सत्यम वद्
सत्यम वद्
एक गाँव में एक युवक, चोरी करके अपना जीवन निर्वाह करता था। उसे दिन में जुआ खेलने की बुरी आदत थी। एक बार उस गाँव में एक महापुरुष पधारे। प्रतिदिन सायंकाल वे गाँव के लोगों के बीच आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा करते थे। वे सब को सहज रूप से समझ में आ सके, ऐसी भाषा में बोलते थे। “मनुष्य जन्म का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है। इसके लिए सबसे पहले अपने अन्दर सद्गुणों को व्यवहार में लाने का अभ्यस्त होना चाहिए।”
एक दिन वह चोर भी, सब के साथ उन महापुरुष के प्रवचन सुनने के लिए बैठा। प्रवचन की समाप्ति पर लोग चले गये। वह चोर रुक गया और उन महापुरुष के चरणों में गिर कर बोला, “स्वामी! मुझको भी अपने शिष्यों में सम्मिलित कर लीजिए।” उन्होंने उससे पूछा “पुत्र! तुम अपने नित्य कर्म में क्या करते हो?” “स्वामी! दिन में जुआ खेलता हूँ और रात में चोरी करता हूँ।” उस चोर ने उत्तर दिया। “छी: छी: मैं तुम्हें अपने शिष्यों में कैसे सम्मिलित कर सकता हूँ।” उन्होंने उस चोर से कहा और पूछा, “क्या तुम यह सब दुष्कर्म छोड़ दोगे?” “स्वामी जी चोरी करना तो नहीं छोड़ सकता, यह तो मेरी जीविका का साधन है। इससे ही मैं अपने कुटुम्ब का पालन करता हूँ। इसके बिना मेरा जीवन कार्य नहीं चल सकता। दिन में जुआ खेलकर अपना समय काटता हूँ। इसे छोड़ दूँगा, तो मेरा समय कैसे कटेगा?” उसने कहा। वे महापुरुष समझ गये कि चोर जो कुछ करता है, वैसा ही उसने बता दिया है। वह चोर उनके पैरों पर गिर कर बोला, “स्वामी, मुझे आप कैसे भी ज्ञान बोध दीजिए।” “ठीक है, यदि तुम अपने इतने दुर्गुणों में से कम से कम एक को छोड़ दोगे, तो मैं तुम्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लूँगा” स्वामीजी ने उससे कहा। वह स्वामीजी को वचन देते हुए बोला, “स्वामी मैं इसी क्षण से झूठ बोलना छोड़ता हूँ।” “बहुत अच्छा, अब किसी भी दशा में झूठ मत बोलना और दीक्षा का ध्यान रखना।” महापुरुष ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा।
कुछ समय बाद वह चोर राजभवन में चोरी करने पहुँचा। आधी रात का समय था। राजा को किसी कारणवश नींद नहीं आ रही थी, इसलिए वे हवा में टहल रहे थे। चोर की आहट सुन कर राजा ने कड़े स्वर में पूछा, “कौन है?” चोर अपनी प्रतिज्ञा याद कर बोला, “मै चोर हूँ।” राजा उसकी बात सुनकर आश्चर्य में पड़ गये। बाहर आकर उस चोर के कंधे पर हाथ रखकर राजा बोले, “मैं भी चोर हूँ। मुझे इस राजभवन की पूरी जानकारी है। हम दोनों मिलकर चोरी करेंगे।” चोर ने कहा, “लेकिन एक शर्त है। चोरी में हम दोनों को जो माल मिलेगा उसे हम दोनों आधा-आधा बाँटेंगे।” राजा ने उसकी शर्त मान ली और कहा, “मैं एक कमरे में से तालों की चाबियाँ लाता हूँ।” राजा चाबियाँ ले आये और उस चोर को दी तथा कहा, “देखो, उस तरफ दो कमरे हैं। उनमें जाओ, मैं बाहर खड़ा चौकीदारी करता हूँ।” चोर कमरे में गया और चारों ओर अच्छी तरह से देखा। उसकी दृष्टि एक सन्दूक पर पड़ी। उसे खोला, तो उसमें उसे तीन अति मूल्यवान हीरे मिले। उसने उन्हें अपने हाथ में उठा लिया। उसे शर्त की याद आयी तो उसने सोचा, तीन हीरों को आधा-आधा कैसे बाँटेंगे, इसलिए उसने एक