जैन धर्म
बौद्ध धर्म के कुछ समय पश्चात् ही जैन धर्म का उद्भव हुआ, एक मायने में वह हिन्दू धर्म की भगिनी अथवा पुत्री है। जैन धर्म भी एक आर्य धर्म है। यद्यपि बौद्ध धर्म के समान इसने भी वेदों की श्रेष्ठता को – अस्वीकार कर ललकारा है।
कहा जाता है कि 8 वी शताब्दी ई.पू. के आसपास आर्यों के एक समुदाय ने वेदों के कुछ आदेशों के विरुद्ध एक जबर्दस्त आवाज उठाई। वे विशेषकर इस बात से सहमत नहीं थे कि भौतिक लाभ अथवा स्वर्ग की प्राप्ति हेतु ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए यज्ञों में पशुओं की बलि दी जाए। उस समय यह एक धार्मिक परम्परा थी और उसके विरुद्ध बढ़ती भावना ही वेदों के अधिकार को चुनौती का कारण बनी। क्योंकि सभी जीव पवित्र हैं तो निरपराध पशुओं की यज्ञ के नाम पर हत्या क्यों हो ? उनकी धारणा थी कि पशु हत्या के स्थान पर अधिक आवश्यकता उस तपस्वी जीवन की है जो मानव में स्थित पशुता का दमन करे। कुछ समय पश्चात् इसी विचारधारा के एक समुदाय ने महावीर की दीक्षा में अपने आपको नए धर्म में अनुबंधित किया, जो आज जैन धर्म के नाम से जाना जाता है। इस धर्म की जड़ें प्राचीन काल में भी विद्यमान थीं जिसकी उत्पत्ति का संबंध प्राचीन काल के ऋषभदेव से है। ऋषभदेव का उल्लेख श्रीमद्भागवत में एक प्रतिभाशाली राजा के रूप में है, जो कि एक उच्च कोटि के योगी बन गए थे और तत्पश्चात् उनकी गणना भगवान विष्णु के 21 अवतारों में हुई है।
वर्धमान महावीर, जैन धर्म के 24 वें तथा जैन तीर्थंकारों में से आखिरी तीर्थंकर कहे जाते हैं। ऋषभदेव प्रथम तथा पार्श्वनाथ 23 वें तीर्थंकर कहे जाते हैं। तीर्थंकर शब्द का अर्थ है वह, जो कि इस भौतिक संसार को पार करने की नौका प्रदान करता है। धर्म ही यह नौका है। वर्धमान ने जैन धर्म को एक सुसम्बद्ध ठोस समुदाय में संगठित किया। वे “जिन” भी कहे जाते हैं, अर्थात् विजेता। वे जो केवल सांसारिक ऐश्वर्यों के विजेता न होकर पारलौकिक राज्यों, अपने स्वयं के अहंकार के साथ इंद्रियों एवं वासनाओं पर भी विजय प्राप्त कर लेते हैं।
वर्धमान महावीर स्वामी की जीवनी
वर्धमान महावीर एक क्षत्रिय राजपूत थे। उनके पिता सिद्धार्थ वैशाली राज्य में कुंडलपुर के राजा थे। उनकी माता का नाम त्रिशला था। राजघराने के वैभव ने उन्हें प्रभावित नहीं किया। उनका मन तो जीवन की महानतम समस्याओं में डूबा रहता था कि मानव के दुःखों को कैसे दूर किया जाए। उनको आभास हुआ कि इन समस्याओं का निराकरण राजमहल एवं राज्य की उलझनों में नहीं मिल सकेगा। यही कारण था कि उन्होंने अपनी 30 वर्ष की आयु में संसार का त्याग कर दिया था। शरीर मन एवं प्रकृति को भली-भाँति समझने के लिए जिस प्रकार का जीवन आवश्यक है, उसे वैसा अनुशासित करके वे तपस्या में लग गए। यह उन्होंने 12 वर्ष की अवधि तक किया जिसके अंत में उनको परम ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने दुःखों के कारण एवं उन्हें दूर करने के उपायों को जाना तथा उसे अपने जैन सिद्धांतों एवं जैन धर्म में प्रतिपादित किया। जीवन के शेष 30 वर्षों तक उपदेश देकर उन्होंने अपने मत में असंख्य अनुयायी बनाए। 72 वर्ष की आयु में बिहार राज्य के पावापुरी में उन्होंने निर्वाण पाया। वे अपने पीछे एक ठोस संगठित समुदाय छोड़ गए जो बदलती कालगति के साथ 25 शताब्दियों से फैलता रहा।
जैन धर्म का दर्शन
जैनियों का मानना है कि जब मनुष्य सभी कर्मों से मुक्त हो जाता है, तभी वह केवल ज्ञान या परम ज्ञान प्राप्त कर सकता है। जन्म मरण के चक्र से मुक्त होने के लिए कुछ नियमों का पालन करना चाहिए। संन्यासियों के नियम बहुत सख्त हैं। लेकिन गृहस्थ या आम आदमी के लिए वे कहीं अधिक उदार हैं। ये निम्नलिखित हैं-
- अहिंसा: प्रत्येक भौतिक वस्तु में एक आत्मा होती है और इसलिए किसी भी जीवित प्राणी को नुकसान नहीं पहुंँचाना चाहिए बल्कि उनके प्रति सकारात्मक दया दिखानी चाहिए।
- सत्य: वाणी में सच्चाई होनी चाहिए।
- अस्तेय: चोरी नहीं करनी चाहिए। चोरी का विचार भी पाप है।
- अपरिग्रह: व्यक्ति को लालच और धन संचय नहीं करना चाहिए। किसी के पास केवल उतना ही होना चाहिए जितना जीवित रहने के लिए आवश्यक हो।
- ब्रह्मचर्य: व्यक्ति को विचार, वचन और कर्म से पवित्र होना चाहिए।
जैन धर्म जीवन में 3 रत्नों का उपदेश देता है:-
- सही ज्ञान (सम्यक ज्ञान)
- सम्यक् दृष्टि (सम्यक दर्शन)
- सही आचरण (सम्यक चरित्र)
इन 3 उपदेशों का पालन करने से व्यक्ति को मोक्ष, सभी दुखों से मुक्ति, सभी पीड़ाओं से मुक्ति मिलती है। जैन धर्म एक ऐसा धर्म है जिसमें सभी जीवों को सम्मान के योग्य माना गया है और यह सूक्ष्म जीवों जैसे छोटे से छोटे जीव की भी रक्षा करने के पक्ष में रहता है। सूक्ष्म जीवों में सांँस लेने और उन्हें नुकसान पहुंँचाने से बचने के लिए जैन मुनि अक्सर मुंँह पर मास्क पहनते हैं। वे नंगे पैर चलते हैं ताकि उन छोटे जीवों को नुकसान न पहुंँचे जिन पर वे कदम रखते हैं।
जैन धर्मग्रंथ एक लंबी अवधि में लिखे गए थे, लेकिन लगभग 1800 साल पहले भिक्षु-विद्वान, उमास्वती या उमास्वामी द्वारा लिखित तत्त्वार्थ सूत्र या वास्तविकता की पुस्तक सबसे प्रसिद्ध है।
जैन प्रतीक (नीचे दिखाया गया है) एक यौगिक है, जो जैन धर्म के लिए कई अन्य महत्त्वपूर्ण प्रतीकों से बना है। प्रतीक, मूल जैन शिक्षाओं को समाहित करता है।