परिवर्तन प्रक्रिया
परिवर्तन अनिवार्य रूप से वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत हम ‘निरंतर एकीकृत जागरूकता’ के माध्यम से बाहरी दुनिया को समझना और उसके साथ बातचीत करना शुरू करते हैं। हम मन में उठने वाले विचारों में प्रेम की शक्ति भर देते हैं ताकि हम जो देखें, सुनें या करें वह ‘अच्छा’ हो।
उदाहरण के लिए, हम सभी वर्तमान में पर्यावरण, भौतिक दुनिया के हमारे पिछले अनुभवों, टीवी, मीडिया आदि द्वारा प्रोग्राम किए गए हैं। यह नकारात्मकता जो वर्तमान में हमारे मस्तिष्क में भर गई है उसे सकारात्मकता से प्रतिस्थापित करना होगा। ऐसी पुनर्प्रोग्रामिंग को लागू करना कठिन है; मन अवचेतन में पहले से मौजूद चीज़ों को सुदृढ़ करने के लिए काम करता है; इसे उस चीज़ को अस्वीकार करने के लिए प्रोग्राम किया गया है जो इसके अनुभव के विपरीत है। यह उन प्रविष्टियों (इनपुट्स)को अस्वीकार करता है, जो वर्तमान व्यवहार पैटर्न को बदल सकते हैं।
फिर भी, हम जो परिवर्तन प्राप्त करना चाहते हैं उसके लिए रीप्रोग्रामिंग आवश्यक है। हम यू-टर्न कैसे लें? हम स्रोत की ओर वापस यात्रा कहाँ से शुरू करें? हम उत्क्रमण की प्रक्रिया कैसे आरंभ करें?
परिवर्तन की प्रक्रिया पाँच डी – भक्ति, विवेक, दृढ़ संकल्प, अनुशासन और कर्तव्य के सूक्ष्म और जटिल संयोजन द्वारा प्राप्त की जाती है। जब हम सचेतन रूप से अंदर की ओर यात्रा शुरू करते हैं, तो हम सांँस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया के माध्यम से तुरंत वायु तत्व के प्रति जागरूक हो जाते हैं। हमें सांँस लेने की लय, गति तथा गहराई के अवलोकन के महत्व का भी ज्ञान है। इसके लिए लयबद्ध और गहरी सांँस को विनियमित करने में खुद को अनुशासित करने के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। भक्तिपूर्ण समूह गायन एवं प्रार्थना , दो परिवर्तनकारी तकनीकें हैं जो इस प्रक्रिया में हमारी मदद करती हैं। सोऽ हम मंत्र का अभ्यास एक और शक्तिशाली तकनीक है जो हमें हमारे लक्ष्य के निकट ला सकती है।
‘हम प्रति क्षण वायु में साँस लेने में लगे रहते हैं। हम हवा में निहित ऑक्सीजन द्वारा जीवित हैं। मनुष्य दिन में 24 घंटे में 21,600 बार वायु अंदर लेता और छोड़ता है। साँस लेते समय सो की ध्वनि उत्पन्न होती है; साँस छोड़ते समय हम् की ध्वनि उत्पन्न होती है। इस प्रक्रिया ने सो-हम शब्द बनाया, जिसका अर्थ है ‘वह मैं हूंँ’, जो मनुष्य की अंतर्निहित दिव्यता की घोषणा करता है।’
– श्री सत्य साई।
परिवर्तन के कार्य में पूर्ण विश्वास रखें। यह महत्वपूर्ण है कि हम दिव्यता के साथ अपने मूल संबंध को फिर से खोजें। जब यह मन पर दृढ़ता से अंकित हो जाता है कि हम दिव्यता का प्रतिबिंब हैं, तो हम स्रोत तक वापस पहुंँच सकते हैं। इस प्रकार, हम शरीर-मन इकाई तक की सीमित नकारात्मकता के दुष्चक्र से अलग होकर एक लंबी छलांग लगाते हैं; भक्ति के साथ हम अपने कार्य के स्तर को परम-चेतन, सत्य के स्त्रोत तक बढ़ाते हैं।
यह वही विश्वास है जो हमें सबसे पहले हमारे प्रभु के पास लाया। भगवान बाबा ने अपनी असीम कृपा से हमें बाहर निकलने का मार्ग दिया है। हमें पहला कदम सचेत होकर उठाना होगा, और बाबा हमें विश्वास दिलाते हैं अगले दस कदम उनकी ओर से उठाये जायेंगे। परिवर्तन की प्रक्रिया, कारण और प्रभाव के अनुक्रम का अनुसरण करती है। हम जो कुछ भी बोएंगे, वह समय के साथ प्रचुर मात्रा में उगेगा। हम जो रोपेंगे, वही बढ़ेगा; हम जो उगाते हैं, हम उसके पात्र हैं। इसलिए हमें मन की उपजाऊ बगिया में अच्छे विचार रोपने चाहिए। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए अच्छा पढ़ना, अच्छी संगति और अच्छा वातावरण बहुत आवश्यक है।
‘यदि आप, लोगों के हृदय में सद् विचारों के कंकड़ डालते हैं, तो उसकी तरंगें सभी इंद्रियों तक पहुंँचती हैं और अच्छे शब्द, अच्छे दर्शन, अच्छे कार्य और अच्छे श्रवण के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं।’
