मानवीय कार्यशाला
यदि आज मनुष्य भ्रमित, परेशान है और प्रकृति से आनंद प्राप्त करने में असमर्थ है, तो निश्चित रूप से उसे इस दुखद स्थिति के मूल कारण को खोजना, पहचानना तथा समाप्त करना होगा, जो उसे उसके जन्मसिद्ध अधिकार, आनंद तथा सद्भाव का अनुभव करने से रोकता है। इसलिए उसे मानवीय कार्यशाला को समझना चाहिए।
मनुष्य, तत्वों के पांँच गुणों का आनंद लेने के लिए पांँच इंद्रियों का उपयोग करता है। बाहरी दुनिया न केवल मुंँह और नाक के माध्यम से, यानी जब हम खाते हैं या सांँस लेते हैं, बल्कि अन्य इंद्रियों के माध्यम से भी मानव शरीर में प्रवेश करती है। हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक संसार के विषय में हमारे सभी अनुभव इन्हीं इंद्रियों के माध्यम से होते हैं। पाँच इंद्रियाँ बाहरी दुनिया के लिए हमारी खिड़कियाँ हैं। जैसे ही प्रकृति के ये गुण और हमारी इंद्रियाँ परस्पर क्रिया करना शुरू करती हैं, मन अस्तित्व में आ जाता है।
यह समझने के लिए कि हम जानकारी कैसे प्राप्त करते हैं और उसका उपयोग कैसे करते हैं, आइए एक सरल उदाहरण के साथ मस्तिष्क की कार्यप्रणाली पर विचार करें। मान लीजिए कि नीचे दिखाया गया एक बड़ा वृत्त भौतिक शरीर का प्रतिनिधित्व करता है।
चेतन मन, मन का एक हिस्सा है जिसके बारे में हम जानते हैं। हम सोचने के लिए चेतन मन का उपयोग करते हैं। जब हम अपनी इंद्रियों के माध्यम से जानकारी प्राप्त करते हैं, तो यह चेतन मन ही होता है जो प्राप्त किए जा रहे संदेश के प्रति जागरूक हो जाता है।
अवचेतन मन हमारी स्मृति का स्थान है। यहीं पर हम सारी जानकारी संग्रहित करते हैं। हम अपनी इंद्रियों के माध्यम से जो भी जानकारी प्राप्त करते हैं, या हमने अपने कार्यों के माध्यम से जो कुछ भी सोचा या किया है, वह सब हमारे अवचेतन मन में संग्रहित होता है। अवचेतन मन में हमारे समस्त अतीत का निचोड़ समाहित होता है। हम आज जो भी हैं अवचेतन के परिणाम स्वरूप हैं। हमारी आदतें, हमारी भावनाएँ मन के इसी हिस्से में बनती हैं।
जब कोई नई उत्तेजना हम तक पहुँचती है, जैसे कि कोई तस्वीर जो हम देखते हैं, या कोई गाना जो हम सुनते हैं, तो हम अपने मेमोरी बैंक में पहले से दर्ज जानकारी या अनुभव के अनुसार उस पर क्रिया -प्रतिक्रिया करते हैं। यह क्रिया और प्रतिक्रिया हमारे भीतर निरंतर चलती रहती है। एक बच्चा आग देखता है, उसे छूता है, दर्द महसूस करता है और पीछे हट जाता है। सबक, दृष्टि और स्पर्श से सीखा जाता है। यह जानकारी भविष्य की स्थितियों में उपयोग करने के लिए अवचेतन में संग्रहित की जाती है।
‘जिस तरह सूती धागे के ऊन और ताने से कपड़ा बनता है, उसी तरह विचार के ऊन और ताने से मन बनता है।’
– श्री सत्य साई
हमारी इंद्रियों से कुछ उत्तेजनाओं के परिणामस्वरूप हमारे चेतन मन में विचार उत्पन्न होते हैं, जो स्वचालित रूप से इच्छाओं अथवा भावनाओं को जागृत करते हैं। ये विचार हमारे अवचेतन में पहले से ही संग्रहीत हैं। इस प्रकार, जब पांँच इंद्रियांँ हमारे आनंद के लिए पांँच गुणों के साथ बातचीत करती हैं, तो वे हमारे भीतर विचार पैदा करती हैं। जब हम बार-बार इन विचारों को सीधे क्रियान्वित करते हैं, तो हम आदतें बना लेते हैं। फिर हमें अपने कार्यों के परिणाम भविष्य में भुगतने होंगे। हर बार जब किसी ऐसे विचार को क्रियान्वित किया जाता है जो सही नहीं था, तो यह पूरे शरीर की लय को बिगाड़ देता है, और हमारे भीतर पांँच तत्वों का संतुलन गड़बड़ा जाता है। उदाहरण के लिए, जब हम झूठ बोलते हैं, तब अनुभव करें कि तंत्र प्रणाली (सिस्टम) में कुछ गड़बड़ हो गई है। सिस्टम कुछ हमें बताता है कि यह सही कार्रवाई नहीं है। विचार तथा आंतरिक आवाज के बीच सामंजस्य टूट गया है। यह हमें दुखी करता है; हम भीतर की शांति खो देते हैं।
