रामदास का संघर्ष और दीक्षा

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रामदास का संघर्ष और दीक्षा

रामदास ने चिंताओं एवं पीड़ा से भरी इस दुनिया में अत्यंत संघर्ष किया। यह उनके जीवन का भयानक तनाव और बेचैनी का दौर था। “कहां है राहत? आराम कहाँ है?” रामदास का दिल पुकार उठता था। उनकी तड़प भरी पुकार सुनकर महान शून्य से आवाज आई, “निराशा नहीं! मुझ पर विश्वास करो और तुम स्वतंत्र हो जाओगे!” श्रीराम के ये उत्साहजनक शब्द प्रचंड समुद्र की तूफानी लहरों में अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे व्यक्ति की ओर फेंके गए तख्ते की तरह साबित हुए। इस दैवी आश्वासन ने प्यासी धरती पर हल्की बारिश की तरह असहाय रामदास के दर्द को शांत कर दिया। तब से, उस समय का एक हिस्सा जो पहले पूरी तरह से सांसारिक मामलों के लिए समर्पित था, राम के ध्यान के लिए रखा गया, जिन्होंने उस अशांत समय में उन्हें वास्तविक शांति और राहत दी थी। धीरे-धीरे, शांति के दाता प्रभु राम के लिए, रामदास के मन में प्रेम बढ़ता गया। रामदास जितना अधिक ध्यान और उनका नाम जपते थे, उन्हें उतनी ही अधिक शांति और आनंद का अनुभव होता था। रात्रि काल में सांसारिक इच्छाओं से मुक्त होकर, मात्र एक या दो घंटे विश्राम कर, रामदास, रामभजन में लीन हो जाते। राम के लिए उनकी भक्ति ऊँचाइयों को छूने लगी।

दिन के समय, जब धन एवं अन्य समस्याओं के कारण चिंताएँ उन्हें घेरतीं, राम अप्रत्याशित तरीके से उनकी सहायता के लिए आ रहे थे। तो, सांसारिक दायित्वों में से जो भी समय उन्हें मिलता, उसका एक एक क्षण वे राम भजन तथा ध्यान में लगाते। सड़कों पर चलते हुए, वह “राम राम” का उच्चारण कर रहे होते। अब संसार की वस्तुओं के प्रति रामदास के मन में तिलमात्र आकर्षण भी शेष नहीं था। राम के लिए, उन्होंने रात की एक-दो घंटे की नींद का भी परित्याग कर दिया। सुंदर तथा आरामदायक वस्त्रों का स्थान,खादी से बने मोटे, साधारण वस्त्रों ने ले लिया। वे चटाई पर ही सोने लगे। पहले उन्होंने भोजन की मात्रा कम की, फिर धीरे-धीरे कुछ समय बाद, केले और उबले हुए आलू पर ही निर्भर रहने लगे।

मिर्च और नमक का उन्होंने,पूरी तरह से त्याग कर दिया। राम के लिए कोई स्वाद नहीं; राम का ध्यान तेजी से जारी रहा। इसके कारण उन्हें, दिन के घंटों एवं तथाकथित सांसारिक कर्तव्यों का भी ध्यान नहीं रहता।

इस अवस्था में, एक दिन रामदास के पिता रामदास के पास आए और उन्हें राम मंत्र का उपदेश दिया, “श्री राम जय राम, जय जय राम!” उसे आश्वासन दिया कि यदि वह हर समय इस मंत्र को दोहराता है, तो राम उसे अनन्त सुख देंगे। इसके बाद रामदास ने अपने पिता को गुरुदेव के रूप में देखा। इस मंत्र ने रामदास की आध्यात्मिक प्रगति को गति दी। बार-बार, उन्हें राम ने श्रीकृष्ण की शिक्षाओं, “भगवद गीता” को पढ़ने के लिए प्रेरित किया। इसके अलावा बुद्ध, “लाइट ऑफ एशिया”; यीशु मसीह, “न्यू टेस्टामेंट”; महात्मा गाँधी, “यंग इंडिया” और “नैतिक धर्म” आदि का भी उन्होंने अध्ययन किया। इस प्रकार इन महापुरुषों के प्रभाव से निर्मित विद्युतीय वातावरण से प्रभावित होकर रामदास के कोमल हृदय में भक्ति का सुकुमार पौधा पोषित होने लगा।

