श्री कृष्ण के जन्म पर श्री सत्य साई के अमृत वचन

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श्री कृष्ण के जन्म पर श्री सत्य साई के अमृत वचन

भागवत वाहिनी से लिये अंश

देवकी और वसुदेव जेल में बन्द इस प्रकार रह रहे थे कि उनमें और पागलों में कोई भेद कर पाना कठिन था। उन्हें न अपना कोई होश था, न अपने वस्त्रों का, न ही शरीरों का। तन पर बहुत ही मैले और फटे कपड़े, सिर पर बड़े-बड़े बाल जो बुरी तरह उलझे और बिखरे हुए थे। शरीर सूख कर काँटे हो गये थे। न उन्हें अपने खाने का होश था न पहनने का। गुम सुम चुपचाप बैठे रहते। उन्हें अपने छ: पुत्रों के मारे जाने का बहुत ही अधिक शोक था और व उन्हीं के दुःख में डूबे रहते थे। इस प्रकार रहते हुए जब उनके जेल-जीवन का दूसरा वर्ष चल रहा था तो देवकी ने आठवाँ गर्भ धारण किया। किन्तु क्या चमत्कार हुआ, उसी समय से कि देवकी और वसुदेव में एकदम परिवर्तन आ गया। जहाँ वे सूख कर काँटे हुये जा रहे थे वहाँ अब वे स्वस्थ और प्रफुल्लित, पूर्ण विकसित कमल से खिल उठे। उनमें एक अद्भुत कांति आ गई थी।

देवकी और वसुदेव इतने अधिक स्वस्थ, सुन्दर और आकर्षक दिखाई देने लगे जितने शायद पहले कभी नहीं थे | जेल में जिस कमरे में देवकी रहती थी वह एक बहुत ही मन- मोहक सुगन्ध से महकने लगा। उसमें से सदा एक प्रकाश और मन्द-मन्द संगीत की चित्ताकर्षक स्वर लहरी उठतीं रहती थी। विस्मयकारी अद्भुत दृश्य दिखायी देने और ध्वनियाँ सुनाई पड़ने लगीं। देवकी और वसुदेव को इन सबका पूर्णरुप में अनुभव हो गया था | किन्तु कंस को यह सब कुछ बताने की उनकी हिम्मत नहीं थी। वे उससे बहुत ही अधिक भयभीत थे कि वह निर्मम हत्यारा कहीं गर्भ के ही टुकड़े -टुकड़े न कर दे। वे अपने होने वाले पुत्र के अद्भुत भविष्य के सम्बन्ध में बहुत ही व्यग्र और चिन्तित थे। और सदा उसके विलक्षण भविष्य के सम्बन्ध में उत्सुक और बेचैन रहते थे ।

एक रात कारागार की कोठरी के फर्श पर पड़े हुये देवकी को प्रसव- पीड़ा होने लगी, वह उसी क्षण दीपक की लौ को देखते हुए ध्यान करने लगी और अपने आप से प्रश्न करने लगी, “अब मुझे क्या होगा? मेरे साथ क्या बीतेगी? मेरे भविष्य में आगे और क्या लिखा है !” अचानक दीपक की लौ बुझ गयी और सघन अंधकार छा गया। उस अंधकार में उसे एक प्रकाशवान आकृति, अपनी दिव्य आभा बिखेरती सामने दिखाई दी। उसे विस्मय हुआ कि वह कौन हो सकता है। भयभीत होकर उसने वसुदेव को पुकारा। वह सोच रही थी कि कहीं उस रूप में कंस तो नहीं आ गया था। संदेह और भ्रम में पड़ी उस आकृति को पहचान पाने में अपने आप को बिल्कुल असमर्थ पा रही थी।

