कर्मयोग
कर्मयोग
मनुष्य को अपने नियत कर्त्तव्यों का सम्पादन फल की इच्छा रखे बिना करना चाहिए। यसोगः कर्मसु कौशलम् अर्थात् पूर्ण कौशल से अपनी योग्यता के अनुसार श्रेष्ठतम तरीके से कर्म करना ही योग है। कर्मयोगी अपना हर कर्म अहं भाव से रहित हो करता है। उसमें पूर्ण वैराग्य होता है। वह अपना कर्म और उसका फल दोनों ही ईश्वर के श्रीचरणों में अर्पित कर देता है। वह सदैव कार्यरत रहता है, ऐसे कार्यों में व्यस्त रहता है। जिनसे समाज का कल्याण हो।
दृष्टान्त
यह महाभारत में वर्णित कहानी ही है। आध्यात्मिक जीवन के प्रति समर्पित एक जिज्ञासु ब्राह्मण, अपने माता-पिता तथा अपने घर का परित्याग कर संन्यासी बन गया। वह एक गाँव की सीमा पर स्थित वन में रहता था। वह प्रतिदिन प्रातः काल ध्यान करता और दोपहर को भिक्षा लेने गाँव में चला जाता था।
एक दिन बात है, वह संन्यासी एक वृक्ष की छाया में बैठा ध्यान कर रहा था। दोपहर हो चली थी। वह उठकर गाँव में भिक्षाटन के लिए जाना ही चाहता था, कि उस पर किसी पक्षी की बीट गिरी। उसने क्रोधित होकर ऊपर की ओर देखा तो पाया कि उसके ऊपर की डाल पर एक पक्षी बैठा है। जैसे ही संन्यासी की क्रोध भरी दृष्टि उस पर पड़ी, वह मरकर नीचे गिर पड़ा और भस्मीभूत हो गया। ब्राह्मण अपनी इस नई सिद्धि को देखकर अचम्भित था और उसे स्वयं पर गर्व भी महसूस हुआ, उसने स्वयं से कहा कि मेरे शरीर को अपवित्र करने वाली इस नीच चिड़िया को यही दण्ड मिलना चाहिए था।
अभी-अभी उत्पन्न गर्व एवं मिथ्याभिमान के साथ वह एक गाँव में पहुँचा। एक घर के सामने जाकर उसने भिक्षा मांँगी। घर के भीतर से ही गृहिणी ने उत्तर दिया, “कृपया, प्रतीक्षा करें।” काफी समय बीत गया, परन्तु वह महिला घर के बाहर आकर मिक्षा देती दिखाई नहीं दी। वह संन्यासी अशांत और अधीर हो सोचने लगा, “यह अज्ञानी महिला नहीं जानती कि मेरे जैसे महान् तपस्वी का सम्मान कैसे करना चाहिए ?” शीघ्र ही उसकी खीझ क्रोधोन्माद में बदल गई तथा वह अपनी शक्ति का एक और प्रदर्शन करने के लिए उसे श्राप देने को तैयार हो गया। उसी समय उस गृहिणी ने घर के भीतर से ही अनुद्विग्न शान्त स्वर में संन्यासी को संबोधित कर कहा, “हे, ब्राह्मण मैं कोई क्रौंच पक्षी नहीं हूँ, कि आपकी क्रोधाग्नि में भस्म हो जाऊँ। कृपया, प्रतीक्षा करें मैं अपने पति की सेवा कर रही हूँ। उनका सेवाकार्य समाप्त करने के बाद ही मैं आपको भिक्षा दे पाऊँगी।” वह संन्यासी विस्मित हो स्तब्ध रह गया, कि भला इस महिला को मेरे मन की बात कैसे पता चली ? कैसे उसने इतनी दूर जंगल में घटी घटना को जाना ? अन्ततः वह महिला भिक्षा हाथ में लिए हुई बाहर आई और बोली, “क्षमा करें, आपको प्रतीक्षा करनी पड़ी। परन्तु मैं असहाय थी। मैं अपने पति को भोजन करा रही थी। पति की सेवा करना एक गृहिणी का प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है।”
