माता-पिता के प्रति कर्त्तव्य
दूसरों के प्रति उचित एवं सही दृष्टिकोण घर से ही निर्मित किया जा सकता है। मातृ देवोभव और पितृ देवोभव से ही वैदिक शिक्षा प्रारम्भ होती है। वास्तव में माता-पिता ईश्वर के प्रत्यक्ष रूप हैं। हमें उस त्याग को समझना चाहिए जो माता-पिता ने हमारे कल्याण के लिए किया है। हम उसका एक अंश तक कभी नहीं चुका सकते। इसलिए जितना बन सकें हमें मातृ-पितृ ऋण को चुकाने का प्रयत्न सदैव करते रहना चाहिए।
प्रेम तथा आज्ञा पालन, माता-पिता के प्रति हमारे कर्तव्य हैं। भगवान राम का राज्याभिषेक होने ही वाला था। सब तैयारियाँ हो चुकी थीं और एकाएक परिस्थितियाँ बदल गईं। उन्हें अपने पिता के वचनों की मर्यादा रखने हेतु चौदह वर्ष का वनवास दिया गया। राज्य और राजमहल छोड़ने में उन्हें लेशमात्र भी हिचक और दुख नहीं हुआ। वे वनवास इस प्रसन्नता से गए कि अपने पिता की गौरवगरिमा तथा वचनों की मर्यादा की रक्षा करने का सौभाग्य उन्हें मिला। इस प्रकार राम ने एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया।
माता-पिता की सेवा भी उतनी ही आवश्यक है। हमें घर के कार्यों में माता- पिता की मदद करना चाहिए। माता-पिता की सेवा सबसे बड़ा धर्म है। यह हमें सदा याद रखना चाहिए। महान भक्त पुंडलीक का उदाहरण हमारे सामने है।
पुंडलीक अपने माता-पिता की सेवा में व्यस्त थे। भगवान विठ्ठल आये और दरवाजा खटखटाया फिर भी पुंडलिक अपने माता-पिता की सेवा में लगे रहे और उन्हें नहला-घुलाकर भोजन कराते रहे। उन्होंने भगवान विठ्ठल को एक ईंट देकर तब तक रुकने को कहा जब तक उनका सेवा कार्य समाप्त नहीं हो जाता। भगवान विठ्ठल को इसका बुरा नहीं लगा। वे पुंडलीक की माता-पिता सेवा और प्रेम से बहुत अधिक आनंदित हुए। पुट्टपर्ती प्रवास में गए एक व्यक्ति द्वारा यह एक घटना बताई गई। वास्तव में भगवान बाबा में उसकी कोई श्रद्धा नहीं थी।
परन्तु उसका दामाद बाबा का भक्त था और शादी के बाद उसके कहने से वह अपनी बेटी और दामाद के साथ अनिच्छा से पुट्टपर्ती गया। यद्यपि वह यहाँ आया था पर अन्य लोगों की तरह बाबा के दर्शन के लिए दौड़ने में उसकी कतई इच्छा नहीं थी। परन्तु जब वह कहीं अकेले खड़ा था बाबा उसी रास्ते से उसके पास आये और प्रेम से बोले, क्या तुम जानना चाहोगे कि मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ तुम सुबह उठकर सबसे पहले अपनी माँ के चरण स्पर्श करते हो। वास्तव में किसी का ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम होना या न होना कोई विशेष बात नहीं है। स्वयं के माता-पिता वास्तविक ईश्वर हैं। उनकी सेवा और आदर ईश्वर की सबसे बड़ी पूजा है। यह उदाहरण हमें बताता है कि वर्षों पहले गरीब पुंडलीक की कुटिया पर प्रभु क्यों पहुँचे थे। वह पुंडलीक की माता-पिता के प्रति श्रद्धा, सेवा और स्नेह था जो वैकुण्ठ में रहने वाले परमात्मा को उसकी कुटिया में उसे आशीर्वाद देने ले आया।
तीसरी चीज है अपने निर्भय होकर माता-पिता से सत्य बोलना चाहिए। गांधीजी के जीवन का एक उदाहरण है। अपने बचपन में वे बुरी संगत में पड़ गये। एक साथी लड़के ने उन्हें सिगरेट पीना व मांस खाना सिखा दिया। पैसे की कमी के कारण गांधीजी ने घर से एक सोने की चूड़ी चुराई। परन्तु उनकी अन्तरात्मा ने उन्हें बहुत धिक्कारा और उन्हें बहुत दुख हुआ। उन्होंने इस विषय में अपने पिता को सब कुछ लिखा और उनसे क्षमा याचना की और यह विश्वास दिलाया कि वे फिर कभी ऐसा नहीं करेंगे। वे अपने पिता के पास गये और उन्हें वह पत्र दिया। पिताजी ने जैसे ही पत्र पढ़ा उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरा प्रयोग’ में लिखा है कि मेरे पिता ने मुझे कोई सजा नहीं दी और न एक शब्द मुझसे कहा, परन्तु उनके आँसू मेरे लिए पर्याप्त थे। इसके बाद गांधीजी एक सदाचारी लड़के बने । यही बीज उनके जीवन में प्रस्फुटित दिखाई दिया और वे महान आत्मा अर्थात् महात्मा हुए। कहा जाता है कि ‘सपूतः कुलदीपकः’ । वह परिवार भाग्यशाली है जहाँ ऐसा महान पुत्र हुआ जिसने अपने परिवार ही नहीं अपितु देश तथा सम्पूर्ण विश्व को प्रकाश दिया।
[Source: The Path Divine, Sri Sathya Sai Balvikas, Dharmakshetra, Mumbai]