जब विचार बने रहते हैं तो वे इच्छाएँ पैदा करते हैं। इच्छाएँ, अवचेतन मन का एक हिस्सा हैं। जब इंद्रियों द्वारा उत्पन्न तीव्र सूचनाएंँ, मन को छवियों और विचारों से धुंधला कर देते हैं, तो मन भीतर से प्रेम की दिव्य ऊर्जा के निरंतर प्रवाह को अवरुद्ध या सुखा देता है। इससे भ्रमित कर्म होते हैं और भीतर के पांँच तत्वों का संतुलन बिगड़ जाता है।
‘मन में उठते विचार वातावरण को ऊर्जा की तरंगों से भर देते हैं। रेडियो तरंगों की तरह, वे हर जगह मौजूद हैं और उतने ही शक्तिशाली और पवित्र हैं। अत: हमारे विचार उदात्त एवं पवित्र होने चाहिए।’
– श्री सत्य साई
अतिचेतन मन ही शुद्ध चेतना है। यह मन का वह भाग है जिसमें सारी बुद्धि और ज्ञान समाहित है। यह हमारे भीतर का विवेक है। सच ही है, यह भीतर की दिव्यता है। हृदय भी प्रेम का स्थान है। जब हम अपने हृदय को निःस्वार्थ प्रेम से भर देते हैं, तो नकारात्मक विचार गायब हो जाते हैं। हमारे दिल में प्यार होने से, दूसरों के साथ, सभी चीजों के साथ और प्रकृति में सामंजस्य रहता है।
जब प्रेम ऊर्जा अनायास ही हमारी अंतरात्मा के अंतरतम से निकलती है, तो यह हमारे विचारों, भावनाओं और कार्यों को सत्य, शांति तथा धर्म में बदल देती है। प्रेम, प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक प्राकृतिक झरना है जो मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहा है। जहांँ प्रेम है, वहाँ इसका तात्पर्य है कि आत्मा को अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक माध्यम मिल गया है।
इस प्रकार, स्थूल और सूक्ष्म का अटूट संबंध है; सूक्ष्म के बिना स्थूल कार्य नहीं कर सकता। संपूर्ण संसार मन का ही प्रक्षेपण है। अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करने और आनंद की स्थिति प्राप्त करने के लिए, हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि शुद्ध और पवित्र विचार चेतन मन में आएंँ।
भौतिक जगत की लालसा में, मनुष्य ने पाँच तत्वों की सीमाओं का उल्लंघन करते हुए कई इच्छाएँ विकसित कर ली हैं। आज पांँचों तत्व प्रदूषित हो गए हैं, फलस्वरूप मनुष्य असुरक्षा, दुख और शांति के अभाव में फंँस गया है। विश्व अपना पारिस्थितिक संतुलन खो रहा है क्योंकि मनुष्य अपने स्वार्थ के कारण धरती माता से उसके प्राकृतिक संसाधनों को लूट रहा है। जो खाना हम खाते हैं, जो पानी हम पीते हैं, जिस हवा में हम सांँस लेते हैं, वे सभी प्रदूषित हैं। परिणामस्वरूप, वह ध्वनि, स्पर्श, रूप, स्वाद तथा गंध के माध्यम से इन तत्वों से लाभ प्राप्त नहीं कर पाता है। उसने ईश्वरीय कृपा खो दी है। फलस्वरूप पंचतत्वों ने अब प्रतिकार करना शुरू कर दिया है।
‘इंद्रियों को मात्राओं के रूप में भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है माप, क्योंकि प्रत्येक इंद्रिय में अनुभव को मापने की एक निश्चित क्षमता होती है। मनुष्य को प्रत्येक इन्द्रिय का उपयोग उसमें निहित सीमा की चेतना के साथ करना चाहिए। सीमा से परे यह, दुरुपयोग और अपवित्रता बन जाता है। नाक सांँस लेने एवं अच्छी खुशबू सूंघने के लिए होती है, लेकिन कई लोग इसे दुर्गंध से भर देते हैं या इसके जरिए धुआंँ छोड़ते हैं। कई लोग जीभ का उपयोग राजसिक तथा तामसिक भोजन खाने व शराब निगलने के लिए करते हैं, जो मनुष्य को निम्न स्तर पर पहुंँचा देती है। आज मनुष्य द्वारा सभी इंद्रियों का दुरुपयोग किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप मानसिक परेशानी एवं कई व्याधियांँ हो रही हैं।’
