वैकुण्ठ कितनी दूर है
यदि तुम्हारी बुद्धि तीक्ष्ण है तथा भेद-भावों से मुक्त है तो तुम्हें पल-भर में ही सत्य की अनुभूति हो जायेगी क्योंकि यह अति सरल वस्तु है। बुद्धि को समस्या के निरर्थक पहलुओं से अलग उसके मूल तत्व को देखने की क्षमता होनी चाहिए। एक बार कोई विद्वान् महाराज के दरबार में उनके समक्ष बड़े पांडित्यपूर्ण ढंग से भागवत की गजेन्द्रमोक्ष कथा सुना रहा था। दरबार में भारी संख्या में दरबारी भी थे। वह बता रहा था कि किस प्रकार भगवान मगर के मुँह में फंसे गज की करुण पुकार सुनकर उसकी रक्षा हेतु तुरन्त वैकुण्ठ से दौड़े हुए आये। और जल्दी के कारण वह अपने शस्त्रों के बिना ही चल दिए तथा अपनी पत्नी को भी नहीं बताया कि वह कहाँ और किस उद्देश्य से जा रहे थे। सहसा महाराज ने उसे टोकते हुए एक प्रश्न पूछा- “पंडितजी, मुझे बतायें कि वैकुण्ठ कितनी दूर है? उस ज्ञानवान् पंडित को दूरी मालूम नहीं थी वह घबरा गया। न ही महल में किसी अन्य पंडित को वैकुण्ठ की दूरी मालूम थी।
लेकिन जो सेवक महाराज के पीछे पंखा झल रहा था. उसने राजा से कहा कि यदि उसके साहस को क्षमा किया जाए तो इसका उत्तर देने को तैयार था। पंडित उस सेवक की धृष्टता पर दंग रह गया, लेकिन महाराज ने उसे बोलने की आज्ञा दे दी। उसने कहा- “हे राजन्! वैकुण्ठ उतनी ही दूर है जहां तक हाथी की पुकार पहुंच सकती है।”
हां, जब भक्त का दुःखी हृदय परमात्मा को पुकारता है, कराहता है या आह भरता है तो जहां तक उसकी पुकार पहुंचती है। वहीं परमात्मा होता है, फिर वह भक्त की रक्षा हेतु पहुंच जाता है। ईश्वर के कान सदा अपने बच्चों की करुण पुकार सुनने को तैयार रहते हैं। उसका निवास स्थान वैकुण्ठ वहां है, जहां प्रत्येक पीड़ित हृदय की पुकार पहुंचती है।
उस अपढ़ ने भगवान की सर्वव्यापकता तथा दयालुता को पलभर में जान लिया |
[स्रोत – चिन्न कथा, भाग 1]
चित्रण: कुमारी सैनी
अंकीकृत: कुमारी साई पवित्रा
(श्री सत्य साई बालविकास भूतपूर्व छात्रा)