अतिथि के प्रति
हमारे वेद कहते हैं – अतिथि देवोभवः । अतिथि स्वयं भगवान है। हमारे पुराणों में ऐसी बहुत सी कहानियाँ हैं जिसमें बताया गया है कि किस तरह अकाल के दिनों में परोपकारी जनों ने स्वयं भूखे रहकर भूखे अतिथि को अपना भोजन देकर प्राण तक त्याग दिये। महाभारत में कुरुक्षेत्र में रंतिदेव नामक ब्राह्मण और उनके परिवार की कथा सोने की पीठ वाले नेवले ने राजा युधिष्ठिर को सुनाई थी। जब राजा बलि के यहाँ भगवान वामन अतिथि रूप में आये तो उन्होंने अपना सर्वस्व और जीवन तक दान कर दिया। कर्ण की दानप्रियता आज भी प्रसिद्ध है। यह जानते हुए भी जो माँगा गया है उससे उनके जीवन को खतरा है वे बिना कुछ सोचे उन्होंने अपना कवच और कुण्डल दान कर दिया विक्टर ह्यूगों के प्रसिद्ध उपन्यास लेस मिजरेबिल्स में भूख से मर रहे तथा घर से तिरस्कृत एक कैदी जीन वाल्जिन का बिशप (बड़े पादरी) ने ‘आओ भाई यह तुम्हारा घर है।’ कहकर स्वागत किया और उसे चाँदी के बर्तनों में भोजन कराया। जब दूसरे दिन सबेरे जीन वाल्जिन विशप के घर से चाँदी की प्लेट चुराकर ले जाते हुए पकड़ा गया तो विशप ने उसे यह कहकर पुलिस से बचाया कि यह प्लेट तो उन्होंने जीन बाल्जिन को दी थी। बिशप के यही शब्द ईशावास्य उपनिषद् में प्रतिवध्वनित होते हैं कि ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु केवल ईश्वर की है और किसी का भी उस पर पूरा अधिकार नहीं है। सभी कुछ ईश्वर की भेंट हैं और सभी के लिए बराबर हैं।
घरेलू जीवन में यदि हम सब अपने माता-पिता, परिवार के सदस्यों, सेवकों तथा अतिथि के प्रति ऐसा दृष्टिकोण अपना लें तो हमारे घर में आनंद छा जायेगा। व्यापक सार्वभौमिक दृष्टिकोण के लिए घर ही पहला प्रशिक्षण स्थल है। घर के बाहर सभी व्यक्तियों के साथ हमें इसी तरह सौहार्द और प्रेम भरा व्यवहार करना चाहिए।