पंच महायज्ञ
हमारे शास्त्रों ने गृहस्थों के लिए प्रतिदिन 5 यज्ञ करने के लिए कहा है जो इस प्रकार हैं:
(i)देव यज्ञ
(ii) ऋषि यज्ञ
(iii) पितृ यज्ञ
(iv) अतिथि यज्ञ
(v) भूत यज्ञ ।
मानव, प्रकृति का पाँच प्रकार से ऋणी है। उसे अपने ऋण को प्रतिदिन पाँच यज्ञ करके चुकाना चाहिए। इस त्याग की भावना से अपने द्वारा हुए अनजाने अपराध जैसे चलते समय, झाड़ते समय, सब्जियाँ काटते समय और भोजन बनाते समय होने वाली जीव हत्या आदि अपराधों का भी प्रायश्चित हो जाता है। इसके साथ ही ये यज्ञ आत्मशुद्धि के द्वारा आध्यात्मिक प्रगति में भी सहायता करते हैं। इनसे अहंकार की परिशुद्धि हो जाती है तथा कुछ सीमा तक इंद्रियों की चपलता शांत होती है। साथ ही ये यज्ञ आध्यात्मिक चेतना तथा ब्रह्मानुभूति प्राप्त करने में भी सहायता करते हैं।
श्री सत्य साई बाबा ने इन यज्ञों का वर्णन इस तरह किया है:
(1) देव यज्ञ
सभी घरों में एक पूजा का पृथक स्थान होता है। जहाँ परिवार के लोग अलग-अलग अथवा सामूहिक, रूप से ईश्वर की आराधना करते हैं। पूजा कक्ष में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ अथवा चित्र लगे रहते हैं। ये हमें सर्वव्यापी परमात्मा के विभिन्न स्वरूपों की याद दिलाते हैं। प्रतिदिन पूजन में उनके सामने प्रार्थना की जाती है। उस एकान्त शांत स्थान में ध्यान किया जाता है तथा अपनी जिव्हा से ईश्वर के नामों का गुणगान कर उस माधुर्य का रसास्वादन किया जाता है। इसीलिए यह देवयज्ञ कहा जाता है। इससे सम्पूर्ण घर पवित्र हो जाता है एवं समस्त दैनिक कार्यों में भगवान का सतत स्मरण रखने में सहायता मिलती है।
(2) ऋषि यज्ञ
मनुष्यों के वे कार्य जिनसे ऋषिगणों को शांति और संतुष्टि मिलती है ऋषि यज्ञ कहलाते हैं। इसके अन्तर्गत धर्म शास्त्रों का अध्ययन मनन और निदिध्यासन आता है इससे ऋषियों की कठिन तपस्या के पश्चात प्राप्त अमूल्य ज्ञान सम्पदा आने वाली पीढ़ियों के कल्याण के लिए सुलभ रहती है।
वेद सर्वाधिक प्राचीन सारगर्भित दार्शनिक ग्रंथ हैं। इनकी व्यावहारिकता तथा सार्वभौमिकता अद्वितीय है। हमारे यहाँ रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा अन्य ऐसे आख्यान हैं जो सत्य-असत्य, धर्म व अधर्म के संघर्ष को बताते हुए ईश्वरीय अनुग्रह से सत्य एवं धर्म की विजय का प्रतिपादन करते हैं। ये पुस्तकें मन में भक्ति तथा विनय, आत्मविश्वास और धैर्य भर कर आत्मशुद्धि, आत्मसंतोष, आत्मोन्नति के द्वारा आध्यात्मिक प्रगति में सहायक सिद्ध होती हैं। यह बड़े दुःख का विषय है कि आज लोग शक्ति के इन प्रेरणास्पद स्त्रोतों की उपेक्षा कर उत्तेजक एवं अश्लील, दूषित तथा गन्दे साहित्य को पढ़ते हैं। जिसमें अमर्यादित व्यवहार तथा विक्षिप्त मनोदशा वाले व्यक्तियों का चित्रण किया जाता है। इन पुस्तकों को पढ़ने से उनके जीवन की प्रगति तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कितना बुरा प्रभाव पड़ता हैं , इसको वे नहीं समझते हैं। इस प्रकार के गंदे साहित्य के पढ़ने से मनुष्य कामवासना और पाप की मृगमरीचिका में फंसकर पशु के समान हो जाता है। कोई यदि मनुष्य है तो वह जीवन की केवल आधी उपलब्धि ही कहलायेगी इसलिए पूर्णता की प्राप्ति के लिए अपने कार्य, वचन तथा विचारों से उसे यह सिद्ध करना होगा कि वह पशु नहीं है। अतएव इस सत्य की उपेक्षा न कर पाशविकता से दूर रहकर इंद्रिय निग्रह करके उत्तेजनाओं एवं मनोविकारों पर वैराग्य तथा विवेक द्वारा नियंत्रण किया जा सकता है। अच्छी पुस्तकों से यही शिक्षा, प्रेरणा और मार्गदर्शन मिलता है।
