अन्य आस्थाओं का अभ्यास करना
1874 में, श्री रामकृष्ण कलकत्ता के शंभू नाथ मलिक के घनिष्ठ संपर्क में आये। दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पास उनका एक बगीचा था। श्री रामकृष्ण शंभू मलिक के इस बाग में काफी समय बिताते थे, जिससे उनके मन में श्री रामकृष्ण के प्रति सच्चा प्रेम और सम्मान विकसित हो गया। यद्यपि वह ईसाई नहीं थे, फिर भी वे श्री रामकृष्ण को बाइबिल पढ़ाते थे, जिससे उन्हें ईसा मसीह तथा ईसाई धर्म के बारे में ज्ञान हुआ। उन्हें इस नई विधि से देवी माँ की अनुभूति करने की तीव्र इच्छा हुई, और यह एक अनोखी तरीके से पूर्ण हुई। एक दिन श्री रामकृष्ण, उनके भक्त जदुलाल मलिक के पड़ोसी घर की बैठक में बैठे थे। दीवारों पर कई खूबसूरत चित्र थे, उनमें से एक ईसा मसीह का था। श्री रामकृष्ण दिव्य शिशु के साथ मैडोना की तस्वीर को ध्यान से देख रहे थे और ईसा मसीह के अद्भुत जीवन पर विचार कर रहे थे, तभी उन्हें लगा जैसे कि तस्वीर सजीव हो गई है, तथा मैरी और ईसा मसीह की आकृतियों से प्रकाश की किरणें निकल रही हैं। उन किरणों ने रामकृष्ण के अंतस में प्रवेश करके, उनके मानसिक दृष्टिकोण को पूरी तरह से बदल दिया। इससे उनका मन ईसा मसीह के विचारों से भर गया। तीन दिन तक श्री रामकृष्ण उसी अवस्था में रहे। हालाँकि वे दक्षिणेश्वर लौट आए थे, लेकिन उन तीन दिनों तक उन्होंने काली मंदिर का दौरा नहीं किया। चौथे दिन, जब वह पंचवटी के पास घूम रहे थे, तो उन्होंने शांत चेहरे वाले एक अद्भुत व्यक्ति को अपनी ओर आते देखा। श्री रामकृष्ण को आश्चर्य हुआ कि वह कौन हो सकता है, तभी उन्होंने एक आंतरिक आवाज सुनी, “यह ईसा मसीह हैं जिन्होंने मानव जाति को बचाने के लिए अपने शरीर का खून बहाया।” तत्पश्चात् उस महिमामयी आकृति ने निकट आकर उन्हें गले लगा लिया। इससे श्री रामकृष्ण गहन समाधि में चले गये और उनकी बाह्य चेतना लुप्त हो गई। इस प्रकार श्री रामकृष्ण को विश्वास हो गया कि ईसा मसीह ईश्वरीय अवतार थे।
यहांँ बुद्ध एवं अन्य धर्म संस्थापकों के बारे में श्री रामकृष्ण के कथनों पर ध्यान देना सार्थक होगा।
बुद्ध के बारे में उन्होंने हिंदुओं के इस विचार को साझा किया कि वह भगवान के अवतार थे। श्री रामकृष्ण उन्हें अपनी सच्ची भक्ति और पूजा अर्पित करते थे। एक बार उन्होंने टिप्पणी की थी, “भगवान बुद्ध के अवतार होने में तनिक भी संदेह नहीं है। उनके सिद्धांतों और वैदिक ज्ञान-काण्ड के सिद्धांतों में कोई अंतर नहीं है।”
जैन धर्म की स्थापना करने वाले तीर्थंकरों तथा दस सिख गुरुओं के बारे में, श्री रामकृष्ण ने अपने बाद के जीवन में उन धर्मों के प्रतिनिधियों से बहुत कुछ सुना और उनके प्रति उनके मन में सम्मान की भावना जागृत हुई।
दक्षिणेश्वर में उनके कमरे में तीर्थंकर महावीर की एक छोटी मूर्ति और ईसा मसीह का एक चित्र था, जिसके सामने सुबह और शाम धूप जलाई जाती थी।
सिख गुरुओं के बारे में वह कहते थे कि वे सभी संत राजा जनक के अवतार थे।
इस प्रकार, आध्यात्मिक अनुशासन के सभी रूपों के माध्यम से हुई अनुभूतियों के परिणामस्वरूप, ठाकुर को दृढ़ता से विश्वास हो गया कि सभी धर्म सच्चे हैं और प्रत्येक सैद्धांतिक प्रणाली भगवान के लिए एक मार्ग का प्रतिनिधित्व करती है। उन्होंने द्वैत, विशिष्टाद्वैत तथा अद्वैत को लक्ष्य प्राप्ति हेतु मनुष्य की प्रगति के विभिन्न चरण माना। उनका मानना था कि विभिन्न मानसिक दृष्टिकोणों के अनुकूल होने के कारण वे विरोधाभासी नहीं, बल्कि पूरक हैं। इस प्रकार, वह अपने शिष्यों से कहते थे: “मैंने सभी धर्मों का पालन किया है – हिंदू, इस्लाम, ईसाई, तथा मैंने विभिन्न हिंदू संप्रदायों के मार्गों का भी पालन किया है। मैंने पाया कि यह एक ही ईश्वर है जिसके लिए सब अलग-अलग मार्गों पर अपने कदम रख रहे हैं। एक तरफ, हिंदू पानी को जल कहते हैं; दूसरी तरफ, ईसाई लोग इसे पानी कहते हैं; क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि पानी जल नहीं है, बल्कि पानी है? यह कितनी विवेकहीन बात है कि हर कोई एक ही पदार्थ की तलाश कर रहा है। तालाब के कई घाट हैं इनमें से किसी भी घाट पर सच्चे दिल से जाएँ, और आप शाश्वत आनंद के पानी तक पहुँच जाएँगे। लेकिन यह मत कहिए कि आपका धर्म दूसरे धर्मों से बेहतर है। एक ईश्वर तक पहुँचने के लिए अलग-अलग रास्ते हैं। जैसे कलकत्ता के कालीघाट में माँ काली के मंदिर तक कई रास्ते जाते हैं, उसी तरह, विभिन्न रास्ते हैं जो मनुष्यों को भगवान के घर तक ले जाते हैं। प्रत्येक धर्म कुछ और नहीं, बल्कि ऐसे मार्गों में से एक है।”
उन्होंने घोषणा की, “सभी आस्थाएँ सत्य हैं – जोतो मोत तोतो पोथ, उन्होंने बंगला भाषा मे कहा था, अर्थात् जितने विश्वास के मत, उतने ही प्राप्ति के रास्ते।”