शिवाजी – एक सच्चे शिष्य

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शिवाजी – एक सच्चे शिष्य

छत्रपति शिवाजी महाराज अपने गुरू समर्थ रामदास स्वामी के बहुत ही निष्ठावान शिष्य थे। वह अपने गुरू के प्रिय शिष्य थे। गुरू समर्थ उन्हें अपने अन्य शिष्यों से अधिक प्यार करते थे। इससे उनके अन्य शिष्यों में ईर्ष्या की भावना पैदा हो गई। उन्हें लगा कि चूंकि शिवाजी एक राजा थे, इसलिए वे उनके गुरू के पसंदीदा थे। गुरू समर्थ ने अपने शिष्यों के मन से इस गलतफहमी को दूर करने का फैसला किया। उन्होंने एक योजना सोची और एक दिन वह अपने सभी शिष्यों को जंगल में लेकर गये। घने जंगल में वे रास्ता भटक गए। गुरू समर्थ एक गुफा में गए और उन्होंने पेट के तेज दर्द से पीड़ित होने का नाटक किया। वे पीड़ा से कराहने लगे। यह सुनकर शिष्यों ने गुफा में प्रवेश किया और गुरू समर्थ से पूछा कि वे उनकी मदद कैसे कर सकते हैं। गुरू समर्थ ने कहा कि केवल एक बाघिन का दूध पीने से, वह भी ताजा दूध पीने से, उन्हें ठीक होने में मदद मिल सकती है। शिष्य उनके उत्तर से चौंक गए क्योंकि वे जानते थे कि बाघिन का दूध प्राप्त करने का अर्थ मृत्यु के मुंँह में जाना होगा।

शीघ्र ही गुरू समर्थ की अवस्था का समाचार शिवाजी महाराज के कानों तक पहुँचा। बिना एक पल गंँवाए वह गुरू समर्थ के दर्शन के लिए अपने किले से निकल गये। जंगल में पहुँचने पर, शिवाजी ने अपने गुरू के कराहने की आवाज़ का पीछा किया और उनका पता लगाया। उन्हें वह गुफा मिली जहांँ उनके पूज्य गुरू दर्द से छटपटा रहे थे। शिवाजी ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक गुरू समर्थ से पूछा कि वे किस प्रकार उनकी सहायता कर सकते हैं। गुरू समर्थ ने शिवाजी से कहा कि बाघिन का ताजा दूध ही उन्हें इस बेचैनी से राहत दिला सकता है।

उन्होंने शिवाजी से यह भी कहा कि वे जानते हैं कि यह एक असंभव कार्य है और यदि शिवाजी इसमें उनकी मदद नहीं कर सके तो वे समझ सकते हैं। शिवाजी अपने अचूक साहस, चौंकाने वाले आत्मविश्वास और शानदार उपलब्धियों के असाधारण गुणों के लिए जाने जाते थे। इन्हीं सब कारणों से उन्हें छत्रपति शिवाजी कहा जाता था। इसलिए बिना कुछ सोचे-समझे वे बाघिन से ताजा दूध लेने के कार्य में लग गये। उनके मन में बस एक ही विचार था और वह था अपने प्यारे गुरू को बचाना।

कुछ देर जंगल में घूमने के बाद उनकी नजर बाघ के दो शावकों पर पड़ी। शिवाजी जानते थे कि, उनकी माँ कहीं आस-पास होगी। कुछ ही पलों में झाड़ियों के पीछे से एक बाघिन निकल आई। शिवाजी को देखते ही बाघिन गुर्राती हुई उनकी ओर बढ़ने लगी। शिवाजी जानते थे कि वे आसानी से बाघिन से लड़ सकते हैं लेकिन उनका इरादा ऐसा नहीं था। उन्होंने साहस जुटाया और बाघिन के सामने हाथ जोड़कर कहा, ‘हे माँ, मैं यहाँ आपको या आपके बच्चों को नुकसान पहुँचाने नहीं आया हूँ। मुझे अपने प्यारे गुरू की बीमारी को ठीक करने के लिए बस आपका दूध चाहिए। कृपया मुझे उपकृत करें। मैं आपका दूध अपने गुरू को दूंँगा और फिर आपके पास वापस आऊंँगा। फिर तुम चाहो तो मुझे खा सकती हो। कृपया मुझ पर यकीन करो’। यह कहकर उन्होंने बाघिन की पीठ पर प्यार से हाथ फेरा।

कहते हैं कि प्यार से जानवर भी जीते जा सकते हैं। बाघिन ने गुर्राना बंद कर दिया और शिवाजी को चाटने लगी। शिवाजी ने तब प्रेमपूर्वक उसे दुहा और उसके दूध से अपना कमंडल भर लिया। उन्होंने कृतज्ञता के साथ बाघिन को प्रणाम किया और वहांँ से चले गए। शिवाजी वापस गुरू समर्थ के पास गए और उन्हें दूध का पात्र भेंट किया। गुरू समर्थ ने अपने प्रिय शिष्य शिवाजी की ओर देखा और आँखों में खुशी के आँसू भरकर बोले, “आप जैसे समर्पित शिष्य के होते हुए मैं अधिक समय तक पीड़ा में कैसे रह सकता हूँ?” गुरू समर्थ ने फिर अपने अन्य शिष्यों की ओर देखा। उन्होंने शर्म से सिर झुका लिया। उन्होंने महसूस किया कि शिवाजी को अपने गुरू का प्रिय होने का पूरा अधिकार था। वे यह भी समझते थे कि अपने गुरू के प्रेम के योग्य होने के लिए उन्हें भी शिवाजी की तरह ईमानदार और समर्पित होने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए। कोई आश्चर्य नहीं कि इतिहास शिवाजी को “वीर शिवाजी” के रूप में याद करता है। वह वास्तव में हर मायने में एक सच्चे शिष्य थे।

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