स्वामी की बाल्यकाल की लीलाएँ एवं उनके प्रेम की झलकियाँ – भाग एक
बालक सत्या शाला से घर लौटने पर शाला में पढ़ाए गए पाठों के बारे में यदा-कदा ही बातें करते थे । परंतु अकसर ही वे यह बताया करते थे कि उस दिन उन्होंने अपने सहपाठियों अथवा अपने से बड़े लोगों को क्या सिखाया है ।
पाँच से सात वर्ष की आयु के नन्हे बच्चे सत्या के पास खेलने आते थे और भजन गाया करते थे । सत्या उस समय उन्हें सदाचरण के सिद्धांतों की शिक्षा देते हुए समझाते थे, “तुम्हारी माँ ने बहुत कष्ट और असुविधाएँ सहकर तुम्हें जन्म दिया है और पिता ने तुम्हारा पालन-पोषण किया है उन दोनों ने ही तुम्हारे लिए बहुत त्याग किया है । अतः तुम्हारा कर्तव्य है कि अपने माता-पिता से प्रेम करो और उनकी आज्ञा का पालन करो । माता-पिता की डाँट-फटकार के भय से कभी भी अपनी गलतियों को छुपाने का प्रयास नहीं करना । सत्य किसी भी परमाणु बम या हायड्रोजन बम से भी कहीं अधिक शक्तिशाली है । कोई भी अस्त्र-शस्त्र सत्य से अधिक शक्तिशाली नहीं है । परंतु तुम्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘सत्य’ इस प्रकार बोलो कि किसी कोभी कष्ट या पीड़ा न हो ।
जब बच्चे कुछ बड़े हो गए तो सत्या से सदाचरण के संबंध में प्रश्न पूछने शुरू कर दिए और तब सत्या उन्हें बताते, “क्रोध दंभ और ईर्ष्या के समान दुर्गुणों का त्याग करो । प्रेम का इतना विकास करो कि वह तुम्हारी प्राणवायु बन जाए । प्रेम के बल पर तुम सम्पूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त कर सकते हो । कभी भी चोरी नहीं करना । यदि तुम्हें किसी पुस्तक, पेन या भोजन की बहुत आवश्यकता हो तो अपने सहपाठी से पूछकर उसकी वस्तु लो ।” परंतु उन्हें बताए बिना कभी भी कुछ भी नहीं लेना ।
स्वामी को तो बच्चों से बहुत प्यार था ही परंतु बच्चें भी उनसे बेहद प्रेम करते थे । उन्हें बाबा से और उनकी शिक्षाओं से कितना प्यार था यह बाबा की अनुपस्थिति में उनके आपसी वार्तालाप से पता चलता है । केशत्रा, रेगना, सुब्बत्रा, रामत्रा और अन्य साथी एक दूसरे से कहते थे, “राजू की बातें कितनी मीठी होती हैं ना। मैं उससे बहुत प्रेम करता हूँ” दूसरा टिप्पणी करता, “तुम ही नहीं हम सभी उससे बहुत प्रेम करते हैं।” तीसरा बच्चा बोलता, राजू हमें कितनी सारी अच्छी-अच्छी बातें बताता है। क्यों न हम उनमें से कम से कम एक या दो को अपने आचरण में उतार लें |” केशत्रा बोला, ” ईश्वर मेरे माता, पिता, मेरा जीवन ही हैं |” अन्य जोर देकर बोला, “अब मैं सदैव सच ही बोलता हूँ ।”
उस छोटी उम्र से ही स्वामी ने विभिन्न जातियों और धर्मो के बीच एकता स्थापित करने का प्रयास किया । पुट्टपर्ती गाँव में कई मुसलमान भी रहते थे जो मोहर्रम मनाते थे । सत्या अपने मित्रों से कहते, “धर्म या पूजा-पद्धति से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है नैतिकता । नैतिकता हमारी प्राणशक्ति है। अतः धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करो । सबसे मित्रतापूर्ण व्यवहार करो और हम भी उनके साथ सम्मिलत होकर, मोहर्रम मनाएँ |”
