भगवद्गीता गीता अध्याय VII-XII
अध्याय VII – विज्ञान योग
ज्ञान विज्ञान योग – ज्ञान और अनुभूति
ध्यानाभ्यास से बुद्धि शुद्ध होने पर मनुष्य निर्गुण तत्व (निराकार ब्रह्म) और सगुण तत्व (साकार ब्रह्म) दोनों को समझ लेता है। पंच तत्वों से निर्मित ब्रह्माण्ड, यथार्थ में केवल ईश्वर की अभिव्यक्ति अथवा प्रकटन मात्र है। वह केवल सर्वव्यापी ईश्वर का वस्त्र तथा शरीर मात्र है। वह परब्रह्म, आर्त भक्ति, अर्थार्थी भक्ति जिज्ञासा भक्ति और ज्ञान भक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। ये चारों मुक्ति प्राप्ति के साधन हैं।
अध्याय VIII – अक्षर पर ब्रह्म योग
अविनाशी ब्रह्म – अमर जीवन
मृत्युकाल में जैसी भावना मन में रहती है उसी के अनुसार अगला जन्म होता है। ‘यद भावम् तद् भवति’ ऐसा कहा गया है। यदि अंतिम क्षणों में मन ईश्वर में लगा हो तो अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म की प्राप्ति होती है। यदि कोई जीवन पर्यन्त ईश्वर के सतत चिन्तन का अभ्यास करके मनोनिग्रह कर लेता है, तो निःसंदेह उसका मन केवल ईश्वरीय ध्यान में डूबा रहेगा और जीवन मरण के चक्र से छूटकर मुक्ति प्राप्ति कर लेगा। सत्पुरुष एवं उपासक जन देवयान मार्ग का अनुसरण करते हैं और कर्म से लिप्त लोग पितृयान मार्ग से जाते हैं।
अध्याय IX – राज विद्या गुह्य योग
परम गोपनीय परम श्रेष्ठ विज्ञान का योग अर्थात् विज्ञानों का विज्ञान, अति गोपनीय ज्ञान
इस अध्याय में कृष्ण, ईश्वर के निर्गुण तत्व और जगत के मिथ्यात्व (जो सत्य नहीं है) को समझने का उपाय बताते हुए कहते हैं कि प्रभु की अनन्य भक्ति ही वह उपाय है। शुद्ध भक्ति के द्वारा निर्गुण निराकार के सुलभ स्वरूपों की प्राप्ति के विषय में इस अध्याय में कहा गया है। सजीव समाधि लेते समय संत ज्ञानेश्वर इसी अध्याय का पाठ करते हुए समाधि में प्रविष्ट हुए थे। इसी से इसकी महानता तथा महत्व का बोध होता है। इसमें ब्रह्म के सहज सुलभ रूप का गुणगान है।
अध्याय X – विभूति योग
ईश्वरीय दर्शन
अनन्य भक्ति उत्पन्न करने के लिए सृष्टि के कण-कण में, मन के द्वारा ईश्वर- दर्शन करने का अभ्यास करते रहना चाहिए। जहाँ कहीं भी जो कुछ अच्छा है, भव्य है। उसे परमात्मा की दिव्य विभूति बताया गया है। ये समस्त विभूतियांँ प्रभु का प्रतिबिम्ब हैं। अतएव हमें ईश्वर को समस्त सृष्टि में ही देखने का प्रयत्न करना चाहिए।
अध्याय XI – विश्वरूप दर्शन योग
विराट स्वरूप का दर्शन
सृष्टि में ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, यहाँ तक कि उसमें ही संपूर्ण सृष्टि स्थित है। दसर्वे अध्याय में सृष्टि में ईश्वर की मात्र झलक बताई गई है। इस अध्याय में संपूर्ण जगत् को ईश्वर के विराट शरीर के रूप में प्रदर्शित किया गया है। ईश्वर केवल अपनी सृष्टि में सीमित न होकर अखिल सृष्टि से भी परे हैं।
अध्याय XII – भक्ति योग
भक्ति मार्ग
भगवान ने इस अध्याय में सगुण और निर्गुण भक्ति का उपदेश दिया है। अपनी- अपनी जगह दोनों श्रेष्ठ हैं। सच्चे भक्त के गुणों और लक्षणों का भी इस अध्याय में वर्णन किया गया है। भक्त किसी के प्रति द्वेष भाव नहीं रखता, सबके लिए उसके हृदय में दया है। इसी से भक्त का ईश्वर के प्रति प्रेम से बढ़कर, ईश्वर का भक्त के प्रति प्रेम रहता है। जबकि प्रथम छः अध्यायों में जीव को शुद्ध करने की साधना वर्णित है, तो दूसरे छः अध्यायों में सर्वव्यापी ईश्वर की महिमा तथा प्रकृति के वर्णन के साथ उन्हें प्राप्त करने के उपाय बताये गए हैं। अंतिम छः अध्यायों में ब्रह्म से जीव की अनिवार्य एकरूपता (अद्वैत तत्व) को समझाया गया है।