हिन्दू धर्म (सनातन धर्म)
हिन्दू धर्म
ऐसा समझा जाता है कि हिन्दू धर्म सभी धर्मों की जननी है। वह सभी धर्मों में प्राचीन है । कम से कम वर्तमान प्रचलित धर्मों में तो वह प्राचीन है ही। बौद्ध और जैन धर्म इसी से प्रस्फुटित हुए। अतएव वे हिन्दू धर्म के कन्या धर्म कहे जाते हैं।
वास्तव में सनातन धर्म हिन्दू धर्म के लिए उपयुक्त नाम है। इस धर्म की उत्पत्ति वेदों से हुई। वेद परम-ज्ञान के धर्म ग्रंथ हैं, जो सृष्टि के प्रारंभ में निर्मित हुए हैं ऐसा विश्वास किया जाता है। वेद शब्द का अर्थ है, ज्ञान (परम ज्ञान)। इसका आधार गहरी आत्मानुभूति से ऋषियों को ईश्वर से सीधा प्राप्त रहस्योद्घाटन है। इसीलिए वेदों को अपौरुषेय कहा जाता है, अर्थात् वेद मानव रचित नहीं हैं। यह प्रवर्तित धर्म नहीं है। वेद ही इसका प्रमाण एवं आधार होने से, यह धर्म वैदिक धर्म या वेदान्त के नाम से जाना जाता था।
धर्म से तात्पर्य है ‘वह जो थामे रखे’ अर्थात् वह संपूर्ण सृजन को एक सूत्र में बाँधता है, जो विश्व में सामंजस्य, एकता, शांति प्रस्थापित करता है। ‘धारणात धर्म इत्याहुः’ या ‘धारयति सा धर्माः’ ऐसा कहा जाता है। सनातन से तात्पर्य है अनंत, अर्थात् वह जिसका सत्य अनंत है, शाश्वत है, चिरकालीन है।
इस प्रकार सनातन धर्म से तात्पर्य है वह धर्म जो शाश्वत मूल्यों एवं सिद्धान्तों की रूपरेखा स्पष्ट करता है तथा उनको सन्निविष्ट करता है। वेद सनातन धर्म का बोधवाचक है अर्थात् नैतिक एवं आध्यात्मिक नियमों की सर्वसत्ता जो संपूर्ण सृजन में एकता एवं समन्वय को स्थायी रखती है। वैदिक ‘ऋचा’ संपूर्ण विश्व को नैतिक नियमों से बद्ध एवं नियंत्रित मानती है। यह ईश्वर या परमात्मा की सर्वोच्च सत्ता को प्रस्थापित करने के लिये उपयोगी एवं सहायक होते हैं। वैदिक धर्म (सनातन धर्म) भौतिक तथा आध्यात्मिक अनुशासन के नियमों को प्रतिपादित करता है, जिनका अपनी जीवन यात्रा में पालन कर मनुष्य व्यवस्थित होकर विश्व को दिव्य शान्ति के साथ सामंजस्य प्रस्थापित करते हुए, स्वयं को उस परमात्मा के साथ मिला सके। धर्म के बिना सुव्यवस्थित विश्व विप्लव युक्त बन जाएगा।
समय बदल सकता है, युग बीत सकते हैं, महाद्वीपों का उद्गम या अदृश्य होना संभव है, परंतु जीवन के मूल्य जैसे सत्य, प्रेम, करुणा, माता-पिता, गुरू या साथियों के प्रति स्वयं के कर्तव्य (मूक बधिर प्राणीमात्र के प्रति कर्त्तव्य) शाश्वत सत्य एवं आत्मा की सर्वोच्चता, सभी प्राणीमात्र की मौलिक एकता आदि अनंत काल तक अस्तित्व में रहेंगे। ये मूल्य शाश्वत हैं, चिरंतन सत्य हैं, वेदों में निहित हैं। इसलिए कहा जाता है कि “वेदोखिलो धर्ममूलम् ।” यही शाश्वत मूल्य और सत्य जो वेदों में हैं वही वैदिक धर्म में निहित हैं। इन्हीं चिरन्तन सार्वभौमिक रूप से मान्य मूल्यों के कारण इसे सनातन धर्म कहा जाता है। हिन्दू शब्द ग्रीक इतिहास काल में सिन्धु नदी के उस पार के निवासियों के लिए ग्रीक और पश्चिमी एशिया के लोगों द्वारा प्रयुक्त किया गया था। बहुत बाद में यही इस देश के धर्म का नाम हो गया। इस प्रकार हिन्दू केवल एक भौगौलिक अर्थ में प्रयुक्त शब्द है जो अब पक्का नाम हो गया है।