हीरा सन्दूक में वापिस रख दिया और दो हीरों को हाथों में छिपाकर, कमरे से बाहर आ गया। दूसरे चोर (राजा) के पास जाकर बोला, “देखो, दो हीरे हैं। एक-एक ले लेंगे। वहां थे तो तीन हीरे, लेकिन एक हीरा वहीं सन्दूक में छोड़ आया हूँ, राजा के लिए।” दोनों ने एक-एक हीरा ले लिया। छ्द्मवेषी चोर राजा ने, उससे उसके रहने का पूरा पता ज्ञात कर लिया। चोर ने सोचा कि उन महापुरुष को दिए वचन का पालन हो गया और जो शर्त तय हुई थी। वह भी पूरी हो गई।
दूसरे दिन सब को मालूम हो गया कि राजभवन में रात को चोरी हो गई है। राजा अनजान से बने अपनी पूर्ण सज्जा के साथ, सुबह के दरबार में पहुँचे। सिंहासन पर बिराजे और मंत्री को आदेश दिया, “तुम देखो कि मेरे खजाने से क्या-क्या माल चोरी में गया है। उसकी पूर्ण विवरण के साथ सूची बना कर मेरे सामने पेश करो।” मंत्री खजाने में गया और उसका अच्छी तरह निरीक्षण किया। मंत्री ने एक पेटी खुली हुई पायी और उस में देखा, तो उसे एक हीरा दिखाई दिया। उसने उसे उठाकर अपने वस्त्रों में छिपा लिया। राजा के सामने पहुँच कर मंत्री ने कहा, “महाराज! यह तो एक बड़ी विचित्र चोरी हुई है। एक पेटी जिसमें हीरे थे, खाली पड़ी है, बाकी सारा सामान ज्यों का त्यों है।” राजा उस मंत्री के कारनामे को समझ गये, फिर भी अनजान बने रहे। एक नौकर को उस चोर के घर का ठिकाना समझाकर, उसे बुलवाया।
राजा का सेवक, उस चोर को अपने साथ ले आया और राजा के सामने खड़ा किया। चोर राजा को पहचान नहीं पाया। राजा ने उसे डाँट कर पूछा, “क्यों? कल रात को मेरे खजाने में से क्या चोरी करके ले गये?” चूँकि चोर ने, महात्मा को असत्य न बोलने का वचन दिया था, अतएव, उसने स्पष्ट रूप से बताया, “महाराज, कल रात को हम दो लोग चोरी करने आये थे। दूसरे चोर को मैं पहचानता नहीं। लेकिन चोरी मैंने की थी। एक पेटी में तीन हीरे थे। उन तीनों को हम आपस में कैसे बाँटते, इसलिए एक हीरा मैंने पेटी में ही छोड़ दिया।” राजा ने एक सिपाही को बुलाया, मंत्री के वस्त्रों की अच्छी तरह से तलाशी लेने का आदेश दिया। तलाशी में, मंत्री के पास से एक हीरा बरामद हुआ। मंत्री लज्जा से सिर झुका कर खड़ा रहा। राजा ने दरबार में उपस्थित सब लोगों के सामने रात को हुई घटना का पूरा विवरण दिया और मंत्री की चोरी तथा चोर की सच्चाई के बारे में समझाया। राजा ने चोर की सत्यवादिता की प्रशंसा करते हुए, उसे अपना मंत्री बनाने की घोषणा की। मंत्री को उसके पद से हटा दिया। चोर को अपने जीवन निर्वाह के लिए और कोई आवश्यकता नहीं रही, सारे साधन मिल गये। चोरी और जुआ दोनों आप ही छूट गये। इस परिवर्तन से, उसको अपनी उन्नति करने के अच्छे अवसर मिले। इस प्रकार वह अपने मंत्री पद का कार्य, अपने गुरूजी का, श्रद्धा और भक्ति के साथ स्मरण करते हुए, पूर्ण निष्ठा से करने लगा।
एक दिन, उस चोर के (जो अब मंत्री बन गया था) गुरूजी आये। उनके आने का समाचार सुनकर, उसे बड़ा आनन्द हुआ। वह उनके पास गया और उनके चरणों में गिरकर बोला, “स्वामी, आप के दिव्य उपदेश के प्रताप से ही मुझे यह पद प्राप्त हुआ है।” गुरूजी बहुत प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिया, “सत्यमेव जयते” – “सत्य की सदा जय होती है”, इसे हमेशा याद रखो।