एक दिन गंगन्ना नाम के एक हरिजन (आज, वे नब्बे वर्ष के हैं और उनका पुत्र प्रशांति निलयम में प्रशासनिक कार्यालय में काम करता है) बालक ने बाबा को भोजन करने के लिए आमंत्रित किया । सुब्बम्मा (सत्या का पालन करने वाली माँ) भी उनके साथ गई। गंगन्ना उन्हें देखकर कुछ भयभीत हो गया क्योंकि वे ब्राह्मण जाति की थीं परंतु सत्या ने समझाया, “तुम्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। इन भेदभावों को छोड़ों और ख़ुशी-ख़ुशी मिलजुल कर रहो । इस दुनिया में सिर्फ एक ही जाति है – मानवता और मात्र एक ही धर्म है – प्रेम ।’
सत्या ने अपनी प्राथमिक शिक्षा बुक्कापट्टनम में पूरी की । उसके आगे माध्यमिक शाला (हाईस्कूल) में प्रवेश लेने के लिए उन दिनों विद्यार्थियों को ई.एस.एल.सी की परीक्षा पास करनी होती थी । उस क्षेत्र के लिए उन दिनों यह परीक्षा पेनुकोंडा में आयोजित होती थी । उन दिनों वहाँ बस या ट्रेन भी नहीं थी। वास्तव में जब पेनुकोंडा रेलगाड़ी पहली बार पहुँची तो ग्रामवासियों को वह एक रहस्यमय वस्तु नजर आई और उन्होंने उसका वर्णन कुछ इस प्रकार किया, “साँप के समान एक वस्तु जो पटरी पर सरकती है और जिसके सामने के हिस्से में केवल एक ही बहुत चमकदार आँख है।”
उन दिनों ग्रामवासियों के लिए बुक्कापट्टनम से पेनुकोंडा जाना कुछ ऐसा ही था, मानो अमेरिका या रूस की लम्बी यात्रा । ईश्वरम्मा ने सत्या के लिए कुछ मिठाई और अन्य पकवान बनाए ।
उन दिनों कोई टिफ़िन-केरियर तो था नहीं, सो वे सब चीजें एक कपड़े में बाँध दीं । सत्या जब अपने साथियों के साथ जाने लगे तो माता-पिता रोने लगे। कुल आठ लड़के और उनकी देखभाल करने के लिए एक शिक्षक – वे सब एक बैलगाड़ी में बैठकर चले । वह रास्ता बहुत ऊबड़-खाबड़ था । जब भी खड़ी चढ़ाई आती थी तो शिक्षक आठों बच्चों को गाड़ी से नीचे उतारते । वे कुछ दूर पैदल चलते फिर शिक्षक उन्हें पुनः उठाकर बैलगाड़ी में बैठाते । रास्ते में कई बार उन्हें इस प्रकार बैलगाड़ी से उतर कर पैदल चलना पड़ा । वे प्रातः पाँच बजे घर से चले थे और साढ़े तीन किलोमीटर की दूरी तय करके रात को नौ बजे पेनुकोंडा पहुँचे ।
उन दिनों ठहरने के लिए कोई भी सुविधाजनक स्थान उपलब्ध नहीं था । इसलिए उन्होंने शहर के बाहर ही डेरा डाला और वहाँ तीन दिन रहे । सत्या प्रतिदिन पूरे दल के लिए नाश्ता, दोपहर का भोजन और रात का भोजन अकेले ही पकाते थे । इस कष्टप्रद यात्रा और ई.एस.एल.सी. की परीक्षा का परिणाम यह हुआ कि उन आठ विद्यार्थियों में से केवल सत्या ही परिक्षा में उत्तीर्ण हुए ।
बाकी बच्चों के लिए इस कष्टप्रद यात्रा से उबर पाना बहुत कठिन था और वे परिक्षा की प्रक्रिया से घबरा गए । जब लोगों को मालूम हुआ कि सिर्फ सत्या ही प्रथमश्रेणी में उत्तीर्ण हुए हैं तो उन्होंने उन्हें सजी हुई सुंदर बैलगाड़ी में बैठाकर पूरे गाँव में शोभायात्रा निकाली।