भगवान बाबा प्रत्येक वस्तु का आध्यात्मिक अर्थ बताते हैं। उन्होने हिन्दू शब्द का अपनी दिव्य कृपा से यह अर्थ दिया है – हिं अर्थात् हिंसा और दू का अर्थ दूर रहना, अर्थात् वे लोग जो मन, वचन और कर्म से किसी भी जीव प्राणी की हिंसा से दूर रहते हैं वे ही हिन्दू हैं।
‘अहिंसा परमोधर्मः’ अहिंसा परम धर्म है, ‘ईशावास्यमिदंसर्वम्’ सभी प्राणियों में ईश्वरत्व है”, यही हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांत हैं।
बाबा कहते हैं कि भारत के “भा” का अर्थ है भगवान और “रति” का अर्थ है प्रेम और अनुरक्ति। इस तरह भारत का अर्थ भगवदरति लोक अर्थात् ईश्वर भक्तों का देश होता है।
भगवान बाबा “हिन्दू” और “भारत” शब्दों को सारे हिन्दू धर्म और दर्शन का सार बताते हैं सभी प्राणियों और परमात्मा से प्रेम हिन्दू का ही नहीं यथार्थ में समस्त धर्मों का सार है। तात्पर्य यह है कि हिन्दू धर्म अनादि काल से होने के कारण समस्त धर्मों की जननी है।
हिंदू धर्म की प्रमुख शिक्षाएंँ।
- समस्त प्राकृतिक शक्तियाँ ईश्वरीय अभिव्यक्ति हैं: ऐसा माना जाता है कि सूर्य, पृथ्वी, अग्नि, वायु आदि प्राकृतिक शक्तियाँ जो पृथ्वी पर जीवन देती हैं, पोषण करती हैं और साथ ही नष्ट भी करती हैं, सभी ईश्वर की अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि विभिन्न देवताओं की पूजा की जाती है, तथापि यह माना जाता था कि ईश्वर एक है। एकं सत्य विप्र बहुधा वदंति। .
- प्रत्येक का अंतर्मन भी परमात्मा की अभिव्यक्ति और पहलू है: जिस प्रकार प्रकृति की बाहरी शक्तियाँ ईश्वर की अभिव्यक्ति हैं, उसी प्रकार ईश्वर हम में से प्रत्येक में व्यक्तिगत आत्मा या आत्मन् के रूप में स्थित है। मनुष्य की आत्मा एक और केवल एकमात्र सत्य की अग्नि से निकली चिंगारी की तरह है। अतः आर्यों ने घोषणा की ‘तत् त्वं असि’ तू वही है। इसलिए मनुष्य के जीवन का लक्ष्य भौतिक इच्छाओं को त्याग कर स्वयं को मुक्त करना और ईश्वर के साथ संयुक्त करना है। एक बार जब आत्मा मुक्त हो जाती है, तो वह जन्म और मृत्यु के चक्र से भी मुक्त हो जाती है।
- ईश्वर की पूजा किसी भी रूप में की जा सकती है:भगवान के अनंत रूप और अनेक नाम हैं। व्यक्ति अपनी रूचि के अनुसार किसी भी रूप में भगवान की पूजा कर सकता है अर्थात उनके ‘इष्टदेवता’ के रूप में प्रभु की अर्चना कर सकता है।
- संपूर्ण अस्तित्व और जीवन में एकत्व: ईश्वर हर प्राणी में मौजूद है, चाहे वह बड़ा हो या छोटा। इसलिए, सभी हमारे प्यार और सम्मान का पात्र हैं। ‘ईशा वास्यं इदं सर्वं’ हिंदू धर्म की प्रमुख अवधारणा है।
धर्मग्रंथ तथा प्रस्थान त्रयी
हिन्दू धर्म के अधिकारात्मक स्त्रोतों को दो भागों में विभाजित किया गया है। – (I) श्रुति II) स्मृति
I. श्रुति
श्रुति का शाब्दिक अर्थ है “जो श्रवण किया गया।” वेदों में निहित शाश्वत सत्य महान ऋषियों को विदित हुए थे। ऐसा कहा जाता है कि प्रारंभ में वेद असंख्य थे, अर्थात “अनंत वै वेदाः” कालान्तर में व्यास ऋषि (मुनि) द्वारा उन्हें चार प्रमुख ग्रंथों में सुव्यवस्थित एवं सुलभ किया गया। इन चार ग्रंथों को उन्होंने अपने चार शिष्यों को सिखाया:
- ऋगवेद – पैला को
- यजुर्वेद – वैशंपायन को
- सामवेद – जेमिनी को
- अथर्व वेद – सुमन्त को
ऋषि याज्ञवल्क्य यजुर्वेद के एक अन्य प्रवक्ता थे। सूर्य देवता ने उन्हें इस ग्रंथ का ज्ञान दिया था। यह ग्रंथ शुक्ल यजुर्वेद कहलाता है। व्यास ऋषि द्वारा वैशंपायन को पढ़ाया गया द्वितीय ग्रंथ, कृष्ण यजुर्वेद कहा जाता है।
प्रत्येक वेद के तीन मुख्य विभाजन हैं।
- संहिता या मंत्र
- ब्राह्मण
- अरण्यक
‘ब्राह्मण’ अधिकतर गद्य रचना है, जिसमें संहिता की व्याख्या है तथा यज्ञ एवं धार्मिक विधियों का विस्तृत वर्णन है।
अरण्यक या उपनिषद ऋषियों के उच्चतम दार्शनिक एवं ध्यानयुक्त चिंतन हैं।
प्रत्येक वेद को उसकी विषय वस्तु के आधार पर पुनः मुख्य तीन भागों में विभाजित किया गया है। संहिता जिसमें मंत्र हैं, तथा ब्राह्मण जिनमें इन मंत्रों की विस्तृत व्याख्या है कर्मकाण्ड में रखा गया है। अर्थात वह भाग जो सद्कर्मों को प्रस्तुत करता है। अरण्यक का एक भाग उपासना काण्ड में सम्मिलित किया गया है तथा उपनिषदों को ज्ञानकाण्ड माना गया है। यह उच्चतम ज्ञान की चर्चा करने वाला भाग है। इन उपनिषदों में से अत्यधिक महत्वपूर्ण उपनिषद हैं:
1. ईशोपनिषद, 2. केन्योपनिषद, 3. कठोपनिषद, 4. प्रश्नोपनिषद, 5. मुंडकोपनिषद, 6. माण्डूक्योपनिषद, 7. ऐतरेय उपनिषद, 8. तैत्तरीय उपनिषद, 9. छान्दोग्योपनिषद, 10. बृहदारण्यक उपनिषद |
II. स्मृति
ये गौण शास्त्र हैं और इनमें सम्मिलित हैं –
- मनु, याज्ञवल्क्य और पाराशर द्वारा दी गई स्मृतियाँ या नियमों की संहिताएँ या धर्म शास्त्र। इनमें सभी वर्गों के पुरुषों के लिए जीवन के कर्त्तव्यों के बारे में निर्देश हैं।
- रामायण और महाभारत जैसे ऐतिहासिक महाकाव्य।
- पुराण जो संख्या में 18 हैं और किंवदंतियों से युक्त हैं, विष्णु के अवतार हैं। सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय पुराण विष्णु पुराण और भागवत पुराण हैं।
- आगम या पूजा नियमावली।
- दर्शन या दर्शन शास्त्र की शिक्षाएँ।
दर्शन की 3 प्रणालियाँ हैं –
- द्वैत के अनुसार (जैसा कि माधवाचार्य ने बताया है) – इस दर्शन के अनुसार, जीव (व्यक्ति) ईश्वर से पृथक है। व्यक्तिगत आत्मा को भगवान की आराधना और पूजा से आनंद मिलता है, जो उसे पूर्ण कृपा का आशीर्वाद देते हैं।
- अद्वैत (जैसा कि शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित किया गया है) – यहाँ यह माना जाता है कि संपूर्ण ब्रह्मांड एक है और इस ब्रह्मांड में व्याप्त समस्त विभिन्न रूपों में स्वयं को प्रकट करने वाला भी एक है। यह मूल रूप से सिखाता है कि सभी में एक ही दिव्यता विद्यमान है। किसी दूसरे को पीड़ा न पहुंँचाएंँ क्योंकि ऐसा करने से आप खुद को नुकसान पहुंँचाते हैं। सभी को अपने समान प्रेम करो।
