहे हो?”
“नहीं गुरुजी, मैं चिड़िया के अलावा कुछ भी नहीं देख रहा” -अर्जुन ने अतिविनम्रता पूर्वक उत्तर दिया। द्रोण अति प्रसन्न हुए और बोले, “पुत्र तुम जा सकते हो |”
अब हम इस परीक्षा से समझ सकते हैं कि, गुरु द्रोण अपने शिष्यों को, इन प्रश्न द्वारा शिष्यों की एकाग्रता किसकी कैसी है, प्रमाणित करना चाहते थे। यद्यपि द्रोण ने इस परीक्षा को धनुर्विद्या की परीक्षा कहा, वास्तव में यह एक एकाग्रता का परीक्षण था। द्रोणाचार्य पाठ पढ़ाना, सिखाना चाहते थे कि जो भी कार्य कोई करता है उसी कार्य पर ध्यान केन्द्रित रखना अति आवश्यक है। किसी भी छात्र के लिए किसी भी तरह का ध्यान-विच्छेद नहीं होना चाहिए। एकाग्र चित्तता की कमी अथवा अभाव से जीवन के प्रत्येक और किसी भी क्षेत्र में असफलता प्रमाणित होती है |
प्रश्न:
- गुरू द्रोणाचार्य को अर्जुन ही क्यों सर्वाधिक प्रिय था?
- क्या परीक्षा धनुर्विद्या की थी अथवा एकाग्रता की? अपने शब्दों में सिद्ध करें।