ब्राह्मण का घमंड चूर-चूर हो गया। लज्जित हो उसने उस गृहिणी से विनती की, आप पहले यह बताइए कि आपने किस विधि से इतना उच्च कोटि का ज्ञान प्राप्त किया है, कि आप मुझे भी शिक्षा दे पाईं। गृहिणी ने उत्तर दिया, “मैं एक अनपढ़ साधारण गृहिणि हूँ। मेरे लिए अपने पति के प्रति मेरे कर्त्तव्य ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। इन कार्यों को मैं मन लगाकर पूर्ण समर्पण भाव से करती हूँ। यही मेरी साधना है। इसके अलावा मैं आपको और कुछ भी बताने में समर्थ नहीं हूँ। परन्तु यदि आप उच्च आध्यात्मिक सत्य का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, तो मैं आपको सलाह दूँगी कि आप मिथिलापुर निवासी धर्म व्याध के पास जाएँ। वे व्यवसाय से कसाई हैं और मिथिला की किसी गली में उनकी दुकान है।”
ब्राह्मण मिथिलापुरी पहुँचा और पता पूछ्ते-पूछते अंततः वह धर्म व्याघ की दुकान पर पहुँच गया। कैसा घृणित स्थान था वह, उसने देखा कि धर्म व्याध ग्राहकों से तोलमोल कर रहा है और मांस काटकर बेच रहा है। ब्राह्मण किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो सोच रहा था कि उस गृहिणी ने मुझे आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह किस स्थान पर, कैसे व्यक्ति के पास भेज दिया है? उसी समय अपना कार्य करते-करते व्याध ने ब्राह्मण पर सरसरी निगाह डाली और कहा, “हे श्रद्धेय आईये और इस चौकी पर बैठ जाइए। मैं शीघ्र ही अपना यह कार्य समाप्त कर लूंँगा। उन माता ने आपको मेरे पास भेजकर बहुत कष्ट दिया है। मैं अपना कार्य समाप्त कर लूँ तो हम दोनों घर चलते हैं।” यह सुनकर वह ब्राह्मण स्तंभित रह गया। उसने सोचा, “लगता है यह कसाई सर्वज्ञाता है, यह मेरे बारे में सब कुछ जानता है।”
काम खत्म कर वे घर पहुँचे। व्याध ने ब्राह्मण को एक आरामदेह आसन पर बैठाया। फिर वह अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा करने में व्यस्त हो गया। उन्हें भोजन कराया तथा उनके विश्राम की व्यवस्था की। इसके बाद उसने ब्राह्मण को फल, दूध आदि खाने को दिया। इसके बाद ब्राह्मण और व्याध में आध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा प्रारंभ हुई।
ब्राह्मण व्याध से गूढ़ ज्ञान की चर्चा सुन आश्चर्यचकित रह गया और चिन्तन करने लगा। “इतनी तपस्या करके मैंने क्या पाया? उस नन्हें से क्रौंच पक्षी को भी बरदाश्त नहीं कर पाया। मैं क्रोध के आधीन हूँ। भिक्षा मिलने में थोड़ा सा भी विलम्ब मुझसे सहन नहीं हुआ। मैं अहंकार का गुलाम हूँ। मेरी तुलना में वह अनपढ़ स्त्री और यह नीच कसाई कहीं अधिक आध्यात्मिक ऊँचाई पर हैं। वे जीवन मुक्त हैं। उन्होंने कर्म योग के माध्यम से अध्यात्म में सर्वोच्च ऊँचाई को प्राप्त कर लिया है। उनके हाथ दैनिक कार्यों में लगे रहते हैं और मन आत्मा में स्थित है। ” जबकि मैं अपने परिवार और माता-पिता के प्रति कर्त्तव्यों की तिलांजलि दे घर से अपने उत्तरदायित्वों से भाग आया। यहाँ मैंने कठिन तपस्या की, परन्तु क्या हासिल हुआ? बस मैं क्रोध और अहंकार का गुलाम बनकर रह गया।
उस गृहिणि के लिए उसका पति ही ईश्वर है, धर्म व्याध के लिए माता-पिता ही ईश्वर हैं। उनके घर ही उनके मंदिर हैं। ब्राह्मण को समझ में आ गया कि कर्म योग की साधना करने मात्र से इन दोनों ने अपना जीवन अति पावन बना लिया है।