- विशिष्टाद्वैत (जैसा कि रामानुज द्वारा दिया गया है) – शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद कई लोगों को स्वीकार नहीं हुआ। वे अपने ईश्वर के साथ एक होने के सत्य को समझ नहीं पाए। इसलिए, रामानुजाचार्य ने विशिष्ट अद्वैत या योग्य गैर-द्वैतवाद को प्रतिपादित किया। यहांँ बताया गया कि भक्ति के मार्ग पर चलकर मनुष्य ईश्वर से मिल सकता है। इसमें वेदांत दर्शन की श्रेणीबद्ध व्याख्याएंँ हैं। सभी शास्त्रों में, उपनिषद, ब्रह्म सूत्र और भगवद गीता सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं व्यापक, आधिकारिक ग्रंथ माने जाते हैं और उन्हें प्रस्थानत्रय कहा जाता है। वे हमारे मार्ग को प्रकाशित करते हैं और हमें इस भव सागर को सुरक्षित रूप से पार करने में मदद करते हैं।
इसमें वेदांत दर्शन की श्रेणीबद्ध व्याख्याएंँ हैं। सभी शास्त्रों में, उपनिषद, ब्रह्म सूत्र और भगवद गीता सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं व्यापक, आधिकारिक ग्रंथ माने जाते हैं और उन्हें प्रस्थानत्रय कहा जाता है। वे हमारे मार्ग को प्रकाशित करते हैं और हमें इस भव सागर को सुरक्षित रूप से पार करने में मदद करते हैं।
सनातन आचार नीति एवं कर्तव्य संहिता
नैतिक शुद्धता के बिना, मनुष्य आध्यात्मिक पथ में प्रवेश और प्रगति नहीं कर सकता। महान ऋषियों ने जीवन के चार मुख्य लक्ष्य निर्धारित किए हैं। वे चार ‘पुरुषार्थ’ कहलाते हैं –
- धर्म- सही आचरण
- अर्थ – धन
- काम – इच्छा
- मोक्ष – मुक्ति
धन (अर्थ) प्राप्त करते समय और अपनी आवश्यकताओं तथा इच्छाओं (काम) को पूरा करते समय मनुष्य का कार्य धर्म के सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए। मनुष्य को हमेशा याद रखना चाहिए कि जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति प्राप्त करना है। अनुचित तरीकों से अर्जित किया गया धन अर्थात धर्म विहीन संपत्ति, सच्चा धन नहीं है और अंततः दुख की ओर ले जाएगा। उचित साधनों से अर्जित धन से ही सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है।
संपत्ति एवं भव्य भवन वास्तविक धन नहीं हैं। यथार्थ धन चरित्र है। धर्म उन लोगों की रक्षा करता है जो इसका अभ्यास करते हैं। उन्होंने जीवन की चार अवस्थाओं के लिए कर्त्तव्य भी निर्धारित किए –
- ब्रह्मचर्याश्रम: विद्यार्थी अवस्था। बाल्यावस्था और यौवन का यह पड़ाव ही जीवन का आधार होता है। इस चरण को ज्ञान और संस्कृति के अधिग्रहण, चरित्र के परिष्कार और स्वस्थ शरीर के विकास के लिए समर्पित होना चाहिए।
- गृहस्थाश्रम: गृहस्थ की अवस्था। इस काल में न केवल स्वयं की और परिवार की उन्नति पर ध्यान देना होता है, बल्कि समाज की उन्नति पर भी लक्ष्य केंद्रित करना होता है।
- वानप्रस्थाश्रम: सांसारिक जीवन से वन (एकांत) की ओर जाना। इसका अर्थ है सांसारिक गतिविधियों से संन्यास लेना और स्वयं को आध्यात्मिक गतिविधियों में लगाना।
- संन्यासाश्रम: पूर्ण त्याग की अवस्था।
वर्ण व्यवस्था समाज के सामान्य हित के लिए श्रम का सहकारी विभाजन था। इस व्यवस्था के अंतर्गत समाज में चार वर्णों का विभाजन किया गया था –
- ब्राह्मण – ब्राह्मण समाज के आध्यात्मिक संरक्षक माने गए, उदा. पुजारी।
- क्षत्रिय – ये समाज के भौतिक संरक्षक कहलाये, उदा. राजा, ठाकुर और राजकुमार।
- वैश्य – लोगों की व्यावसायिक आवश्यकताओं की देखभाल करने वाले वैश्य कहलाते हैं, जैसे किसान, व्यापारी और विक्रेता। .
