पारसी धर्म
पारसी धर्म
पारसी धर्म के प्रवर्तक धर्म गुरू जरथुस्त्र (जोहरात्र) थे। वे 8500 वर्ष पूर्व हुए थे। पृथ्वी पर रहने वाली बुरी आत्माओं से छुटकारा दिलाने के लिये धरती माता (जिङसर्वा) की प्रार्थना के फलस्वरूप ईसा से 6400 वर्ष पूर्व जोहरात्र का जन्म हुआ था।
सात वर्ष की उम्र में उन्हें मझ्यास्नि धर्म में दीक्षित किया गया जो एक ईश्वर में विश्वास करते थे किन्तु उस धर्म के रीति-रिवाज उन्हें उपयुक्त नहीं लगे। 20 वर्ष की कम उम्र में उन्होंने एकान्तवास ले लिया था। वहाँ 10 वर्षों तक गहन ध्यान व तपस्या के बाद उन्हें अहुरमज्द अर्थात् ईश्वर के दर्शन हुए। प्राचीन भारतीय ऋषियों को जिस तरह वेदों का रहस्योद्घाटन हुआ था। उसी तरह तपस्या के अंत में इन्हें गाथाओं का रहस्योद्घाटन हुआ था। यह ज्ञान जो जोहरात्र को प्राप्त हुआ था उसका उन्होंने जन-मानस में प्रचार किया जो जोहराष्ट्रियन धर्म कहलाया। इसमें जोहरास्त्र ने पुराने मझद्यास्नि धर्म की अच्छी बातें रखी जैसे:- अग्निपूजा, सुद्रेह कुस्ती, हओमा आदि। इन पवित्रात्मा प्रवर्तक का यह नया धर्म मझद्यास्नि जरथौस्ती (जोरोष्ट्रियन) धर्म कहलाया। 3री शताब्दी में भारत में आकर बसने वाली पारसी जाति का यह धर्म था। कालांतर में इस धर्म में भी कुछ परिवर्तन हो गए।
पारसी व वैदिक धर्म दोनों ही आर्यों के धर्म हैं और इनमें काफी समानता है। पूजा के कुछ सामान्य लक्षण हैं जैसे सूर्य और अग्नि की पूजा तथा हओमा आदि मानना ।
पारसी धर्म विज्ञान में एक देववाद को माना जाता है। इस धर्म की शिक्षा के अनुसार ईश्वर एक है और वह सर्वज्ञ भगवान “अहुरमज्द” है जो सृष्टि निर्माता एवं पोषणकर्ता है।
वे ही मानव के हृदय में शाश्वत सत्य व धर्म के रूप में रहते हैं। यह ईश्वर जो एकमात्र सृष्टि सृजक है अपनी शक्ति का उपयोग विश्व में व्याप्त बुराइयों तथा असत्य को नष्ट करने में लगाते हैं। इसके सशक्त गूढ़ वचन हैं – अच्छे विचार, अच्छे शब्द और अच्छे कार्य । हुमाता, हुख्ता हवर्ता आदि पारसी धर्म पर आधारित शिक्षा के प्रमुख उपदेश हैं। इसमें पाँच गुण ‘निर्धारित किए हैं- अच्छाई, सुसंगति, शांति, दान और पवित्रता । पारसियों के लिये चार प्रमुख कर्तव्य हैं।
- अहुरमज्द की पूजा करना ।
- मार्गदर्शक के रूप में प्रवर्तक जरथुस्त्र को मान्यता देना ।
- बुराई, झूठ और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष ।
- अहुरमज्द के विधान में दृढ़ विश्वास ।
पवित्र अग्नि भगवान के सुंदर शरीर का प्रतीक है। भौतिक अग्नि आंतरिक अग्नि का बाहरी प्रतीक है। ईश्वर निराकार है और अग्नि भी निराकार है।
पारसी, प्रकृति की पवित्रता में विश्वास करते हैं। उनका मानना है कि प्रकृति ईश्वर का एक विशाल वस्त्र है। पृथ्वी, वायु, प्रकाश और जल चार पवित्र तत्व हैं। इसलिए मनुष्य को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे प्रकृति की पवित्रता प्रदूषित हो। यह मान्यता मृतकों के अंतिम संस्कार तक भी फैली हुई है: उनका मानना है कि मृतकों को दफनाने से पृथ्वी में प्रदूषण होता है और जलाने से आग की अपवित्र होती है। इसलिए शवों को शिकार के पक्षियों द्वारा खाए जाने के लिए सूर्य की सीधी किरणों के तहत टॉवर ऑफ साइलेंस में भेज दिया जाता है।
