बद्रीनाथ केदारनाथ
हिमाच्छादित दुर्ग हिमालय, भारतीयों की पवित्र तपस्थली हैं। “पर्वतों में, मैं हिमालय हूँ” – ऐसा श्रीकृष्ण ने भगवद गीता में कहा था। इन पवित्र पर्वत ऋंखलाओं में तीन हज़ार मीटर की ऊँचाई पर स्थित है प्राचीन मंदिर बद्रीविशाल जी का। चारों ओर ऊँचे पहाड़ों से घिरा एक तरफ नर नारायण पर्वत और दूसरी ओर से बहती अलकनंदा।
इस मंदिर के विग्रह हैं विष्णु जी जो बद्रीनारायण के नाम से पूजे जाते हैं। आकर्षक ध्यान मुद्रा में स्थित मूर्ति। उनके मस्तक पर सुशोभित है एक बड़ा हीरा और शरीर पर विभिन्न प्रकार के स्वर्ण अलंकार। यह एक अति प्राचीन स्थान एवम् पुरातन मन्दिर है किन्तु इस मन्दिर और विग्रह को अनेक वर्ष तक लोग भूल चुके थे। श्री शंकराचार्य जी ने ध्यानस्थ होकर जाना कि विग्रह अलकनंदा में डूबा हुआ हैं, उन्होंने उनको पुनःस्थापित करके उनके तेज को जाग्रत किया। इस मंदिर के कपाट, वर्ष में केवल छह महीने दर्शन के लिए खुले रहते हैं, बाकी के छः महीने बर्फ से ढँके रहते हैं, मानो प्रकृति उन दिनों वो स्थान स्वयं के लिए रखती हैं। उन महीनों में विग्रह के प्रतिनिधि स्वरूप को जोशीमठ में पूजा जाता है। आश्चर्य की बात यह है कि जब शीत काल के बाद कपाट खुलते हैं, तब भी छः महीने पूर्व पुजारी द्वारा प्रज्ज्वलित दीपक जलता हुआ पाया जाता है।
केदारनाथ मंदिर भगवान शिव का मंदिर है। मन्दिर तक जाने का रास्ता जब बर्फ से ढँक जाता है, तब उनकी पूजा अर्चना, उखीमठ में होती है। प्रचलित किंवदंती ये है कि पांडवों का अपने अंतिम यात्रा का अंतिम पड़ाव इसी स्थान पर था द्रौपदी इसके पूर्व ही प्राण त्याग चुकी थी तथा सहदेव यहाँ मृत्यु को प्राप्त हुए थे।
प्राकृतिक छटा के मध्य भगवान शिव के ध्यान में मग्न बैठे रहे पांडव इस कारण यह शिव का धाम कहलाया
Source – Stories for Children – II
Published by – Sri Sathya Sai Books & Publications Trust, Prashanti Nilayam