पितृत्व

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अध्याय I – पितृत्व

18वीं सदी के मध्य में बंगाल के हुगली जिले के डेरेपुर ग्राम में माणिक राम चट्टोपाध्याय नाम के एक ब्राह्मण रहते थे, जो धर्मपरायण एवं दयालु प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। वे परिवार के मुखिया थे। अपने पास मौजूद पचास एकड़ ज़मीन के साथ, वह अपने परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम थे तथा आपदा के समय गाँव के गरीबों और संकटग्रस्त लोगों की मदद भी करते थे। लगभग 1775 में उन्हें एक पुत्र का आशीर्वाद मिला जिसका नाम खुदीराम रखा गया। बाद में उनके दो और बेटे तथा एक बेटी हुई।

माणिक राम की मृत्यु के पश्चात्, परिवार का पूरा प्रभार उनके सबसे बड़े बेटे, खुदीराम को दे दिया गया, जो एक रूढ़िवादी पारिवारिक परंपराओं में प्रशिक्षित था तथा घर के धार्मिक व धर्मनिरपेक्ष कर्त्तव्यों को निभाने हेतु बिल्कुल उपयुक्त था। खुदीराम चट्टोपाध्याय का विवाह 1799 में चंद्रमणि से हुआ था। वे दोनों अपने संरक्षक देवता श्री रामचंद्र के प्रति असाधारण रूप से समर्पित थे, और जल्द ही उन्होंने अपनी दानशीलता, सच्चाई तथा दयालुता के कारण ग्रामीणों का प्यार, सम्मान और प्रशंसा अर्जित की।

उनके पहले बेटे रामकुमार का जन्म 1805 में और बेटी कात्यायनी का जन्म 1810 में हुआ।

1814 में खुदीराम के जीवन में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना घटी। एक जमींदार ने उसे अपने पड़ोसी के खिलाफ अदालत में झूठी गवाही देने का आदेश दिया था, जिसे करने से उसने इनकार कर दिया। खुदीराम की निष्ठा इतनी निडर थी कि वह सत्य और धर्म के मार्ग से विचलित होने के बजाय अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार थे। उनके अनुरोध को मानने से इनकार करने के कारण जमींदार ने उनके खिलाफ झूठा मामला लाया। इससे उन्हें अपनी पैतृक संपत्ति से वंचित होना पड़ा। इसके कारण अंततः उन्हें अपना पैतृक घर हमेशा के लिए छोड़ना पड़ा। दरिद्र और बेघर, खुदीराम ने डेरेपुर छोड़ दिया और पड़ोसी गांँव कामारपुकुर को अपना नया निवास स्थान बना लिया।

अपने एक मित्र की कृपा से, उन्हें कामारपुकुर में लगभग एक एकड़ बहुत उपजाऊ ज़मीन मिली, जो परिवार की साधारण ज़रूरतों को पूरा करती थी। खुदीराम ने इस गाँव के शान्त वातावरण के बीच अपना जीवन नए सिरे से शुरू किया तथा जल्द ही अपने पड़ोसियों का सम्मान प्राप्त कर लिया।

एक दिन, पड़ोस के गांँव से लौटते समय, खुदीराम को धान के खेत में अजीब तरह से अपने संरक्षक देवता रघुवीर (शालिग्राम) का प्रतीक मिल गया। वह उसे घर ले आया और अपने ईष्ट के रूप में उसकी पूजा करने लगा। खुदीराम और चंद्रमणि ने अपने अनुकरणीय जीवन, अपने प्रिय देवता के प्रति अटूट भक्ति तथा मदद और सहायता मांँगने उनके दरवाजे पर आने वाले सभी लोगों के प्रति दयालुता से ग्रामीणों पर गहरा प्रभाव डाला।

कामारपुकुर जाने के छह साल बाद, खुदीराम ने अपने बेटे रामकुमार तथा बेटी कात्यायिनी का विवाह किया।

इस बीच, रामकुमार हिंदू विद्या में काफी निपुण हो गए थे और मंदिर के पुजारी के रूप में सेवा करके और अपनी आजीविका अर्जित करके अपने पिता के परिवार के बोझ को कुछ हद तक कम करने में सक्षम थे। खुदीराम के पास अब खुद को धार्मिक प्रथाओं के लिए समर्पित करने के लिए अधिक समय था।

वर्ष 1824 में वह दक्षिण भारत के रामेश्वरम तक पैदल यात्रा पर निकले, जो लगभग एक वर्ष तक चली। बारह महीने बाद, 1826 में, उनकी पत्नी चंद्रा ने अपने दूसरे बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम तीर्थस्थल के आधार पर रामेश्वर रखा गया।

ग्यारह वर्ष पश्चात्, 1835 में, खुदीराम एक और तीर्थयात्रा पर गए, इस बार गया। यहांँ, पवित्र दर्शन के बाद, उन्हें रात में एक अजीब दृश्य दिखाई दिया। उन्होंने सपना देखा कि वह विष्णु के मंदिर में हैं, जहांँ उनके पूर्वज उनके द्वारा चढ़ाए गए पवित्र प्रसाद पर दावत कर रहे थे। अचानक दिव्य प्रकाश पुंज ने मंदिर के पवित्र परिसर को भर दिया, और दिवंगत लोगों की आत्माएंँ सिंहासन पर बैठी दिव्य उपस्थिति को श्रद्धांजलि देने के लिए अपने घुटनों पर गिर गईं। दीप्तिमान ने खुदीराम को इशारा किया, वो पास आये, उसके सामने झुक गये और उस तेजस्वी व्यक्ति को यह कहते हुए सुना, “मैं तुम्हारी सच्ची भक्ति से प्रसन्न हूंँ। मैं तुम्हारी कुटिया में जन्म लूंँगा और तुम्हें अपने पिता के रूप में स्वीकार करूंँगा।”

खुदीराम खुशी से रोमांचित हृदय के साथ जाग उठे। वह समझ गये कि एक दिव्य प्राणी बहुत जल्द उनके परिवार को आशीर्वाद देगा।

लगभग उसी समय चंद्रमणि को भी कामारपुकुर में अजीब सपने आ रहे थे। एक रात उसने स्वप्न देखा कि उसके पति के समान ही एक तेजस्वी पुरुष उसके पास लेटा हुआ है। एक और दिन, अपने घर से सटे शिव मंदिर के सामने धानी (एक ग्रामीण लोहार महिला) के साथ खड़े होने पर, चंद्रमणि ने देखा कि भगवान शिव की छवि से दिव्य तेज की एक उज्ज्वल किरण निकली और उसमें प्रवेश कर गई। इसके कारण चंद्रमणि अचेत होकर जमीन पर गिर पड़ी। धानी ने उसकी देखभाल की और उसे वापस होश में लाया, लेकिन उस समय से चंद्रमणि को ऐसा महसूस होने लगा कि वह निकट भविष्य में माँ बनने वाली है। खुदीराम के कामारपुकुर लौटने पर, चंद्रमणि ने अपनी विशिष्ट सादगी के साथ यह घटना अपने पति को सुनाई। किन्तु खुदीराम, जो पहले ही गया में विचित्र दर्शन देख चुके थे, अब पूरी तरह से आश्वस्त थे कि उन्हें जल्द ही एक दिव्य बच्चे का आशीर्वाद मिलने वाला है। उन्होंने उसे सलाह दी कि वह अपने स्वप्न के बारे में किसी से बात न करे। चंद्रमणि को बहुत सांत्वना मिली, और उन्होंने रघुवीर की इच्छा पर सब कुछ छोड़कर अपने दिन व्यतीत किए।

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