- शूद्र – इस श्रेणी के व्यक्ति विशेष रूप से शारीरिक कार्य को करने वाले, बाहुबल, एवं शक्ति से परिपूर्ण होते हैं, उदा. सफाईकर्मी, सफाई कर्मचारी। वे शारीरिक श्रम से समाज को अपना योगदान देते हैं।
प्रत्येक वर्ग द्वारा किया गया कार्य महत्वपूर्ण था। कोई काम ऊंँचा या नीचा नहीं होता। स्वार्थी पुरुषों द्वारा अस्पृश्यता का प्रचार प्रसार किया गया था। ईश्वर की दृष्टि में सभी समान हैं। अस्पृश्यता हिंदुओं के धर्म पर एक कलंक है।
स्वामी कहते हैं, “केवल एक जाति है, मानवता की जाति।”
जीवन की प्रत्येक स्थिति में प्रत्येक कर्त्तव्य सत्य, धर्म, शांति, प्रेम और अहिंसा के महत्वपूर्ण गुणों द्वारा अनुप्रेरित होना चाहिए।
कर्म का नियम एवं पुनर्जन्म का सिद्धांत
यह हिन्दू धर्म की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। कर्म का अर्थ है क्रिया या कार्य और उसका परिणाम। “मनुष्य जैसा बोएगा, वैसा ही काटेगा।” हमारा हर विचार, वचन और कर्म न्याय के तराजू पर तौला जाता है और उसका अच्छा या बुरा परिणाम हमें अभी या अगले जन्म में भुगतना पड़ता है। अच्छे कर्मों से शांति मिलती है और पाप के बाद दुख प्राप्त होता है।
कर्म 3 प्रकार के होते हैं:
- प्रारब्ध कर्म: मनुष्य के संचित कर्म जिनका फल उसे वर्तमान जीवन में मिलता है। इससे बचा नहीं जा सकता।
- संचित कर्म: मनुष्य के पिछले सभी जन्मों के कर्मों को संचित कर्म नाम दिया गया है, जिसने उसके वर्तमान चरित्र को निर्धारित किया है।
- आगामी (या क्रियमाण) कर्म: वह कर्म जो अभी वर्तमान जीवन में बना है और जिसका फल हमें भविष्य में मिलेगा।
एक सरल उदाहरण है जो इसे समझाता है: एक अन्न भंडार में भंडारित अनाज संचित कर्म, पिछले जन्मों के संचित कर्म का प्रतिनिधित्व करता है। हमारे वर्तमान उपयोग के लिए अन्न भंडार से लिया गया अनाज का हिस्सा, हमारे वर्तमान जीवन के लिए जिम्मेदार प्रारब्ध कर्म का प्रतिनिधित्व करता है। वर्तमान फसल जो उगती है वह हमारा वर्तमान या क्रियमाण कर्म है जो वापस अन्न भंडार में डालने पर संचित कर्म बन जाता है।
यदि हम ईश्वर को पूर्ण समर्पण करते हैं और अपने कर्म के फल की अपेक्षा किए बिना सब कुछ भगवान की पूजा के रूप में करते हैं, तो कर्म का नियम हमें बंधन में नहीं डालता। इस तरह के कर्म को निष्कामकर्म या कर्म योग कहा जाता है। ऐसा भक्त हमेशा भगवान द्वारा संरक्षित होता है और जीवन के कष्टों को कभी महसूस नहीं करता है तथा जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। ‘इदं न मम’। हमारी सभी गतिविधियों में “ईश्वरार्पणम” हमारा दृष्टिकोण होना चाहिए।
बाबा कहते हैं, “सुख और दुख आपके अपने अच्छे और बुरे कर्मों के परिणाम हैं। पहले इस सत्य को पहचानें। फिर अच्छे विचारों, शब्दों और कर्मों में संलग्न होकर एक अच्छा जीवन और अच्छा पुनर्जन्म प्राप्त करें। हम जो बोते हैं वही काटते हैं – न कम न ज्यादा। ऐसा कहने के बाद, ध्यान रखें: आपके बुरे कर्मों का ढेर कितना भी बड़ा क्यों न हो, अगर आप अपने दिल की गहराई से निकलने वाली सच्ची भावना के साथ भगवान से प्रार्थना करते हैं, तो सभी कर्म ऐसे लुप्त हो जाते हैं, जैसे गर्मी से बर्फ। अतएव, सबसे महत्वपूर्ण बात जो हमें करनी है वह है ईश्वर की कृपा अर्जित करने का प्रयास करना।