अब सत्या अपने बड़े भाई शेषम राजू के साथ कमलापुरम् में रहकर वहाँ के हाई स्कूल में पढ़ने लगे । वहाँ पानी की समस्या थी । पीने योग्य पानी प्राप्त करना बहुत कठिन था । सत्या को प्रतिदिन कुएँ से पानी खींचकर और बड़े घड़ों में ढो कर घर लाना होता था । यह काम सुबह नौ बजे तक रहता था । तब तक सत्या के स्कूल जाने का समय हो जाता था । वे जल्दी से बासी भात (रात का पका हुआ चावल नमकीन पानी में भिगों देते हैं) थोड़े से अचार के साथ खाकर स्कूल की ओर दोड़ जाते थे।
स्कूल में हर डेस्क पर तीन विद्यार्थी बैठ सकते थे । सत्या बीच में बैठते थे और उनके दोनों ओर रमेश और सुरेश नाम के दो विद्यार्थी बैठते थे । उन्ही दिनों उनके ड्रिल-टीचर ने शाला में स्काउट प्रांरभ किया । उन्होंने आज्ञा दी कि प्रत्येक विद्यार्थी को स्काउट दल में शामिल होना अनिवार्य है| उन्हें एक हफ्ते के अंदर स्काउट की वर्दी सिलवा लेनी है (एक खाखी पेंट-शर्ट और बैज–बिल्ला) और उनके दल को पुष्पगिरी के वार्षिक उत्सव में जाकर अपनी सेवाएँ देने का आदेश हुआ था ।
सत्या के पास एक भी पैसा नहीं था । राजू परिवार एक बड़ा संयुक्त कुटुम्ब था, इसलिए श्री वेंकप्पा राजू बहुत अधिक खर्च वहन नहीं कर सकते थे । पुट्टपर्ती से चलते समय उन्होंने सत्या को दो आना (उन दिनों दो आना बड़ी रकम थी) दिया था परंतु अब छः माह बीत चुके थे और वे पैसे भी खर्च हो गए थे । कक्षा एवं स्काउट दल के मुखिया होने के कारण सत्या के लिए पुष्पगिरी जाना बहुत जरूरी था परंतु वे समझ ही न पा रहे थे कि क्या करें?
सत्या के पास केवल एक जोड़ी कपडे थे, जिन्हें वे प्रतिदिन धोकर प्रेस करते थे । सत्या अपने शिक्षक को यह नहीं बताना चाहते थे कि उनके पास सिर्फ एक ही जोड़ी कपडे हैं और स्काउट की वर्दी सिलवाने के लिए पैसे भी नहीं हैं । ऐसा करने से उनके परिवार की प्रतिष्ठा पर आँच आती । अतः सत्या ने विचार किया कि वे न ही जाएँ तो अच्छा होगा ।
रमेश समझ गया कि सत्या को कोई परेशानी है अतः उसने अपने पिताजी से यह कहकर दो वर्दियां सिलवाई कि, “मुझे स्काउट की वर्दी बेहद पसंद है, वह कितनी शानदार दिखती है ना । मुझे दो जोड़ी वर्दी सिलवा दीजिए ना |”
कुछ दिनों बाद रमेश एक जोड़ी वर्दी एक कागज में लपेट कर शाला ले गए और उसे सत्या के डेस्क में इस चिट्टी के साथ रख दिया, “राजू तुम तो मेरे भाई समान हो । तुम्हें यह वर्दी लेनी ही पड़ेगी । यदि तुम यह वर्दी नहीं लोगे तो मेरे लिए जीवित रहना मुश्किल हो जाएगा |”
सत्या ने यह चिट्टी पढ़कर फाड़ दी और उत्तर लिखा, “यदि तुम सचमुच मेरी मित्रता चाहते हो तो इस प्रकार उपहार के लेन-देन की बात भूल जाओ । उपहारों का आदान-प्रदान उचित नहीं है क्योंकि वह मित्रता में दरार डालता है । मित्रता तो दो हृदयों का बंधन है और उपहारों का लेन-देन उसकी पवित्रता नष्ट कर देता है |” रमेश को वह वर्दी वापस लेनी ही पड़ी ।