मानव के पालनार्थ जरथुस्त्र ने सात बातें निश्चित की हैं जिन्हें अमेषा स्पेन्ता के नाम से जाना जाता है :-
- अहुरमज्द अर्थात् ईश्वर की भक्ति करना ।
- मनः शुद्धि विकसित करना। (बेहमन)
- अच्छे विचार, अच्छी वाणी व अच्छे कर्म (ब्रह्मचर्य व सतीत्व) सर्वोत्तम धर्म हैं (आर्दिबेहेस्त)
- दृढ़ इच्छा शक्ति सम्पन्न राजा की तरह बनो । (शहेरेवार)
- शाश्वत मधुरता, दैवीय आनन्द की प्राप्ति करो। (स्पंदरमद)
- पूर्णत्व, शांति व समत्व भाव हो। (खोरदाद)
- मानव की आत्मा द्वारा अमरत्व प्राप्त कर मुक्ति पाना। (अमेरेतत)
सुदेह एवं कुस्ती
सभी पारसी, पवित्र वस्त्र सुद्रेह और पट्टा की तरह कमर में कुस्ती पहिनते हैं जिसे 7 से 11 वर्ष की उम्र के बीच में पुरोहितों द्वारा “नव जोत” संस्कार करके पहनाया जाता है। यह हिन्दुओं के उपनयन संस्कार की ही तरह होता है। सुद्रेह सफेद परिधान है जो पवित्रता और स्वच्छता का प्रतीक है और पारसी धर्म की नींव भी इन्हीं पर आधारित है। सुद्रेह का अर्थ यह याद दिलाना है कि दिन भर में हम जो कार्य करते हैं, ईश्वर द्वारा अंतिम निर्णय के लिए उसका लेखा-जोखा रखा जाता है। कुस्ती, भेड़ के ऊन की बनी रहती है जो बड़ा भोला पशु होता है। कुस्ती धारण करना ईश्वर से सम्बद्ध रहने का प्रतीक है। यह 72 धागों से बुनी रहती है जो पारसी ग्रंथ यासना के 72 अध्यायों की प्रतीक है। यह कमर के बीच में कसा जाता है और यह संयम संतुलन तथा मध्य मार्ग का प्रतीक है। इसमें तीन फंदे तथा चार गाँठे सामने और दो पीछे) रहती हैं। तीन फंदे अहुरमज्द के सृष्टि कर्ता, पालनकर्ता और लयकर्त्ता होने के प्रतीक हैं तथा भूत, वर्तमान और भविष्य के नियंत्रक भी हैं। चार गाँठों का प्रतीकात्मक अर्थ है :-
- ईश्वर के नियमों का पालन करना|
- इन नियमों के पालन करने में जीवन का बलिदान तक कर देना।
- बुराइयों से सतत संघर्ष करते रहना ।
- ईश्वर में सर्वोच्च विश्वास ।
- सुद्रेह और कुस्ती पारसियों का आम पहनावा या गणवेष है।
पारसी धर्म ग्रंथ
पारसी धर्म के पवित्र ग्रंथ अवस्था व पजन्द भाषाओं में लिखे गये हैं। मूल रूप से इन शास्त्रों में 21 नास्क्स, अवेस्ता भाषा में लिये गये थे जिनमें से अधिकांश विदेशी शासक एलेक्जेंडर ने नष्ट कर दिये थे। ईरान में जब सस्यानियन का शासन काल था तब इन्हीं को दस्तूर तन्सार द्वारा पुनः सम्पादित किया गया था। इस अवधि के दौरान दस्तूर अदरबद मारेस्पन्द ने अफरिन, पतेत आदि पजन्द प्रार्थनाओं की रचना की थी। किन्तु ईरान में अरबों के शासन काल में पवित्र धर्मशास्त्रों के अधिकांश भाग नष्ट-विनष्ट हो गये अथवा खो गये । भारत में पारसियों के आगमन के बाद दस्तूर नेर्योसंघ धवल ने अवेस्ता और पजन्द का संस्कृत संस्करण तैयार किया था। प्रमुख पारसी धर्मशास्त्र इस प्रकार हैं – अवेस्ता के अंतर्गत गाथा यासना, विस्परद् वेन्दीदाद, खोरडेह अवेस्ता, एफिन्गन और पजन्द भाषा में एफरिन पतेत, दोआनाम, सेतायास्ने दोआतन्दरोस्ती आते हैं।
सारांश यह है कि यद्यपि भारत में पारसी धर्म के अनुसायियों की संख्या बहुत थोड़ी है किन्तु उन्होने रक्त की पवित्रता और धार्मिक सुदृढ़ता के कारण अपने को इतनी दीर्घ अवधि के बाद भी सुरक्षित रखा है।