महात्मा गांधीजी
I
अप्रैल1936, में मगनवाड़ी (वर्धा) में, मैं गांधीजी से पहली बार मिला, मेरा एकदम मोहभंग हो गया। इसलिए नहीं कि मैं निराश हुआ उनसे मिलकर अपितु उनकी जो छवि मेरे मन में थी मैंने उन्हें उससे बिल्कुल विपरीत पाया। मैंने भी अन्य लोगों की तरह, उन्हें बहुत धीर और गंभीर व्यक्तित्व वाला सोचा था। परंतु अल्पसमय के परिचय में ही मैंने उन्हें अत्यंत सहृदय और निश्छल झरने की तरह हँसमुख और हाज़िरजवाब पाया।
“आप कौन सा कार्य यहाँ पर करना चाहेंगे?” गांधीजी ने प्रश्न किया।
“मैं आप की सेवा में प्रस्तुत हूँ | बापूजी, आप आज्ञा करें!”
“मुझे ज्ञात है कि तुम कुछ दिन पहले ही इंग्लैंड से लौटे हो और अच्छे साहित्यिक कार्य कर सकते हो, पर मैं तुम्हे वो काम नही दूँगा। क्या तुम्हें चरखे का वैज्ञानिक महत्व पता है? यह मेरा चरखा है, काम नहीं कर रहा, क्या इसको सुधार सकते हो?”
“मुझे खेद है, मुझे चरखे के विषय में कोई ज्ञान नहीं हैं। मुझे पहले इसकी तकनीक के बारे में जानना होगा |”
“क्या तुम्हें नही लगता हैं कि फिर तुम्हारी पूरी शिक्षा व्यर्थ हो गयी? हिंदुस्तानी किंवदंती के अनुसार, तुम्हारी शिक्षा खाक छानने के बराबर हुई” – गांधीजी जोर से हँसते हुए बोले।
“मैं, आपसे सहमत हूँ बापूजी,” मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
“ठीक है फिर मैं तुम्हे वही काम देता हूँ, सही अर्थों में। यहाँ खाई वाले शौचालयों के लिए अच्छी रेत निकालना है। इसमें तुम सार्जेंट एम.एस. की मदद क्यों नहीं करते?”
“मैं सहर्ष यह कार्य करने को राजी हूँ” – मेरा तुरंत ये उत्तर था। “मैंने बहुत बागबानी की है और यह कार्य नया नहीं होगा मेरे लिए |”
“अच्छा” कहकर गांधीजी मुस्कुरा दिए। “मैं हर रविवार को वह काम कई महीनों तक करता रहा।”
II
गांधी जी कई महीने मेरे वर्धा वाले कुटीर में रहे, साल में दो बार। पहली बार जब 1944 में आये, तब तीन तकिया रात को लेते थे सोने के लिए। अगली बार फरवरी 1945 में, मैंने पाया उन्होंने तकिया लेना बिल्कुल छोड़ दिया था।
“बापूजी आप तकिया क्यों नहीं इस्तेमाल करते आजकल?” – मैने झिझकते हुए पूछा।
“मैंने सुना है, शवासन गहरी निद्रा में मदद करता है इसलिए उसी आसन का प्रयास कर रहा हूँ |”
“बापूजी, आपका जीवन वैसे ही कितने प्रयोगों को झेल चुका है, आप का स्वास्थ्य बहुत नाज़ुक है ऐसे प्रयास न ही करें तो अच्छा होगा |”
“अरे नहीं! मेरा जीवन स्वयं एक प्रयोगशाला है, और ये सब प्रयोग मेरी मृत्यु के साथ समाप्त होंगे” – मुस्कुरा कर गांधीजी बोले।
III
“पिछले साल गांधीजी को जब बंगाल की यात्रा पर जाना था, रेलगाड़ी में तृतीय श्रेणी के दो डिब्बों को उनकी पार्टी के लिए आरक्षित किया गया। पर उन्हें लगा दो की जगह एक डिब्बे में सभी यात्री आ जायेंगे, उन्होंने कनु गांधी को बोल कर एक खाली करवा दिया।
“पर बापू हमारे लिए तो दो डिब्बे आरक्षित हुए हैं, रेलवे को हम भुगतान कर चुके हैं |”
“इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम बंगाल, असंख्य भूखे मानव की सेवा के लिए जा रहे हैं। हम इतनी सुखद यात्रा करें, यह हमें शोभा नहीं देता है” – और क्या तुम्हें तृतीय श्रेणी के डिब्बे खचाखच भरे हुए दिखाई नहीं दे रहे हैं? – इसलिए आवश्यकता से अधिक स्थान लेना उचित नहीं होगा। तृतीय श्रेणी में आरक्षित स्थान में जाना एक अन्याय पूर्ण मजाक होगा” गांधीजी बोले।
इसके पश्चात् बहस की कोई गुंजाइश नहीं रही। सभी पार्टी के सदस्यों ने दूसरे डिब्बे को अन्य यात्रियों के लिए खाली कर दिया। इसके पश्चात् ही बापू शांति से गहरी निद्रा में सो पाए।