कर्त्तव्य का अर्थ क्या है ?
कर्त्तव्य का अर्थ क्या है?
एक समय की बात है। एक युवा-साधु जंगल में जाकर कठोर तपस्या करते थे। ध्यान, प्रार्थना, योगाभ्यास के द्वारा, उन्होंने कठोर तप किया। इस तरह बारह साल तक कठिन मेहनत करने के बाद,एक बार वे, आराम से एक पेड़ के नीचे बैठे थे। तभी उनके सिर पर कुछ सूखे पत्ते [सरूगु] गिर पड़े। उन्होंने सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा। एक कौआ और एक बगुला दोनों के झगड़े के कारण ही सूखे पत्ते उनके ऊपर गिरे थे।
युवा-साधु नाराज हो गए। उन्होंने कुपित होकर, उन दोनों को देखा कि किसकी इतनी हिम्मत हो गई, जो मुझ जैसे तपस्वी पर कचरा गिराया। तभी योग के बल पर, उनके मस्तक से एक चिंगारी निकली, जिसने उन दोनों पक्षियों को एक साथ भस्म कर डाला। और यह देखकर साधु को बहुत ख़ुशी हुई। ऐसी शक्ति प्राप्त होने के कारण वे फूले न समाए। वे अब समझ गए कि, यदि एक बार वे, अपनी आँखें, नीली-पीली कर देखें, तो बगुला और कौआ तो क्या, किसी को भी भस्म कर सकते हैं।
कुछ दिनों पश्चात्, एक दिन भोजन की खोज में, वे पास के एक गाँव में गए। वहाँ एक घर के सामने खड़े होकर, उन्होंने उस घर की गृहिणी से, भोजन माँगा। घर के अंदर से आवाज आई, कि जरा ठहरो बेटा, और उनको थोड़ी देर वहाँ ठहरना पड़ा। उनके मन में गुस्सा (अहम् भाव) बढ़ गया, और वो मन ही मन जलने लगे कि, “हे तुच्छ स्त्री, मुझे ठहरने के लिए कहती हो, क्या, मेरी शक्ति को तुम नहीं जानती हो”। उनके मन में ये विचार उठते ही, अंदर से वही आवाज आई – “बेटा, अपने बारे में ऊँचा ख्याल न रखो, यहाँ वो कौवा या बगुला नहीं, जो तुम्हारे क्रोध से भस्म हो जाये”|
यह सुनते ही साधु आश्चर्यचकित हो गए। उनको और थोड़ी देर वहाँ ठहरना पड़ा,काफी देर के बाद एक स्त्री बाहर आई। उसके पैरों पर गिरकर साधु ने उससे पूछा– “माताजी, जंगल में जो हुआ, उसे, और मेरे मन में आये विचारों को आपने कैसे जान लिया?” उस महिला ने जवाब दिया, “प्रिय वत्स, तुमने जो-जो योगाभ्यास किया, उसके बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम, मैं तो एक साधारण परिवार की गृहिणी हूँ। मेरे पति बीमार हो जाने के कारण मैं उनकी सेवा कर रही थी। इसलिए तुमको थोड़ी देर ठहरना पड़ा। जीवन पर्यंत अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए मैंने कठोर परिश्रम किया है। शादी के पहले अपनी माँ-बाप की सेवा करती थी, अब पति की सेवा कर रही हूँ। कर्त्तव्य का पालन ठीक तरह से करने का कारण मैंने ज्ञान दीप पाया। उससे तुम्हारे मन के विचारों को खूब जान सकी। इससे बढ़कर तुम कर्त्तव्य के बारे में ज्यादा जानना चाहते हो, तो काशी जाओ, वहाँ बाजार में एक कसाई है, उससे मिलो। वह तुम्हें कर्तव्य के बारे में ज्यादा विवरण देगा”। पहले तो साधु ने सोचा कि “मैं क्यों काशी जाकर उस कसाई से मिलूँ”।
परंतु दूसरे ही क्षण, उस स्त्री की शक्ति का स्मरण कर वे काशी गए और कसाई से मिले, वह कसाई, अपने यहाँ माँस खरीदने के लिए आये हुए लोगों से झगड़ा कर रहा था, उसे देखते ही साधु भय से हक्का-बक्का हो काँपने लगे, “इस दुष्ट प्रकृति के कसाई के यहाँ मुझे पाठ सीखना है”, डर के मारे वे थर-थर काँपने लगे। इतने में कसाई उन्हें देखकर, पास आ गया, उसने उनसे पूछा –“क्या, उस स्त्री ने ही आपको मेरे यहाँ भेजा? जरा ठहरिये, अपने व्यापार को अभी पूरा करके आऊँ”, यह सुनते ही वे अचम्भे में आ गये, फिर कसाई उन्हें अपने घर ले गया। कुर्सी पर बिठाकर वह घर के अंदर गया। अपने माँ-बाप को प्रणाम करके उन्हें नहलाकर, कपड़े पहनाकर, खाना खिलाकर, साधु के पास बैठा। उनसे पूछा -“मैं आप के लिए क्या करूँ? कृपया बताइये”। साधु ने उससे लोक-जीवन और ईश्वर के बारे में कई प्रश्न पूछे और उसने सारे प्रश्नों के ठीक-ठीक जवाब दिये| वही ‘व्याध-गीता’ के नाम से भारत का प्रमुख ग्रंथ माना जाता है, भगवान् श्री कृष्ण के भगवद्गीता के उपदेशों को हमने सुना है। उसी तरह “व्याध – गीता” को भी हमें सीख लेना चाहिए। व्याध – गीता वेदांत-तत्वों को गहराई से हमें समझाती है। कसाई की बात सुनकर साधु अचम्भे में आ गये। उन्होंने उससे पूछा कि इतने ज्ञानी होकर भी, तुम क्यों ऐसे नीच और घृणित काम कर रहे हो।
मुस्कुराते हुए उसने जवाब दिया “बेटा, कोई भी काम नफ़रत करने का नहीं होता, और कोई भी सेवा अशुद्ध नहीं, हमें अपना जन्म, जगह, वातावरण इन सब को ध्यान में रखना है, बचपन से ही, मैं इस व्यापार में लगा था, पर बिना किसी अपेक्षा के यह काम कर रहा था। मैं अपने माँ- बाप के संतोष के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करूँगा। योगाभ्यास के बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम, मैं तो संन्यासी भी नहीं हूँ, और जग का त्याग करके, अब तक जंगल की ओर भी, नहीं गया हूँ। वातावरण तथा समयानुसार अपने कर्तव्य का, ठीक तरह से पालन करने के कारण मैंने ज्ञान-बोध प्राप्त किया।
पहले, जन्म से लेकर हमें जो-जो काम करना पडे़, उन सब को करो। उन्हें पूरा करने के बाद, हमारी स्थिति और योग्यता के अनुसार, उचित कर्त्तव्य करो। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी स्थिति से जोड़ा गया है, पहले उसे, उस स्थिति के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन करना पड़ेगा। मनुष्य- कुल के स्वभाव में, एक बहुत बड़ी कमी है, वह यह है कि, मनुष्य अपनी हाल, और स्थिति की ओर ध्यान नहीं देता। वह अपने आप को सर्वशक्तिमान समझता है। उसे पहले यही देखना चाहिए, कि वह वर्तमान में अपनी स्थिति के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है कि नही, अगर उन्हें वह ठीक तरह से कर चुका होता है, तो उससे बढ़कर श्रेष्ठ कार्य करने का पात्र बनकर, वह सभी कार्य,और उत्तम तरीके से कर सकेगा।