मतभेद होने पर भी सभी से प्रेम और सौजन्यता
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी चारीत्रिक विशेषता होती है। हर एक अपना सही या गलत दृष्टिकोण रखता है। हमारे लिए यह संभव नहीं है कि हम किसी के सभी विचारों से सहमत हो जायें तथापि हमें सदा तटस्थ और बिना किसी पूर्वाग्रह के दूसरों के विचारों को समझने का प्रयत्न करना चाहिए और यदि दूसरों के विचार सही तथा अपने गलत हों तो हमें स्वयं उनके अनुकूल बन जाना चाहिए।
इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है। भूल मनुष्य से ही होती है और जीवन लगातार सीखने तथा अपने को सुधारने की सतत प्रक्रिया का नाम है। यह कहा जाता है कि मानवीय भूलों और गल्तियों को दयासागर प्रभु भी क्षमा कर देते हैं। कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं है, एकमात्र ईश्वर ही पूर्ण हैं। यह समझकर अपनी मान्यताओं एवं भावनाओं के विषय में हठवादी तथा दुराग्रही नहीं होना चाहिए। इस तरह मतभेदों से हमें अपने परिवार के सदस्यों या बाहरी लोगों के साथ प्रेम का बंधन नहीं तोड़ना चाहिए। इस संदर्भ में बाबा, शिवजी के परिवार का उदाहरण देते हैं। शिव के परिवार में हम देखते हैं कि भगवान शिव और माता पार्वती अपने पुत्र गणेश और सुब्रमण्यम के साथ अत्यन्त विरोधी तत्वों के बीच घिरे बैठे हैं। इस देव परिवार के वाहन सिंह और बैल (नंदी), मोर और सर्प और चूहा एक दूसरे के शत्रु हैं, परन्तु चित्रों में हम देखते है कि उनमें परस्पर स्नेह और एकता है। सभी परिस्थितियों में क्रोध पर संयम तथा अपने शत्रु तक के प्रति भी समुचित स्नेहमय व्यवहार की आदत बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
बाबा कहते हैं कि वन में रहकर यदि तुमने क्रोध को वश में कर लिया है तो यह निरर्थक बात होगी। जब तुम अनेक सांसारिक परिस्थितियों एवं लोगों से घिरे हुए हो तो जहाँ संघर्ष और क्रोध की संभावना है तो ऐसी परिस्थिति में संयमित रहकर क्रोध पर नियंत्रण रखना वास्तविक उपलब्धि है। इस तरह परिवार और समाज में रहते हुए हमें अपनी भावनाओं को, ईर्ष्या, घृणा आदि का त्याग कर उदात्त बनाना है।
इसीलिए बाबा कहते हैं – Hands in society and Head in forest. हाथ समाज में तथा मस्तिष्क जंगल में। अर्थात् समाज में कर्तव्य कर्मों में प्रवृत्त रहो और मस्तिष्क में वन की तरह एकांत निर्बाध ईश चिन्तन करो। क्रोध-संयम हेतु बाबा कहते हैं जब क्रोध बढ़ने लगे तो तुरन्त एक गिलास पानी पीकर भगवान का स्मरण करना चाहिए। केवल भगवान का स्मरण ही क्रोध को ठण्डा कर धैर्य प्रदान करेगा। एक ही ईश्वर की संतान होने से हम आपस में भाई-भाई हैं और सूक्ष्म दृष्टि से भी हम सभी एक हैं। यथार्थ में वह मैं और तुम का हममे कोई भेद नहीं है। अत: हम अपने हृदय को ऐसा बनाये कि जिसमें सभी के लिए सौहार्द्र एवं प्रेम हो।
पारिवारिक कार्यों और पारिवारिक साधना में सहभागी बनना
दूसरों की सेवा करना प्रत्येक का कर्त्तव्य है। यह सेवा घर से ही प्रारम्भ होनी चाहिए। हम सभी सामाजिक प्राणी हैं। कोई भी किसी दूसरे की मदद बिना नहीं रह सकता। जीवन में मृत्यु पर्यन्त हमें दूसरों की मदद चाहिए। इसके लिये बदले में दूसरों की सेवा करना हमारा परम कर्त्तव्य है।
बच्चों को भी अपनी शक्ति के अनुसार छोटी-छोटी सेवा करने की कोशिश करनी चाहिए। जैसे दैनिक कार्यों में माँ की मदद करना, छोटे भाई बहनों की पढ़ाई में सहायता आदि। कोई भी सेवा हल्की या छोटी नहीं है। क्या हमने रामायण में छोटी गिलहरी की कथा नहीं पढ़ी? जिसने अपनी नन्हीं सी शक्ति के अनुसार समुद्र पर पुल बनाने के लिए रेत के कुछ कण लाकर सहायता की थी और जगत के स्वामी भगवान श्री राम उसकी उस अल्प सेवा के लिए कृतज्ञ हुए थे।
बच्चों को कभी भी अपने माता-पिता को न तो परेशान करना चाहिए और न ही उनसे कठोर व्यवहार करना चाहिए। अन्य किसी को तुम्हारे कारण कोई असुविधा न हो इसका ध्यान रखकर अपने घर में हिलमिल कर सभी परिस्थितियों के अनुकूल बनाना चाहिए। क्योंकि समाज तथा संसार में निर्वाह हेतु घर ही सर्वोत्तम प्रशिक्षण स्थल है।