ईश्वर संबंधित सत्य

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ईश्वर संबंधित सत्य

एक बार, महान ऋषि उद्दालक अरुणी अपने पुत्र श्वेतकेतु को ब्रह्म ज्ञान से परिचित कराना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने एक युक्ति सोची। उन्होंने निकट के एक बड़े बरगद के पेड़ की ओर इशारा करते हुए अपने बेटे को उस पेड़ से एक पका हुआ फल लाने को कहा। जब वह छोटा, लाल, बेरी जैसा फल लाया, उद्दालक ने अपने बेटे से कहा, “प्रिय वत्स इसे दो हिस्सों में विभाजित करो।”

Uddalaka Aruni teaching the knowledge to his son svetaketu

“देखिए पिताजी! इसे दो टुकड़ों में विभाजित कर दिया” बच्चे ने कहा।

“उसमें तुमने क्या देखा?” मुनि ने पूछा।

पुत्र ने कहा, इसमें छोट बीज दिखाई दे रहा है। मुनि ने फिर उस बीज के भी दो टुकड़े करने को कहा|

“बीज में तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है?” मुनि ने पूछा

“उसमें कुछ भी नहीं है”, पुत्र ने जवाब दिया।

“बेटा, इतना बड़ा वृक्ष कुछ भी न होने वाले बीज से कैसे उत्पन्न हो सकता है? उसमें स्थित हमारी आँखों से न देख सकने वाले सूक्ष्म कणों को तुम नहीं देख सकते हो। वह सूक्ष्म कण (तत्व) ही अंकुर रूप धारण कर इतना बड़ा वृक्ष बन गया है। ठीक उसी प्रकार सभी वस्तुओं में, अदृश्य अथवा दिखाई न देने वाली शक्तिशाली आत्मा स्थित है। इसलिए दृढ़ रूप में इस पर विश्वास रख लो, हे पुत्र! आत्मा ही संसार के अस्तित्व का मूल तत्व है।” श्वेतकेतु ने पूछा, “यह बड़ी अचरज की बात है। पिताजी! आपकी कही बातों को मैं आसानी से समझने पर भी इस संसार में उसका अनुभव कैसे कर सकता हूँ।”

तब ऋषि उद्दालक ने उत्तर दिया, “ठीक है, तुम एक कार्य करो। सोने के पहले तुम एक प्याले में जल भरकर उसमें कुछ नमक डाल दो। सबेरे उठते ही उसे मेरे पास लाओ।” पुत्र ने अपने पिता के कथनानुसार ऐसा ही किया तथा पिताजी की आज्ञानुसार दूसरे दिन नम्रतापूर्वक उनके समक्ष जल लेकर उपस्थित हुआ। तुरन्त उद्दालक ने कहा, “अब तुम्हें, इस जल में डले हुए नमक को बाहर निकालना है।” पिताजी के कथन से श्वेतकेतु जरा उद्वेलित हो गया|
उसने पूछा, “पिताजी! आप क्या कहते हैं? जल में डाले नमक को कैसे बाहर लाया जा सकता है।”

Svetaketu bring a bowl with salt water

“ओह​! ऐसी बात है! ठीक है! इस जल की ऊपरी सतह से थोड़ा-सा पानी लेकर पियो और उस प्याले के बीच में से थोड़ा जल लेकर उसका स्वाद लो, उसी प्रकार प्याले की निचली सतह का जल ग्रहण करके उसका स्वाद बताओ।” उद्दालक ने कहा।

श्वेतकेतु ने वैसा ही किया। ऋषि ने पुत्र से, तीनों भागों द्वारा ग्रहण किए गए जल के स्वाद के विषय में पूछा। “इसमें अचरज की क्या बात है? सभी भागों में जल नमकीन ही रहता है। ऐसा रहना ही इसका स्वभाव है, गुण है” – पुत्र ने कहा।

“प्रिय पुत्र! जैसे नमक, इस प्याले के जल में सब जगह व्याप्त है वैसे ही सर्वत्र, सब चीजों में आत्मा व्याप्त है – इसे तुम जान लो। वह अत्याधिक सूक्ष्म आँखों के द्वारा भी अगोचर है, इसे भी तुझे समझ लेना श्वेतकेतु”- उद्दालक ने कहा। श्वेतकेतु ने पूछा, “प्रिय पिताजी! आप यह सब कैसे बताते हैं? यह सुनने में बहुत सरल लगता है, पर समझने मे अत्यंत कठिन है।”

उद्दालक ने विस्तारपूर्वक कहा, “ध्यानपूर्वक सुनो वत्स, अब मैं बताता हूँ कि हम इस आत्मा को कैसे जान सकते हैं? मान लो कि किसी मनुष्य को आँखों में पट्टी लगाकर उसकी जगह से बहुत दूर पर एक जंगल में ले जाया गया है। वहाँ पहुँचने पर वह क्या करेगा? फिर से अपने घर आने का रास्ता जानने का प्रयत्न करेगा। हमसे अलग होते ही पहले वह अपनी आँखों में बँधी पट्टी निकालने का प्रयत्न करेगा। फिर, वह कहाँ से लाया गया? – इसका जवाब पाने यहाँ- वहाँ पूछेगा। फिर​, एक-एक करके गाँव-गाँव घूमकर रास्ता पूछता हुआ चलता ही रहेगा। अन्त मे उसे सही रास्ते पर ले जाने वाला एक मनुष्य रास्ते में मिलता है। फिर उसको अपना घर जाना आसान होगा न? इसी प्रकार हमें भी, इस घने अन्धकार पूर्ण संसार में हम कहाँ से, किस आध्यात्मिक स्थान से आए हैं, उसे दूँढकर जीवन मे सफलता पाने या मुक्ति पाने का मार्ग जान लेना है। आत्मा ही स्थिर है। उसके दिखाये ग​ए रास्ते पर ही हमें एक- एक कदम बढ़ाना है। इसे तुम अच्छी तरह समझ लो!श्वेतकेतु!”

ऐसे उपदेशों को उद्दालक ने छान्दोग्योपनिषद् में कहा है।

प्रश्न​
  1. उद्दालक ने श्वेतकेतु को क्या सिखाने का प्रयत्न किया?
  2. उन्होंने उसे क्या लाने को कहा?
  3. उन्होंने उससे क्या करने को कहा?
  4. ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, श्वेतकेतु ने इसे कैसे जाना?

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