(3) पितृ यज्ञ
वेदों की आज्ञा है मातृ देवो भव, पितृ देवो भव। इस वेदोपदेश की आज बड़ी दुहाई दी जाती है किन्तु माता-पिता के प्रति कहीं भी उतना आदर नहीं दिखाई देता। जो पीढ़ी अपने माता-पिता का आदर और उनकी देखभाल नहीं करती उसका विनाश अवश्यंभावी है। अपनी संतान के लिए माता-पिता बड़ी-बड़ी कठिनाईयों को सहकर सुख और सुविधाएं ही नहीं आवश्यकताओं का भी त्याग करते हुए विद्यालयों व महाविद्यालयों में बच्चों को पढ़ाते हैं किन्तु ये कृतघ्न बच्चें ताने देकर उन्हें परेशान करते हैं तथा मानसिक पीड़ा देते हैं और उनके रीति और व्यवहार की खिल्लियाँ उड़ाकर इनकी अच्छी सलाह की अवमानना तक करते हैं। जो इस शरीर व मानव रूप को देने वाले माता-पिता के साथ इस तरह का अधार्मिक व्यवहार करते हैं वे कैसे उस अदृश्य व अचिन्तनीय ईश्वर के भक्त कहला सकते हैं। अपने माता-पिता का आदर करने से तुम्हारे बच्चे तुम्हारा आदर करना सीखेंगे। पुराणों में इस विषय पर एक अच्छी कथा दी गई है।
जगत पिता-माता शिव-पार्वती ने एक बार गणेश और कार्तिकेय (सुब्रमण्यम) की परीक्षा ली थी। उन्होंने कहा जो पूरी पृथ्वी की परिक्रमा सबसे पहले पूर्ण करेगा वही पुरस्कार विजेता होगा। कार्तिकेय बड़ी तीव्रगति से विभिन्न प्रदेशों एवं देशों को लांघते हुए आगे चले गए किन्तु गणपति ने माता-पिता की प्रदक्षिणा लगाकर विजयश्री प्राप्त की। माता-पिता ही सारा संसार और सब कुछ हैं। गणेश के इस कथन को शिव-पार्वती ने मान्यता देकर उन्हें समस्त देवताओं का अग्रणी बनाकर ज्ञान की प्रचुरता का वरदान दिया एवं संकटों से भक्तों का रक्षक घोषित किया। इस कथा का सार है कि माता-पिता की देखभाल करना चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करके उन्हें सबसे पहले आदर देना चाहिए। इसी को पितृ यज्ञ कहते हैं। यह यज्ञ वैराग्य, परम्परा, प्राचीन संचित संस्कृति, शाश्वत और स्थायी मूल्यों की आडंबर पर विजय है। इसीलिए भगवान शंकर को साम्ब शिव अर्थात् माता सहित शिव कहते हैं। यहाँ अम्बा का अर्थ है माता और शिव का अर्थ है पिता और स का अर्थहै सत्य, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और साक्षात्कार।
(4) अतिथि यज्ञ
इसका अर्थ है कि जो बिना किसी पूर्व सूचना के ही द्वार पर भोजन और आश्रय हेतु आए ऐसे आगन्तुक को अतिथि कहते हैं। उनका सत्कार पूजा की तरह करो तथा उन्हें स्वयं ईश्वर के द्वारा भेजा हुआ देव रूप मानो। वेदों के आदेशानुसार यह एक पवित्र कार्य है। भोजनकाल में जो भी आये उसके साथ अपने भोजन को बाँटकर अपनी भूख शांत करने के पूर्व उसे भोजन कराना चाहिए।
(5) भूत यज्ञ
इस यज्ञ में अपने आसपास के पशु-पक्षियों जैसे बैल, गाय, भेड़, घोड़े आदि जो अपने श्रम से हमारी सहायता करते हैं और कुत्ते, बिल्ली आदि अन्य पालतू जीव जो घर की सेवा रक्षा करके सुखद बनाते हैं हमें, उन सभी को सुखी बनाना है। इनको भूखा नहीं रखना चाहिए। इनसे अत्यधिक काम नहीं लेना चाहिए। देखभाल के लिए तुम पर आश्रित कोई पशु, घर अथवा खेत में एक भी आँसू बहाता है तो याद रखो तुम्हें उसके लिए बहुत कष्ट उठाने पड़ेंगे।
प्रेम और आदर ये दो गुण त्याग और यज्ञ के हेतु वास्तविक स्त्रोत हैं। आओ, हमारे सभी विचार, वचन एवं कर्म इन्हीं से परिपूरित हों जिसमें हमें अखंड आनंद तथा शांति प्राप्त हो सकेगी ।
दीपक बन घर में रहो, जो भी करो प्रकाश इन प्रकाश स्तम्भ मार्ग का, चमको, सबको दो उजियाला।