यह ऐसा समय था कि धीरे-धीरे उन्हें लगने लगा कि राम ही एकमात्र सत्य हैं और बाकी सब मिथ्या। उनकी, सांसारिक वस्तुओं के भोग की इच्छा तेजी से कम होती जा रही थी, साथ ही ‘मैं’ और ‘मेरा’ का विचार भी क्षीण होता जा रहा था। अधिकार तथा संबंधों की भावना लुप्त हो रही थी। मन, बुद्धि, हृदय,आत्मा सर्वस्व राम पर ही केंद्रित था। सब कुछ राम से ही आच्छादित व राममय है।

सार्वभौमिक जीवन के इस विस्तृत महासागर में तैरने के लिए, रामदास को शक्ति और साहस चाहिए था, क्योंकि प्रभु राम का निश्चय अपने अज्ञानी और अप्रशिक्षित दास को कठोर अनुशासन द्वारा गढ़ने का था। एक रात, हरि नाम की मिठास में मस्त रामदास को निम्नलिखित सोचने के लिए मजबूर किया गया: “हे राम, जब तुम्हारा दास तुम्हें एक ही बार में इतना प्रगाढ़ और असीम प्रेम करने वाला पाता है, और वह, जो तुझ पर भरोसा करता है, सच्ची शांति और खुशी के लिए तुम पर ही निश्चिंत एवं निर्भर है, तो वह खुद को पूरी तरह से तुम्हारी दया पर क्यों न छोड़ दे, जो “मेरापन” (मैं और मेरे की भावना) को पूर्णतया छोड़कर ही संभव हो सकता है। प्रभु आप ही दुनिया में एकमात्र रक्षक हैं। मनुष्य स्वयं को भ्रमित करते हैं जब वे घोषणा करते हैं, ‘मैं यह करता हूं, मैं वह करता हूं। यह मेरा है, वह मेरा है।’ हे राम, सब तेरा है और सब कुछ तेरे द्वारा ही किया जाता है। तेरे दास की तुझ से एक ही प्रार्थना है कि उसे अपने पूर्ण मार्गदर्शन में ले जाए और उसके ‘मैं’ को दूर कर दे।

राम की खोज में सब कुछ त्यागकर, एक भिक्षुक के रूप में पृथ्वी पर घूमने की एक धुंधली इच्छा उनके मन में उमड़ पड़ी। भगवान ने उन्हें “लाइट ऑफ एशिया” पुस्तक को यादृच्छिक रूप से खोलने के लिए प्रेरित किया, जो उस समय उनके सामने थी। उनकी नज़र उन पन्नों पर पड़ी, जिनमें बुद्ध के महान त्याग का वर्णन है, जो कहते हैं: अब वह समय आ गया है जब मुझे सत्य को खोजने के लिए यह सुनहरी पिंजरा छोड़ देना चाहिए, जहाँ मेरा दिल कैद रहता है। सत्य, जिसे मैं समस्त मानव जाति के लिए तब तक खोजूँगा जब तक वह नहीं मिल जाता। इसी तरह, “नया नियम” खोला गया और मसीह के शब्दों को पढ़ा गया। जिसमें लिखा था, जिस किसी ने मेरे नाम के निमित्त घरों, या भाइयों या बहिनों, या पिता या माता, या पत्नी या बालकों, या भूमि को त्याग दिया हो, वह सौ गुना पाएगा और अनन्त जीवन का अधिकारी होगा।

इसी तरह भगवद्गीता, जिसमें कहा गया है: सब कर्मों को त्यागकर मेरी ही शरण में आओ। दुख ही नहीं; मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा। इस प्रकार राम ने इन तीन महान अवतारों – बुद्ध, क्राइस्ट और कृष्ण, के शब्दों के माध्यम से मार्गदर्शन लिया और उन सभी ने एक ही मार्ग, “त्याग” की ओर इशारा किया था। संकल्प किया गया। सुबह पाँच बजे उन्होंने एक ऐसी दुनिया से विदा ली, जिसके प्रति उन्होंने अपना सारा आकर्षण खो दिया था और जिसमें उन्हें अपना कहने के लिए कुछ भी नहीं मिला था। शरीर, मन, आत्मा – सभी राम के चरणों में समर्पित हो गए – शाश्वत, अविनाशी प्रेम से परिपूर्ण।

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