सत्य परमेश्वर है
महान व्यक्तियों में अनेक सद्गुण विद्यमान होते हैं, जिन में से एक गुण, सत्य प्रीति भी है| बचपन से ही उनमें सत्यप्रीति होती है| उनका अटूट विश्वास और बचपन से ही सत्य का पालन करने की आदत बाद के जीवन में बुराई का सामना करने के लिए, धैर्य प्रदान करती है| स्वामी विवेकानन्द जैसे महान संत और लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी जैसे देश भक्त के जीवन से ऐसे ही अमूल्य सन्देश हमें प्राप्त होते हैं|
स्वामी विवेकानन्द अपने बचपन में नरेन्द्र दत्त के नाम से जाने जाते थे| उनकी सत्यप्रियता और धैर्य के कारण बचपन से ही उनके माता-पिता स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते थे| बाल्यावस्था से ही उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला और न कभी भी चूक होने पर अपनी गलती स्वीकार करने में हिचकिचाए |
एक दिन उनके शिक्षक ने कक्षा के सभी विद्यार्थियों की भूगोल की परीक्षा ली| प्रत्येक विद्यार्थी अपनी बारी आने पर शिक्षक द्वारा पूछे गये प्रश्न का उत्तर देता था| जब नरेन्द्र के पास बैठे विद्यार्थी की बारी आई तो शिक्षक ने उससे एक कठिन प्रश्न पूछा- विद्यार्थी ने थोड़ा घबराते हुए हिचकिचाहट के साथ उत्तर दिया| शिक्षक एक दम चिल्लाये – “क्या यही तेरा भूगोल का ज्ञान है? निश्चित् रूप से मैं जो कक्षा में पढाता हूँ, तुम उस ओर ध्यान नहीं देते हो और घर पर भी अध्ययन नहीं करते हो|” हाथ में छड़ी उठाते हुए उन्होंने कहा- “हाथ आगे करो” बालक ने हाथ आगे किये| गुरूजी उस लड़के के हाथ पर छड़ी मार पाते, उसके पूर्व ही नरेन्द्र उठा और साहस से बोला – “गुरुजी, कृपा कर के उसे न मारें | उसने सही उत्तर दिया है|”
समूची कक्षा स्तम्भित हो गई | शिक्षक ने क्रुद्ध दृष्टि से नरेन्द्र की ओर देखा और वे चिल्लाये, “क्या तू मुझे भूगोल सिखाने चला है? चल, अपने हाथ आगे कर|” नरेन्द्र ने हाथ आगे कर दिया और शिक्षक ने बार-बार नरेन्द्र के हाथों में छड़ी मारना प्रारम्भ कर दिया| फिर भी नरेन्द्र बार-बार कह रहा था- गुरुजी, उसका उत्तर सही है| नरेन्द्र ने दर्द में भी रोते हुए कहा, – “गुरुजी, कृपया भूगोल की पुस्तक देखें, मैंने सत्य ही कहा है|”
‘सत्य’ शब्द ने शिक्षक के हृदय को छू दिया, फिर भी नरेन्द्र को गलत साबित करने की आशा से उन्होंने पुस्तक खोली और जिस पृष्ठ पर पहले लड़के से पूछे गए प्रश्न का विस्तृत उत्तर था, उसे खोलकर पढने लगे| सभी बालक चिंताग्रस्त मुख से गुरुजी की ओर देखने लगे| उन्होंने देखा कि पढ़ते-पढ़ते गुरुजी का चेहरा उतर रहा था| फिर गुरुजी दोनों बालकों के पास आकर बोले- “मुझे क्षमा कर दो, मैंने उस उत्तर को समझने में गलती की| नरेन्द्र ने जो कहा वह सही है|” बाद में उन्होंने नरेन्द्र की ओर मुड़कर कहा- “प्रिय बालक, मुझे तुम्हारे धैर्य और सत्यप्रियता पर गर्व हो रहा है| तुम एक आदर्श विद्यार्थी हो|” शिक्षक के यह शब्द सुनकर उसके हाथों पर पड़ी छड़ी की मार की पीड़ा दूर हो गई, क्योंकि नरेन्द्र ने समझा कि, इस युद्ध में केवल सत्य की जय हुई है| इस सत्य-प्रेम के कारण ही नरेन्द्र, परमेश्वर के सम्बन्ध में तथा विश्व के सम्बन्ध में सत्य को जानने के लिए श्री रामकृष्ण परमहंस के पास गये | जब नरेन्द्र स्वामी विवेकानन्द बन गये, तो उन्होंने सम्पूर्ण जगत में सत्य का प्रसार करने की दिशा में कठोर परिश्रम किया| उस परिश्रम के पीछे एक ही उद्देश्य था कि मनुष्य ज्ञान सम्पन्न होकर सुखी जीवन व्यतीत करे |
प्रश्न:
- अपने मित्र को छड़ी की मार से बचाने का धैर्य व बल नरेन्द्र को कैसे प्राप्त हुआ?
- नरेन्द्र को मारने पर शिक्षक के पश्चाताप करने का क्या कारण था?
- सच बोलने के कारण क्या तुम्हें कभी अपमान अथवा सजा मिली है?
- सच बोलने के कारण क्या तुम्हें आनन्दित होने का मौका मिला है? अपना अनुभव सविस्तार बताओ|