भगवद्गीता गीता अध्याय I-VI
अध्याय – 1 अर्जुन विषाद योग
अर्जुन का विषाद भाव
1) उनकी भ्रामक धारणा थी कि शरीर के साथ मनुष्य का मूल व्यक्तित्व (आत्मा भी समाप्त) हो जाती है। इसे देहात्म भ्रान्ति कहते हैं। इसमें भ्रमवश अविनाशी आत्मा को नश्वर देह मान लिया जाता है। (2) वह युद्ध करना पाप समझते थे। क्षत्रिय धर्म के अनुसार धर्म और सत्य रक्षण हेतु प्राणों का त्याग करना भी उचित है, यह भूलकर वह इस तरह के धर्मयुद्ध को पाप समझते थे।
पहली बात तो सर्वसामान्य तथा साधारण अज्ञानता की थी परन्तु दूसरी बात असामान्य थी क्योंकि उन्हें स्वधर्म (क्षत्रियोचित धर्म) की प्रधानता और श्रेष्ठता के बारे में स्पष्ट ज्ञान नहीं था।
भगवान श्रीकृष्ण पहली अज्ञानता को गीता के सांख्य योग नामक, दूसरे अध्याय में विवेक का तत्वज्ञान और नश्वर आत्मा का विज्ञान समझाकर दूर कर देते हैं। तीसरे अध्याय में कर्मयोग के अन्तर्गत स्वधर्म के स्वरूप, महत्व और उसकी श्रेष्ठता के विषय में बताकर दूसरी अज्ञानता भी दूर कर देते हैं। भगवान से प्रदत्त ज्ञान-प्रकाश से अर्जुन का आन्तरिक द्वंद्व नष्ट हो जाता है और उसका दुख कम हो जाता है।
श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित आत्मा का विज्ञान ब्रह्म विद्या, परब्रह्म परमात्मा का ज्ञान है। ब्रह्म विद्या सीखने के लिए अर्जुन की पात्रता के बारे में पहले अध्याय में बताया गया है। वे चार गुण हैं – शरणागति, इच्छा शून्यता, अनासक्ति तथा वैराग्य।
अर्जुन कहते हैं मैं तीनों लोकों के स्वामित्व की भी इच्छा नहीं करता हूँ। इतने उच्च स्तर की निर्विकार भावना के कारण भगवान के चरणों में पूर्ण समर्पण करने पर श्रीकृष्ण ने उसे अधिकारी मानकर पवित्र आत्म विद्या अर्थात् ब्रह्म विद्या का उपदेश दिया था।
अध्याय 2 – सांख्य योग
नित्य-अनित्य विवेक का तत्वज्ञान
इस अध्याय में आत्म तत्व के ज्ञान का उपदेश दिया गया है। आत्मा 6 विकारों से परे हैं। वह शाश्वत एवं अद्वितीय है। वह सर्वव्यापी, अकर्ता और शुद्ध साक्षी है। वह सत् चित् आनंद स्वरूप है। वास्तविक व्यक्तित्व (आत्मा) हमारे शरीर के साथ ही नष्ट हो जाता है, अर्जुन के इस भ्रम को भगवान ने अपने उपदेशों से दूर कर दिया। सामान्य रूप से सभी मृत्यु से डरते हैं, परन्तु जब हमें अपनी अर्थात् स्वयं की अमरता (हम दिव्यात्मा स्वरूप लारा है) का ज्ञान होता है, तब भय दूर भाग जाता है। इस अध्याय में मृत्यु के भय को हटाने के लिए स्व – स्वरूप का ज्ञान अर्थात् आत्म बोध का ज्ञान दिया गया है। इस अध्याय में स्थितप्रज्ञ अर्थात् आत्मिक चेतना में स्थित, आत्मज्ञान में स्थिर पुरुष का भी वर्णन किया गया है।
अध्याय 3 – कर्मयोग
कर्म का मार्ग
आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए चित्त शुद्धि सबसे पहली आवश्यकता है। हमारा अंतःकरण (मन और बुद्धि) शुद्ध होनी चाहिए। काम और क्रोध से पूर्ण व्यक्ति आत्म तत्व को नहीं पा सकता है। काम और क्रोध सांसारिक वस्तुओं से संबंधित हैं। इसलिए कर्मेन्द्रियों को कर्म में प्रवृत्त किए बिना मन को शांत नहीं किया जा सकता। सभी सकाम कर्म, वासनाओं को बढ़ाकर जीव के बन्धन का कारण बनते हैं और जीवात्मा को पुनर्जन्म के अगाध समुद्र की गहराई में ढकेलते जाते हैं। यदि कोई मन से भगवान की भक्ति में लीन हैं और फल प्राप्ति के प्रति अनासक्त है, तब चित्त शुद्ध और पवित्र हो जाता है। यहाँ तक कि प्रवृत्ति कर्म जो अन्यथा बन्धनकारी हैं, कर्म बंधन से मुक्ति दिलानेवाले निवृत्ति कर्मों में परिवर्तित हो जाते हैं। इन प्रवृत्ति से कर्म करने पर तथा निष्काम भाव से स्वधर्म का आचरण करने से मन शुद्ध होकर अज्ञान का आवरण हट जाता है तथा शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है, तभी हमारे कर्म, कर्मयोग में बदल जाते हैं जो हमें आध्यात्मिक ज्ञान और मुक्ति की ओर ले जाते हैं।
निष्काम कर्मानुष्ठान और स्वधर्मानुष्ठान ही कर्म योग का सारांश है। इस मार्ग पर सफलता की ओर ले जाने वाला केवल एक ही रास्ता है, वह है इच्छाओं पर विजय पाना।
अध्याय 4 – ज्ञान योग
ज्ञान मार्ग
शुद्ध हृदय ही सत्य को धारण कर सकता है। शुद्ध हृदय में ही आत्मज्ञान उदित होता है। इस अध्याय में ज्ञान की महिमा, उसकी गरिमा एवं परम ज्ञान को प्राप्त करने के लिए साधनाएंँ सिखाई गई हैं। कर्म योग फलित होकर अपने ज्ञान में अपनी पूर्णता प्राप्त करता है। ज्ञान, संपूर्ण पापों का क्षय करता है तथा साथ ही पिछली वासनाओं को भी नष्ट कर देता है। शुद्धता और पूर्णता की प्राप्ति में ज्ञान एक साधन है। उसे प्राप्त करने के निम्न उपाय हैं –
- प्रणिपात- गुरू के प्रति समर्पण
- परिप्रश्न – बारंबार प्रश्नों द्वारा शंका समाधान
- सेवा – गुरू की सेवा
- श्रद्धा – दृढ़ और अविचल विश्वास
- तत्परात्व – ईश्वर निष्ठा
- जितेन्द्रियत्व- पूर्ण आत्म नियंत्रण।
यही मुख्य उपाय इस अध्याय में बताये गये हैं।
अध्याय 5 – कर्म संन्यास योग
कर्मों का त्याग
जिसने आत्म ज्ञान प्राप्त कर लिया है वह जीवन मुक्त है। इस अध्याय में जीवन मुक्त के श्रेष्ठ लक्षणों और गुणों का वर्णन है। ऐसा ज्ञानी बाह्य रूप से यद्यपि सांसारिक क्रियाकलापों में लिप्त दिखाई पड़ता है। तथापि यथार्थ में केवल उसकी मांसपेशियाँ कार्यरत रहती हैं तथा वह तो समस्त जागतिक व्यापार में निरपेक्ष एवं साक्षी मात्र रहता है । दूसरे शब्दों में, उसे अकर्ता कहा जाएगा। वह वास्तव में शरीर से अलग रहकर सतत् आत्मिक चेतना में स्थित, शरीर व मन की दासता से बिलकुल परे रहता है। इसी से वह जीवन्मुक्त, शरीर में रहते हुए भी मुक्त है। कर्म संन्यास (कर्मों के फल की इच्छा का त्याग) और साक्षी भाव, इस जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त करने की साधनाएँ हैं।
अध्याय – 6 ध्यान योग
आत्म संयम और ध्यान योग
जिसने कर्मों द्वारा मनोनिग्रह कर लिया है और सांसारिक वासनाओं की दासता से मुक्ति प्राप्त कर ली है, उसे अपनी बुद्धि की शुद्धता तथा आत्मानुभूति के लिए ध्यान का अभ्यास करना होगा।
इस अध्याय में ध्यान के लिए विरक्ति, भोजन का नियमन, प्राणायाम एवं मन में विचार प्रवाह को शांत तथा स्थिर करने के विषय में बताया गया है।