– श्री सत्य साई (21 नवंबर 1979)
मानवीय मूल्यों के ह्रास के कारण मनुष्य के भीतर पंचतत्वों का ह्रास हो रहा है; उन्हें जहर दे दिया गया है। अत: प्रकृति में भी तत्व विषाक्त हो गये हैं और इसका प्रभाव हम सर्वत्र अनुभव करते हैं। प्रकृति की प्रतिक्रिया, पृथ्वी को प्रभावित करती है, जिसके परिणामस्वरूप भूकंप, अकाल और बीमारियाँ होती हैं; इसका प्रतिबिंब प्रकाश को प्रभावित करता है जिसके परिणामस्वरूप हमारी दृष्टि विकृत हो जाती है; और इसकी गूंज पानी को प्रभावित करती है, जिसके परिणामस्वरूप सूखा, बाढ़ तथा जल प्रदूषण होता है। जो ध्वनियाँ हम सुनते हैं वे गपशप और घोटाले का शोर हैं। हम दूसरों की आलोचना तथा गपशप में आनंद लेते हैं, लेकिन ईश्वरीय नाम की मधुर ध्वनि से दूर हो जाते हैं।
इस विशाल ब्रह्माण्ड में मनुष्य एक कण के समान है। मूलतः, मनुष्य और सृष्टि के बीच कोई संघर्ष नहीं है। जिस प्रकार एक बच्चा अपनी माँ के दूध का आनंद लेने का और मधुमक्खी फूलों से शहद का आनंद लेने की हकदार है, उसी प्रकार मनुष्य को प्रकृति के संसाधनों का आनंद लेने में कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन अनियंत्रित इच्छाओं तथा प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के परिणामस्वरूप प्रकृति भयावह विकारों का प्रदर्शन कर रही है। भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट, सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएँ प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के कारण प्रकृति के संतुलन में गड़बड़ी का परिणाम हैं। आज मानव जाति एक मूर्ख व्यक्ति की तरह प्रतीत होती है जो जिस पेड़ की शाखा पर बैठा है उसी पर कुल्हाड़ी चला रहा है।’
– श्री सत्य साई (13 जनवरी 1997)
भीतर और बाहर संतुलन स्थापित करने की व्यावहारिक विधि निम्नलिखित संश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करेगी:-
क) इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त, बाहरी वस्तुगत दुनिया की जानकारी को आंतरिक जीवन की व्यक्तिपरक दुनिया के साथ सामंजस्य स्थापित करना होगा।
ख) मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा के बीच अंतर्संबंध तथा अंतर्निर्भरता को अच्छी तरह से स्थापित करना होगा।
ग) उस वातावरण की व्यक्तिपरक प्रकृति जिसमें एक व्यक्ति का जन्म तथा पालन-पोषण होता है, को उसके भीतर रहने वाले सर्वव्यापी दैवत्व की वस्तुनिष्ठ प्रकृति के साथ विलय करना होता है; परिवार और समग्र समुदाय की ज़रूरतें और अपेक्षाएंँ व्यक्ति की आंतरिक प्रेरणा और आकांक्षाओं से मेल खाना चाहिए।
- हमारे भीतर पवित्रता, एकता और दिव्यता लाने के लिए मानव पूजा की समझ आवश्यक है।
- इंद्रियों से प्राप्त ग्रहणशीलता को नियंत्रित करने की आवश्यकता है।
- पवित्रता लाने के लिए मानव कार्यशाला की पूरी क्षमता का उपयोग करना आवश्यक है, मन की पूरी क्षमता का उपयोग करना समझना मानव परिवर्तन की कुंजी है।
- सभी विचारों, शब्दों और कार्यों में प्रेम भरा होना चाहिए।
- हमारे विचारों, शब्दों तथा कार्यों में सामंजस्य होना चाहिए।