अवतार की अवधारणा: सनातन धर्म की अनूठी विशेषताओं में से एक है अवतार की अवधारणा। यह शब्द ‘अवतरण’ से बना है जिसका अर्थ है ‘उतरना’।
भगवद गीता में, भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जब भी धर्म का पतन होता है, भगवान धर्म की रक्षा के लिए बार-बार मानव रूप में आते हैं। सभी पैगम्बरों, संतों, ऋषियों को भगवान का अवतार कहा जा सकता है जो धर्म के पुनरुत्थान के लिए पृथ्वी पर आए थे। हिंदू धर्म आमतौर पर विष्णु के 10 अवतारों में विश्वास करता है –
1. मत्स्य 2. कूर्म 3. वराह 4. नरसिंह 5. वामन 6. परशुराम 7. श्री राम 8. कृष्ण 9. बुद्ध 10. कल्कि।
बाबा कहते हैं, “जब कोई बच्चा रोता है, तो उसकी माँ झुक कर उसे उठा लेती है। इसी तरह, मानव जाति के प्रति अपने प्रेम और स्नेह के कारण, भगवान मनुष्य को दैवत्व तक पहुँचाने के लिए मानवीय तल पर अवतरित होते हैं।”
पूर्ण अवतार में हम इन दैवीय गुणों का अनुभव कर सकते हैं – ऐश्वर्याम (सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता), ज्ञान (पूर्ण ज्ञान), धर्म (धार्मिकता), श्री (समृद्धि और महिमा), यश (अविभाजित प्रसिद्धि) और वैराग्य (पूर्ण विरक्ति)।
हिंदू अनुष्ठान
अनुष्ठान या संस्कार सभी धर्मों की आवश्यक विशेषताएंँ हैं। वे हमें मन तथा हृदय को शुद्ध करने एवं हमारे दृष्टिकोण को आध्यात्मिक बनाने में मदद करते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य को विभिन्न संस्कारों से गुजरना पड़ता है। सबसे महत्वपूर्ण संस्कार हैं:-
- बचपन में जातकर्म और अक्षराभ्यास।
- बाल्यकाल में उपनयन- यह गायत्री मंत्र की दीक्षा का संस्कार है। इसके अंतर्गत बालक को एक गुरू द्वारा शिष्य के रूप में स्वीकार किया जाता है, जो उसे आध्यात्मिक ज्ञान देते हैं।
- पाणिग्रहण संस्कार अथवा विवाह- यह संस्कार पवित्र अग्नि के समक्ष संपन्न किया जाता है, जिसमें पुजारी मंत्रों का जप करते हैं। पवित्र अग्नि, वर – वधू के बीच पवित्र बंधन की साक्षी होती है। अपने गृहस्थ जीवन के अतिरिक्त वे आध्यात्मिक पथ के भी सह-यात्री हैं और उन्हें आध्यात्मिक उन्नति के लिए मिलकर प्रयास करना है।
प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन कुछ न कुछ संस्कार करने होते हैं। ये संध्या वंदन, पंच यज्ञ आदि हैं।
पंच महा यज्ञ
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा समाज में रहता है। वह अपने दैनिक जीवन निर्वाह के लिए प्रकृति पर निर्भर है। अपने जन्म और प्रारंभिक पालन-पोषण के लिए वह अपने माता-पिता पर निर्भर है। उसकी देह, हवा, पानी, धूप, भोजन और हजारों दैनिक आवश्यकताएंँ भगवान की रचना का उपहार हैं। ईश्वर, माता-पिता, गुरू एवं साथी प्राणियों के प्रति मनुष्य के कुछ कर्त्तव्य और दायित्व हैं। मनुष्य द्वारा उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के उद्देश्य से तथा अज्ञानवश उसके द्वारा सृष्टि को हानि पहुँचने का प्रायश्चित करने के लिए उसे निम्नलिखित पाँच यज्ञ करने होते हैं।
वे पंच महा यज्ञ हैं:
- ब्रह्म (या ऋषि) यज्ञ: शास्त्रों और पवित्र ग्रंथों का अध्ययन करना और उनमें निर्धारित अनुशासनों को अभ्यास में लाना।
- देव यज्ञ: देवताओं या इष्टदेवता की पूजा करना।