अचानक ही उस आकृति का रूप हो गया। चतुर्भुज रूप था-शंख, चक्र और गदा धारण किये, चतुर्थ हस्त अभयमुद्रा में था। मन्द, मधुर, विनम्र और स्पष्ट वाणी में कहा, ” दुःखी मत हो। मैं नारायण हूँ! मैं ही कुछ क्षण पश्चात तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लेने वाला हूँ, जैसा मैंने तुम्हारी तपस्या के फलस्वरूप दर्शन देकर वचन दिया था। मैं तुम्हारे सारे संकट दूर कर दूँगा। मेरे सम्बन्ध में उत्सुक मत हो। किन्तु जो नाटक होने वाला है उसे दृष्टिमात्र बन कर देखते रहो। चौदह भुवनों में न तो अभी तक कोई ऐसा उत्पन्न हुआ है और न ही होने वाला है जो मुझे तनिक सी भी क्षति पहुँचा सके, इस बात से पूर्ण विश्वस्त रहो, अपने में कोई संदेह या भय मत रहने दो। जो बालक तुम्हें होगा उसके प्रति प्यार और मोह के कारण यदि तुम्हें तनिक भी चिन्ता या भय अथवा मन में कोई शंका होगी तो तत्काल कोई न कोई ऐसा चमत्कार होगा कि उससे मेरी प्रवृति प्रकट हो जायेगी।

“जैसे ही मैं जन्म ग्रहण करूँगा तुम्हारी हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ स्वतः ही खुल कर गिर पड़ेगी। कारागार के द्वार खुल जायेंगे। उसी समय बिना किसी को ज्ञात होते हुए मुझे गोकुल ले जाना और नन्द के घर में उनकी पत्नी यशोदा के बगल में लिटा देना और उसके बगल में से उसी समय जन्मी कन्या को उठा लाना। यशोदा को भी इसी समय प्रसव-वेदना हो रही है। वह उस बालिका को जन्म देने वाली ही है। उस कन्या को लाकर अपने पास जेल में रख लेना | तब कंस को सूचित कर देना। जब तक तुम कंस को समाचार नहीं भेजोगे तब तक न तो मथुरा में और न ही गोकुल में तुम्हें कोई देख पायेगा और न ही पहचान पायेगा। मैं इसकी पूर्ण व्यवस्था कर दूँगा|” इस प्रकार देवकी और वसुदेव को दिव्य स्वरूप के दर्शन और आश्वासन देकर वह स्वरूप पुनः एक प्रकाश पुंज में परिवर्तित हो देवकी के गर्भ में प्रवेश कर गया और कुछ ही समय के पश्चात् एक बालक का जन्म हुआ। ब्रह्म मुहूर्त था, ३-३० बजे थे। विष्णु की माया ऐसी व्यापी कि सब निद्रा में ग्रस्त हो गए। सारे चौकीदार, पहरेदार बेसुध-अचेत थे मानो काठ के लकड़े पड़े हों। वसुदेव के हाथ की हथकड़ियाँ और बेड़ियां उसी क्षण स्वतः ही खुल कर नीचे गिर गयीं। जेल के दरवाजे खुल गये। यद्यपि सघन अंधेरी रात्रि थी फिर भी हर्ष से विभोर कोयल कूक उठी, और तोते स्वर्गिक आनन्द की घोषणा करने लगे। आकाश में तारों की जगमगाहट तेज हो गयी मानो वे प्रसन्नता से मुस्कुरा रहे थे। इन्द्रदेव मुदित हो इस अवसर पर जल-वर्षा कर रहे थे| आस-पास पक्षी मधुर स्वरों में कलरव गान कर रहे थे ।

वसुदेव ने तत्काल अनुभव किया कि यह सब प्रभु के प्रताप से हुआ है , भगवान के जन्म लेने के शुभ संकेत हैं। जैसे ही उन्होंने नवजात शिशु पर दृष्टि डाली तो विस्मित रह गये, वसुदेव को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ कि क्या वह सब कुछ सच था? कोई आँखों का भ्रम या स्वप्न तो नहीं था। वह जड़वत खड़े गये मानो एक खम्भा हों।“ हे महाराज परीक्षित उस बालक के चारों ओर दिव्य आलोक का प्रभा-मंडल घिरा हुआ था और बालक जन्मते ही माता और पिता को देख कर हँसा तथा ऐसा लगा कि वह कुछ बोलने ही वाला हो। हाँ उन्होंने सुना, वह कह रहा था, “अब मुझे बिना किसी विलम्ब के गोकुल ले चलो।”