पुष्पगिरी के मेले के लिए सिर्फ तीन दिन ही बचे थे । सभी मित्र सत्या पर दबाव दाल रहे थे कि, “राजू यदि तुम नहीं जाओगे तो हम भी नहीं जाएँगे।” प्रत्येक बच्चे ने बस का किराया दस रुपया और दूसरे खर्चों के लिए दो रुपया इस प्रकार बारह रुपए जमा करवाए । उन्हें अपने भोजन की व्यवस्था स्वयं ही करनी थी । सत्या के पास बारह रुपए तो थे नहीं अतः सबके साथ बस में जाना असंभव था । उन्होंने पेट दर्द का बहाना बनाया और कहा कि वे दर्द ठीक होते ही आ जाएँगे । इस प्रकार पूरे दल को सत्या को वही छोड़कर जाना पड़ा ।
उनके जाने के बाद सत्या ने अपनी पिछली कक्षा की पुस्तकें निकालीं । वे उन्होंने इतने अच्छे से रखी थीं कि बिलकुल नई ही दिखती थीं । उन पुस्तकों को लेकर वे एक हरिजन गरीब विद्यार्थी के पास गए जिसने उसी समय प्रवेश लिया था । सत्या उसे वे पुस्तकें आधे दामों पर देना चाहते थे परंतु जब उन्होंने देखा कि वह तो उतने पैसे भी नहीं दे सकता है तो सत्या बोले, “तुम चिंता न करो |” वह गरीब विद्यार्थी इतनी कम कीमत में नई पुस्तकें पाकर बेहद प्रसन्न हुआ । सत्या ने हिसाब लगाया कि पाँच रुपयों में तो उनका भोजन और दूसरे खर्चों का इंतजाम हो ही जाएगा । उन दिनों कागज के रुपए तो थे नहीं और एक रुपए के सिक्के उस गरीब के पास थे नहीं, इसलिए उसने सत्या को ढेर सारी चिल्लर दे दी । जिसमें ताँबे के सिक्के, पैसे आना आदि था । जब सत्या इन पैसों को एक फटी हुई कमीज़ के कपड़े के टुकड़े में बाँधने लगे तो वह कपड़ा फट गया तथा सारे सिक्के खनखनाते हुए फर्श पर बिखर गए ।
सिक्कों की खनखनाहट सुनकर गृहस्वामिनी वहाँ आई और आनन्-फानन सत्या पर इल्जाम लगा दिया कि, “तुम्हें यह पैसा कहाँ से मिला? कहाँ से चुराए हैं तुमने इतना सारा पैसा?” सत्या ने बहुत समझाया कि वे निर्दोष हैं । वे उस बालक को भी बुलाए जिसको उन्होंने पुस्तकें दी थीं परंतु वे महिला संतुष्ट नहीं हुई । उन्होंने सत्या को मारा भी और कहा, “तुमने ये पैसे मेरे ही घर से चुराए हैं इसलिए तुम्हारा दंड यह है कि तुम्हारा खाना-पीना बंद |”
सत्या नहीं चाहते थे कि परिवार की प्रतिष्ठा धूमिल हो । यदि उनसे कोई पूछे कि, “क्या बात है, तुम घर पर भोजन क्यों नहीं करते?” तो क्या उत्तर देंगे । यह सोच कर सत्या परेशान हो गए कि इससे तो परिवार की प्रतिष्ठा को धक्का लगेगा । अतः वे तुरंत पुष्पगिरी की ओर चल पड़े और नौ मील पैदल चलकर वहाँ पहुँचे ।
चिलचिलाती धूप और पीने योग्य पानी का कहीं पता ही नहीं । प्यास से बेहाल सत्या ने वह पानी पिया जिसमें मवेशियों को नहलाया जाता था । इस प्रकार कष्ट सहन करते हुए सत्या मेले तक पहुँच ही गए और खूब मन लगाकर अपने मित्रों के साथ सेवाकार्य में जुट गए ।
