अंगुलिमाल
डाकू अंगुलिमाल मगध राज्य के जंगलों में रहता था| लोगों को लूटना और उनको जान से मार देना उसका काम था| व्यक्ति को भी मार कर उसकी एक ऊँगली काटकर उसकी माला बनाकर पहन लेता था, जिससे उसका नाम अंगुलिमाल हो गया| डाकू ने एक हज़ार अंगुलियाँ पहनने की कसम खाई थी|
एक दिन अंगुलिमाल,मार्ग पर किसी के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। उसकी बाँधी गई उँगलियों की माला में और भी कुछ उँगलियों को जोड़ना बाकी था। तब दूर, से एक संन्यासी को आता देख कर, डाकू उसकी ओर दौड़ा और चिल्लाने लगा, “अरे!! संन्यासी! वहीं ठहरो।” तेजी से दौड़ता उनके पास आने लगा, पर, तेजी से दौड़ने पर भी वह उस संन्यासी के पास पहुँच नहीं पा रहा था। वह संन्यासी और कोई नहीं भगवान बुद्ध थे, और उसकी ओर आ रहे थे। वे शांत रूप से कहने लगे, “मैं तो भाग नहीं रहा तुम ही भाग रहे हो|” “यह तुम क्या कह रहे हो?” आश्चर्य चकित होकर, अंगुलिमाल, पूछते हुए उनके पास आया। बुद्ध ने करुणापूर्ण स्वर में कहा, “बेटा! तुम अब भी अपने मन की शांति की खोज में भटक रहे हो।” आश्चर्य चकित होकर वह डाकू सोचने लगा, “अहा! यह कौन है? मुझे बच्चा कहकर बुला रहा है! क्या सच में मुझे बेटा मानता है?”
गरजते स्वर में डाकू ने बुद्ध से पूछा, “तुझे मालूम है कि मैं कौन हूँ? मुझे तेरा उपदेश नहीं चाहिए। मुझे तेरी छोटी उँगली ही चाहिए।” “ऐसी बात है तो , ले लो बेटा।” कहकर बुद्ध ने अपने दोनों हाथों को उसके सामने बढ़ा दिया।
“तेरी उँगलियों के साथ तेरे को जान से भी मार सकता हूँ|” कहकर अंगुलीमाल ने और भी डराने की कोशिश की। शांत रूप से बुद्ध ने जवाब दिया, “अगर इससे तेरे मन को शांति मिलती है तो, बिना हिचके मेरे प्राण भी ले सकते हो।”
अंगुलीमाल ने अपने जीवन में, अब तक ऐसे शांतिपूर्ण प्यार भरे, आदमी को कभी नहीं देखा था। उनकी सहिष्णुता, शांति, प्यार, करुणा आदि देखकर, उसमें एक आमूलचूल परिवर्तन आया। उसने तुरंत उनके चरणों में, साष्टांग प्रणाम किया। आँसू बहाकर दृढ़ स्वर में कहा, “स्वामी! आगे से मैं किसी को भी नही मारूँगा।”
बुद्ध ने उसे गले से लगा लिया। जंगल के पास एक मठ में उसे ले गए। वहाँ, आनन्दपिण्डक नामक साधु से उसका, परिचय करा कर सौंप दिया मानों अंगुलिमाल वहाँ का एक और भाई हो।
दूसरे दिन प्रातःकाल श्रवंति के राजा ने उस मठ में, आकर भगवान बुद्ध को नमस्कार किया। उसे गौर से देखकर बुद्ध ने कहा, “आप किसी आक्रमण पर जाने की तैयारी में दिखाई दे रहे हैं।”
राजा ने विनम्र होकर कहा, “हाँ! देव! मैं अंगुलिमाल को ढूँढकर, तुरंत उसे मारना चाहता हूँ। मेरे इस कार्य के लिए आपका आशीर्वाद प्राप्त करने यहाँ आया हूँ।”
बुद्ध ने राजा से पूछा, “हे! राजन! अंगुलिमाल,यदि अपने क्रूर मार्ग को छोड़कर, एक साधु का जीवन स्वीकार करेगा, तो तब आप क्या करेंगे?”
राजा ने आश्चर्य चकित होकर कहा, “प्रभु! इसमें क्या सन्देह है? उसे मैं सिर झुकाकर प्रणाम करूँगा,पर मैं कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ कि, अंगुलिमाल एक साधु बन जाएगा।”
बुद्ध ने शांत स्वर में कहा, आइए! आकर उस ओर देखिए, वह पौधों को पानी दे रहा है।”
राजा ने बहुत प्रसन्न होकर कहा, “यह क्या विनोद है? हे देव! मेरी राजबल, शारीरिक बल तथा मनोबल की सहायता से उसे अभी तक नियंत्रित करने में, मैं असमर्थ रहा, परंतु आप ने एक उंगली हिलाये बिना उसे जीत लिया।” जीव जंतुओं को प्यार करनेवाले, स्नेही हृदय, प्रेम पूर्ण व शांति पूर्ण भगवान बुद्ध अनेक वर्ष जिएँ।”
राजा, भगवान बुद्ध के चरणों में गिर गए।
प्रश्न:
- डाकू का नाम अंगुलिमाल क्यों पड़ा?
- वह बुद्ध को क्यों नही पकड़ पा रहा था?
- डाकू के स्वभाव में परिवर्तन कैसे आया?