वसुदेव अब निर्भय थे। उन्होंने उसी क्षण बिना किसी विलम्ब के एक टोकरी ली और उसमें अपनी एक धोती बिछा बालक को लिटा दिया और ऊपर से देवकी की एक पुरानी साड़ी बालक को ओढ़ा दी तथा उसको लेकर जेल के दरवाजे से बाहर निकल गये और सारे रक्षक और सिपाही सोते ही रहे ।

जैसे ही वे बाहर निकल कर चलने लगे तो पानी पड़ रहा था। उन्हें चिन्ता हुई कि नवजात शिशु भीग जायेगा किन्तु जैसे ही पीछे मुड़ कर देखा तो आश्चर्यचकित हो गए। शेषनाग अपना फन फैलाये शिशु की पानी की बूँदों से रक्षा कर रहे थे। मार्ग के पग-पग पर वसुदेव जी को शुभ शकुन दिख रहे थे। यद्यपि सूर्योदय नहीं हुआ था किन्तु जलाशयों में कमल खिले हुये थे और वसुदेव जी की ओर झुके थे। यद्यपि अँधेरी रात्रि थी, बादल छाये थे, चन्द्रमा के प्रकाश की कोई आशा नहीं थी फिर भी शायद चन्द्रमा भगवान के दर्शन के लालसा से बादलों में से झाँक रहा था। और वसुदेव जी के सारे मार्ग में चन्द्रमा का प्रकाश केवल उस टोकरी पर पड़ता रहा जिसमें शिशु था। वसुदेव चुपचाप नन्द के घर में घुसे, बालक को यशोदा के पास लिटा दिया और वहाँ उनकी उसी समय जन्मी कन्या को उठाकर बाँस की उस टोकरी में रख लिया, जिसमें रखकर मथुरा से अपने बालक को लाये थे और उसी समय लौट कर उस कन्या को देवकी के गोद में दे दिया। जैसे ही उन्होंने उस कन्या को देवकी की गोद में दिया कि वसुदेव अपने आपको और अधिक न रोक सके, उनकी आँखों से आँसू बह चले, वे रो पड़े ।”

कृष्णावतार का उद्देश्य-मुक्ति प्रदान करना

श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद मास के अष्टमी तिथि में हुआ था | जन्म से ही उन्हें कई कष्टों का सामना करना पड़ा | किन्तु जिस किसी ने भी कृष्ण का नाम अपने हृदय में अंकित कर लिया हो, वह सारे बँधनों से मुक्त हो जाता है | वसुदेव एक बंदी थे | किन्तु जिस क्षण यशोदा ने उनके शीश पर कृष्ण को रखा, उसी क्षण से वे मुक्त हो गए | जैसे ही प्रभु ने उनका स्पर्श किया, उनकी बेड़ियाँ टूट गई | जब तक वे कृष्ण को अपने शीश पर रखे रहे और उन्हें रेपल्लि पहुँचा दिया, तब तक वे मुक्त रहे | कृष्ण को यशोदा के पास छोड़कर जब वे वापस कारागार पहुँचे, वे पहले जैसा बंदी बन गए | इस प्रसंग का क्या अर्थ है ? जब तक हमारे मन में दैवीय विचार होंगे, तब तक कोई बंधन नहीं होगा| जैसे ही हम भगवान को त्याग देंगे, वैसे ही हम हर तरह के बंधन में बँध जाएँगे|

वसुदेव की भक्ति

दिव्या वाणी के कहे अनुसार, वसुदेव ने बाल कृष्ण को एक टोकरी में रखकर, उसे अपने शीश पर रखकर, यमुना पार कर (उस समय यमुना ने खंडित होकर उन्हें रास्ता दिया था ), गोकुल पहुँचे | ठीक उसी समय नन्द की पत्नी यशोदा ने एक कन्या को जन्म दिया था | वसुदेव जैसे ही कारागार से बाहर निकले, अच्छे शकुन का संकेत देते हुए एक गधे ने आवाज दी | किन्तु वसुदेव घबराए कि गधे की आवाज सुनकर पहरेदार जग जाएँगे | इसलिए उन्होंने टोकरी नीचे रखकर, गधे के दोनों पाँव पकड़कर उससे शांत रहने की प्रार्थना की | ये थी वसुदेव की अथाह भगवत भक्ति, जिस भगवान का उन्हीं के कहने पर, वहन किया था |

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