भगवद्गीता गीता अध्याय XIII-XVIII

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अध्याय XIII – क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग
आत्मा तथा पदार्थ

इस अध्याय में बताया गया है कि शुभाशुभ कर्मों के बीज का फल प्राप्त होने से यही शरीर क्षेत्र (खेत) है। जिसका इस क्षेत्र देह में अन्तर्वास है वही क्षेत्रज्ञ (आत्मा- परमात्मा) है। प्रभु को जानने का साधन ज्ञान है, वे गुण जिनका विकास करना है, जिसे जानना अभीष्ट है वह ज्ञेय (ईश्वर) हैं। शक्ति को प्रकृति तथा परमात्मा को पुरुष कहा गया है। इस अध्याय में वर्णित ज्ञान से, आत्मा तथा अनात्मा एवं नित्य और अनित्य के भेद हेतु विवेक का विकास होता है।

अध्याय XIV – गुणत्रय विभाग योग
त्रिगुण

जबकि ब्रह्म केवल सत्य है, तो हमें उसका ज्ञान और अनुभव क्यों नहीं होता ? हमारे औरआत्मा के बीच कौन सी बाधा है? यह बाधा तीन गुणों से युक्त प्रकृति (सत, रज, तम से बनी माया) द्वारा आत्मा पर पड़े आवरण के कारण है जो सत्य से हमें दूर रखती है। इस बंधन से मुक्त होने व सत्य से विमुख रहने वाले माया के आवरण का ज्ञान कराने के लिए सत्व, रजस व तमस इन तीनों गुणों की तथा वे किस प्रकार से हमें बांधते हैं इसका पूर्ण रूप से विवेचन किया गया है। अन्त में गुणातीत हुए मनुष्य के श्रेष्ठ लक्षणों और गुणों का वर्णन किया गया है। गुणातीत बनने के लिए आवश्यक साधनाएँ इस अध्याय में वर्णित हैं।

अध्याय XV – पुरुषोत्तम योग
परमात्मा

प्रकृति के कारण ही जीव संसार से बंधा है। संसार वृक्ष का विवरण तथा वैराग्य द्वारा इस बंधन को काट कर पुरुषोत्तम की प्राप्ति का उपाय इस अध्याय में बताया गया है।

अध्याय XVI – दैवासुर संपद विभाग योग
दैवी तथा आसुरी गुण

वैराग्य प्राप्ति के लिए मनुष्य को अपने आसुरी गुणों को त्याग कर दैवी सम्पत्ति के सहारे ऊपर उठना पड़ता है। इन्हीं आसुरी और दैवी गुणों का इस अध्याय में वर्णन है।

‘किंकर्त्तव्यविमूढ़ता’ की स्थिति में हमारे धर्म ग्रन्थ ही एकमात्र मार्गदर्शक और प्रमाण हैं। उनमें दिये आदेशों को मानकर हमें इस संसार में तदनुसार कार्य करना है।

अध्याय XVII – श्रद्धात्रय विभाग योग
त्रिश्रद्धा

दैवी सम्पदा युक्त, सात्विक विश्वास, जीवन में सभी मामलों और व्यवहारों में आवश्यक है। आहार, यज्ञ, दान, तप आदि में प्रत्येक की श्रद्धा के स्तर के अनुसार सात्विक, राजसिक और तामसिक गुणों के आधार पर विस्तृत चर्चा करके रजस और तमस से बचकर सात्विक श्रद्धा द्वारा लक्ष्य प्राप्ति की बात इस अध्याय में कही गई है।

अध्याय XVIII – मोक्ष संन्यास योग
वैराग्य का भाव

पिछले 17 अध्यायों का संक्षिप्त सारांश है त्याग, ज्ञान, कर्त्ता, कर्म, बुद्धि, धृति, सुख की विवेचना, सात्विक, राजसिक और तामसिक प्रकृतियों के सम्बन्ध में की गई विवेचना। चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के कर्त्तव्य, लक्षण और धर्म भी विस्तारपूर्वक बताये गए हैं। जीव के लिये यज्ञ, ज्ञान और तप अपरिहार्य (जो न टाला जा सके) बताकर निष्काम कर्म, योगाभ्यास, भक्ति, वैराग्य तथा संन्यास को मुक्ति का साधन बताया गया है। इन साधनों से प्राप्त परम ज्ञान द्वारा हम सर्वात्म भाव की प्राप्ति कर दुःखों से छूटकर मुक्त हो सकते हैं।

गीतोपदेश का सार

गीता के मुख्य उपदेश हैं:

  1. ईश पूजा मानकर समस्त कर्म करेंगे। सर्वव्यापी ईश्वर में एकनिष्ठ भक्ति होने और सर्वात्म भाव आने पर काम तथा क्रोध का नाश होने से साधक, यज्ञ (निष्काम सेवा) दान एवं तप की ओर प्रवृत्त होता है।
  2. ईश्वर के शरणागत हो किस प्रकार कर्त्तव्य करते हुए, धर्माचरण करना इसके लिए वेद ही निश्चित प्रमाण हैं। इन सिद्धान्तों को अपने आचरण में डाले जाने पर संसार में सुख और शांति व्याप्त होगी तथा हमारी मुक्ति भी संभव हो सकेगी।

ऊपर वर्णित गीतामृत की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति गांधीजी के इस कथन में हुई हैं, “गीता केवल मेरी बाइबिल अथवा कुरान ही नहीं है वह तो उससे भी बढ़कर मेरी माँ है।”

मैंने अपनी जन्मदात्री माँ को छोटी उम्र में ही खो दिया, परन्तु इस सनातन माँ गीता ने इस कमी को सदा-सदा के लिए पूरा कर दिया है। वह न तो कभी बदली है और न ही उसने कभी मुझे निराश किया। जब-जब मैं कष्ट या संकट में होता हूँ, तब मैं उसके आँचल में शरण ले लेता हूँ। जब असफलताएँ मेरा मुँह ताकती हैं और मुझे आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती तब भगवद्‌गीता में यहाँ-वहाँ कोई श्लोक पा जाता हूँ, जिससे अत्यधिक कठिन काल में भी मैं, तुरंत मुस्कुराने लगता हूँ। मेरा जीवन बाहरी कठिनाइयों से भरा पड़ा है और यदि उसका कोई दृश्य या अदृश्य प्रभाव मेरे ऊपर नहीं पड़ा है, तो वह भगवद्‌गीता के उपदेशों के कारण ही है।

भगवद्गीता किञ्चिदधीता, गंगाजललव कणिका पीता।

सकृदपि येन मुरारिसमर्चा, क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ।।

भजगोविन्दम् भजगोविन्दम्,

गोविन्दम् भज मूढ़मते।।

जिसने भगवद्गीता का थोड़ा सा भी अध्ययन किया है, वह यम से बचकर गोविन्द की प्राप्ति करेगा।

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