- पितृ यज्ञ: पूर्वजों का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण और उनकी आत्माओं को तर्पण करना। इसमें हमारे माता-पिता की देखभाल करना और उनके कल्याण के कार्य करना भी शामिल है।
- भूत यज्ञ: पशु-पक्षियों को दाना डालना।
- मनुष्य यज्ञ: मेहमानों एवं जरूरतमंद लोगों को आतिथ्य और भोजन देना।
पूजा का विधान
पूजा हमें ईश्वर के साथ संबंध और संवाद स्थापित करने में मदद करती है। शुरुआत में हम भगवान को अपने से बाहर के रूप में पूजते हैं। धीरे-धीरे यह हमारे हृदय में स्थापित भगवान की पूजा के रूप में परिवर्तित हो जाता है एवं तत्पश्चात् हम सर्वव्यापी आत्मा की पूजा करने में सक्षम हो जाते हैं। साधारणतया मूर्ति पूजा 16 स्तरों पर (षोडशोपचार) होती है और इसमें शामिल हैं:
- ध्यान: अपने मन को एकाग्र करना
- आवाहनम्: आवाहन (पुकारना या आमंत्रित करना)
- सिंहासनम्: सिंहासन या आसन अर्पित करना
- पद्यम्: पैर धोना
- अर्घ्यम्: अर्पित करना
- स्नानम्: पवित्र स्नान करना
- वस्त्रम: वस्त्र अर्पित करना
- यज्ञोपवीतम्: जनेऊ धारण करना
- चंदनम: चंदन का लेप चढ़ाना
- पुष्पम्: पुष्प अर्पित करना
- धूपम्: अगरबत्ती जलाना
- दीपम्: दीपक जलाना
- नैवेद्यम्: भोग लगाना
- ताम्बुलम्: पान के पत्ते चढ़ाना
- निरांजनम्: दीपक ज्योति
- सुवर्ण पुष्पम्: आभार के प्रतीक के रूप में सोने या अन्य मूल्यवान वस्तु अर्पित करना।
ये अनुष्ठान हमें प्रभु की रचना के प्रत्येक अंश तथा कण में भगवान को देखने के लिए एक दृष्टि व भावना उत्पन्न करने में सहायक होते हैं तथा हमारे हृदय को व्यापक बनाते हैं जिससे हम ईश्वर द्वारा बनाई गई हर चीज से प्रेम और सम्मान करना सीखते हैं।
हिन्दू साधना
वैदिक धर्म लक्ष्य को निर्धारित कर, साधना का पथ प्रदर्शित करता है। साधना के तीन प्रमुख पथ बतलाये गये हैं-
- कर्म मार्ग
- भक्ति मार्ग
- ज्ञान मार्ग
I. कर्म योग:
अपने आप को पूरे मन से भगवान को समर्पित करना और कर्म के फल की अपेक्षा किए बिना, भगवान की पूजा के रूप में सब कुछ करना कर्म योग है। इस प्रकार के कर्म को निष्काम कर्म कहा जाता है। ऐसा भक्त हमेशा भगवान द्वारा संरक्षित रहता है तथा जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होता है।
II.भक्ति योग:
इस मार्ग में हम अपनी श्रद्धा के अनुरूप ईश्वर के किसी भी रूप की आराधना कर सकते हैं। नौ प्रकार के भक्ति मार्ग हैं जिन्हें नवधा भक्ति कहा जाता है:
- श्रवणम : भगवान की लीलाओं को सुनना। उदा. परीक्षित।
- कीर्तनम : ऋषि नारद की तरह भगवान की महिमा का गान करना।
- विष्णु स्मरणम् : प्रह्लाद के समान सदैव प्रभु का स्मरण करना।
- पादसेवनम: देवी लक्ष्मी की तरह भगवान के चरणों की सेवा करना – हमेशा भगवान के चरणों से जुड़ा रहना। हम उसकी सारी सृष्टि में उसका स्वरूप देखते हैं और जरूरतमंदों की सेवा करते हैं।
- अर्चनम: भगवान की सतत पूजा आराधना करना। जैसे भरत ने श्री राम की पादुकाओं की अर्चना की।
- वंदनम: भगवान को अपना विनम्र नमस्कार अर्पित करना। उदाहरण- अक्रूर की भक्ति।
- दास्यम: हनुमान की तरह लगातार भगवान की सेवा करना। साथ ही अपने साथ के लोगों की विनम्रता पूर्वक सेवा सहायता करना।
- साख्यम्: अर्जुन के समान भगवान के साथ प्रगाढ़ मित्रता की भावना से संयुक्त होना।