उनके उत्साह को देखकर उनके साथी भी निः स्वार्थ सेवा करने के लिए प्रेरित हुए । परंतु यहाँ भी सत्या ने तीन दिन कुछ भी नहीं खाया । किसी भी विद्यार्थी या शिक्षक को कुछ भी नहीं मालूम हुआ परंतु रमेश ने किसी प्रकार यह जान ही लिया कि सत्या भोजन नहीं कर रहे हैं । इसलिए चुपके से (क्योंकि सत्या यह पसंद नहीं करते कि इस बात की जानकारी अन्य किसी को हो।) वे दोसा या अन्य खाद्य पदार्थ ले आते और सत्या को खिलाते । बचे हुए दिन सत्या ने इसी प्रकार बिताए ।
जब चलने का समय आया तो सत्या ने रमेश से एक रुपया उधार लिया और स्पष्ट कर दिया कि यह उधार है उपहार नहीं । उस पैसों से उन्होंने परिवार के सदस्यों के लिए कुछ फल, कुंकुं आदि ख़रीदा और फिर से चुपके से दल से अलग होकर पैदल ही वापस घर पहुँचे ।
इधर सत्या पिछले आठ दिनों से घर पर नहीं थे तो पानी कौन भरता? इसलिए परिवारजनों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा । इसके अलावा गृहस्वामिनी ने शोषम राजू से सत्या की और भी कई शिकायतें कीं ।
शोषम राजू पहले से भरे तो बैठे ही थे अतः सत्या जैसे ही घर पहुँचे उन्होंने अपना पूरा क्रोध उन पर उड़ेल दिया । वे उस समय एक स्केल से (उन दिनों स्केल एक लम्बी छड़ी के समान होती थी।) अपनी कापी पर रेखाएँ खींच रहे थे, आव देखा न ताव और उस स्केल से सत्या की उंगलियाँ पर इतना मारा कि वह स्केल टूटकर कई टुकड़ों में बिखर गई।
कुछ पड़ोसियों को मालूम हो ही गया कि पानी का अभाव झेलने के कारण उपजा क्रोध और चिढ़ किस प्रकार शोषम राजू ने सत्या पर निकाला है । अगली बार जब श्री वेंकप्पा राजू सत्या से मिलने पहुँचे तो उन पड़ोसियों ने उन्हें पूरा किस्सा सुनाया । उस समय भी सत्या के हाथ में सूजन थी और पट्टियाँ बंधी हुई थी । किसी प्रकार उन्होंने अकेले में सत्या से उनके हाथों के घावों के बारे में पूछा । उन्होंने सत्या से कहा कि वे उनके बारे में चिंतित हैं और यह भी कहा कि सत्या उनके साथ पुट्टपर्ती लौट चलें, जहाँ जीवन इतना कठिन नहीं है । सत्या ने मधुर वाणी में पिताजी को समझाया । उन्होंने कहा कि इस परिवार ने अभी-अभी ही अपने सबसे बड़े पुत्र को खोया है ।
अभी तुरंत वे सत्या के बिना अकेले पड़ जाएँगे । इसके अलावा यदि वे तुरंत यहाँ से चल देंगे तो लोग चर्चा करेंगे जिससे परिवार की प्रतिष्ठा धूमिल होगी । साथ ही उन्होंने वचन दिया कि वे शीघ्र ही पुट्टपर्ती लौट आएँगे ।
अभी भी स्वामी विद्यार्थियों को अक्सर समझाते हैं कि घर से बाहर कभी भी कोई ऐसी बात नहीं करना चाहिए जिससे परिवार का सम्मान घटे या उसकी बदनामी हो ।
जब सत्या पुट्टपर्ती लौटे तो माता ईश्वरम्मा ने उनके बाएँ कंधे पर एक काला दाग देखा और कारण पूछा ।
सत्या ने पहले तो हँसकर टाला परंतु माँ की ज़िद करने पर उन्होंने बताया कि वे एक काँवर में दोनों ओर पानी से भरे पात्र रखकर पानी भरा करते थे ।
शायद यह दाग काँवर की लकड़ी के घिरने से पड़ा था। सत्या बोले, “अम्मा यह मेरा कर्तव्य था । भला बच्चे जहर के समान खारा पानी कितने दिन पीते? माँ, मैं जीवन का जल बहुत ख़ुशी से ले जाता हूँ। मैं यही सेवा करने के लिए ही तो आया हूँ |”
[Illustrations by C.Sainee, Sri Sathya Sai Balvikas Alumna]