- आत्मनिवेदनम: राधा की तरह भगवान के सामने पूर्ण आत्मसमर्पण कर देना।
इसके अतिरिक्त भक्ति के पाँच भाव हैं शांत, वात्सल्य, दास्यम, सख्य, और माधुर्य। जो भगवान के प्रति लगाव पर निर्भर करते हैं।
III. ज्ञान योग:
शास्त्र घोषणा करते हैं कि ‘तत् त्वं असि’ ‘तुम वह हो’। इस सर्वोच्च सत्य की घोषणा करने वाले 4 महावाक्य हैं-
- प्रज्ञानं ब्रह्म: परम चेतना ब्रह्म है।
- तत् त्वं असि: आप वह (ईश्वर) हैं।
- अयं आत्मा ब्रह्मः मेरे भीतर की आत्मा ईश्वर है।
- अहम् ब्रह्मास्मि : ‘मैं ईश्वर हूंँ’।
प्रथम दो महावाक्य, निर्देशात्मक आदेश के माध्यम से गुरू (जो पहले से ही ईश्वर के साथ अपने तादात्म्य का अनुभव कर चुके हैं) द्वारा शिष्य को की गई घोषणा है। तीसरा महावाक्य, शिष्य के लिए अभ्यास करने सोचने और विचार करने के लिए है और चौथा दैवत्व का अनुभव करने के बाद शिष्य का विस्मयादिबोधक महावाक्य है। इसे अनुभव वाक्य कहते हैं। ज्ञान मार्ग, इस सत्य को समझने के लिए कि हम भगवान हैं, ध्यान पर जोर देता है।
ऋषि याज्ञवल्क्य ने अपनी पत्नी मैत्रेयी को बताया दिया कि व्यक्ति इन महावाक्यों की यथार्थता का अनुभव निम्नलिखित माध्यमों से कर सकता है:
- श्रवणम: महावाक्य को सुनना।
- मननम: सुनी हुई बात के अर्थ पर विचार करना।
- निदिध्यासन: सत्य का अनुभव करने के लिए एकाग्र मन से खोजबीन करना।
इससे पहले कि हम सत्य की खोज करें, हमारे हृदयों को शुद्ध किया जाना चाहिए तथा उन सभी के जिज्ञासुओं के लिए प्रारंभिक अनुशासन साधनाचतुष्टय है जो परमपिता परमेश्वर को महसूस करना चाहते हैं। वे चार अनुशासन हैं 1. विवेक 2. वैराग्य 3. षट्संपत 4. मुमुक्षुत्व।
सभी साधनाओं का उद्देश्य मनुष्य के संपूर्ण अस्तित्व को शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से ईश्वर की प्राप्ति के लिए प्रशिक्षित करना है जो सभी धर्मों का सार तथा आधार है। सनातन धर्म, सर्वात्मा-भव/एकात्म्य पर जोर देता है। व्यक्ति को न केवल अपने लिए बल्कि पूरे समाज की भलाई के लिए काम करना चाहिए। समस्त लोका सुखिनो भवन्तु हिंदू प्रार्थना है। एक अन्य प्रार्थना – सर्वे वै सुखिन: सन्तु, सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दु:खमापनुयात, समान भावना को प्रगट करती है।
हिंदू धर्म एक सहिष्णु धर्म है जो दूसरों और उनके विचारों को स्वीकार करता है और उनका सम्मान करता है। यह सार्वभौमिक भलाई चाहने वाला धर्म है। संक्षेप में, हिंदू धर्म के मुख्य सिद्धांत हैं –
- ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा के रूप में विद्यमान है। इसलिए वही आत्मा सभी प्राणियों को ईश्वर (ब्रह्म) से जोड़ती है। ईश्वर हर चीज में और हर जगह मौजूद है।
- सुख और दुख हमारी अपनी रचना है और यह हमारे कर्मों पर आधारित है जो हम करते हैं।
- मनुष्य का बार-बार पुनर्जन्म होता है जब तक कि वह अंततः मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेता।
- ईश्वर, धर्म की स्थापना करने एवं मानव जाति को सही मार्ग पर चलाने के लिए बार-बार पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
- सभी मार्ग ईश्वर की ओर ले जाते हैं। ईश्वर प्राप्ति ही मानव जीवन का लक्ष्य है। धर्म हमें इस सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करता है।