– श्री सत्य साई। (21 मई 2000)।
यह विश्वास ही है, जो हमें कार्य करने, मन की पवित्रता प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। इंद्रियों के माध्यम से सकारात्मक इनपुट के साथ, अवचेतन धीरे-धीरे सकारात्मक प्रभावों से भर जाएगा। यह प्रक्रिया गंदे पानी से भरे एक गिलास को लेने और उसे साफ पानी देने वाले नल के नीचे रखने जैसी है। अंततः, गंदे पानी को साफ़ पानी से विस्थापित कर दिया जाएगा। फिर, अच्छे व्यवहार के लिए अब हमारी ओर से प्रयास की आवश्यकता नहीं है; यह हमारा स्वभाव बन जाता है।
इस प्रकार, हमारी इंद्रियों के माध्यम से उचित धारणा चुनने में विवेक का उपयोग किया जाता है। इस प्रक्रिया में हमें अपनी इच्छाओं पर एक सीमा लगानी पड़ती है। ‘धारणा की पांँच इंद्रियों में से आंँखें अपार शक्ति से संपन्न हैं।
‘अपवित्र दृष्टि से मनुष्य की आयु कम हो जाती है। दृष्टि पर नियंत्रण के साथ-साथ व्यक्ति को अपनी जीभ पर भी नियंत्रण रखना जरूरी है। मनुष्य जिस स्वाद का उपभोग करता है उसका गुलाम बन जाता है। वह अपनी जिव्हा से अपवित्र शब्द निकलवाता है और कठोर शब्दों का प्रयोग करके दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचाता है।’
– श्री सत्य साई (5 जुलाई 2001)
इच्छा शक्ति के बिना हमारे जीवन में कोई भी परिवर्तन संभव नहीं है। इच्छा शक्ति का सक्रियण तब होता है जब परिवर्तन की आवश्यकता के प्रति जागरूकता का स्तर पर्याप्त रूप से उच्च सीमा तक पहुँच जाता है। स्थिर क्रिया के माध्यम से मन की अनियमितताओं को नियंत्रित करने के लिए इस दृढ़ संकल्प का निर्माण करना होगा। सार्थक कर्म द्वारा अभ्यास करना होगा; इसलिए ‘अच्छा देखें, अच्छा बनें, अच्छा करें’ के लिए आत्म-अनुशासन आवश्यक है। आत्म-नियंत्रण में व्यायाम द्वारा मन को प्रशिक्षित और विकसित करने के लिए अनुशासन की आवश्यकता होती है। हमें मौलिक भेदभाव के एकल कृत्यों को स्थिर कार्यों में बदलने की जरूरत है; हमें ‘आदत’ निर्माण, सकारात्मक प्रकृति की अनैच्छिक क्रियाएं विकसित करनी चाहिए। समय के साथ चेतन तथा अवचेतन मन में मानवीय मूल्य स्थापित हो जायेंगे। इस प्रकार, मन पर एक शांतता छा जाएगी, एवं अंतरात्मा की आवाज़ ज़ोर से व स्पष्ट रूप से सुनाई देगी। तब उच्चतम स्व विवेक, चेतन मन का अंतिम मध्यस्थ बन जाता है, जिसके परिणामस्वरूप स्थिर, सकारात्मक कार्रवाई होती है। जब मन की शुद्धि हो जायेगी तो विचार, वचन और कर्म में एकता आ जायेगी।
‘सच्ची भक्ति ईश्वर के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति है कि उसने हमें विभिन्न क्षमताओं के साथ मानव शरीर दिया है, बुद्धि दी है एवं हवा, पानी तथा सूरज की रोशनी जैसी कई प्राकृतिक सुविधाएंँ हमें उपलब्ध कराई हैं।’
– श्री सत्य साई (6 मार्च 1987)
संक्षेप में, यह प्रक्रिया अच्छे विचारों से शुरू होती है, अच्छी भावनाओं की ओर ले जाती है, और अच्छे कार्यों में प्रकट होती है। बार-बार किए गए कार्य अच्छी आदतें बनाते हैं, ये कठोर होकर अच्छे चरित्र में बदल जाते हैं और स्थिर, अच्छे व्यवहार को निर्देशित करते हैं।
कर्त्तव्य, ईश्वर की प्रेमपूर्ण सेवा, ईश्वर के प्रति दैहिक प्रार्थना है। मानव शरीर संसार में मन का कार्य करने का साधन है। यह पाँच तत्वों से विकसित हुआ है; इसे संसार को शुद्ध करने एवं संतुलन की स्थिति में रखने के लिए मस्तिष्क की सेवा करनी चाहिए। यही शरीर का उद्देश्य और कर्त्तव्य है। सेवा गतिविधियों, सेवा में निस्वार्थ भाव से खुद को संलग्न करके, हम अकेले इस शरीर के साथ खुद को पहचानने की गलत भावना से परे जाने में सक्षम हैं।
इस प्रकार, हम एक आंतरिक यात्रा शुरू करते हैं और भीतर के दिव्य केंद्र के प्रति सचेत हो जाते हैं। आंतरिक आत्मा की ओर बढ़ते रुझान के साथ, हम अपने प्रेम तथा शांति को सभी के साथ साझा करना शुरू करते हैं। यह प्रेम पूरी दुनिया को ऊर्जावान बनाने के लिए मजबूत वैश्विक कंपन पैदा करने में सक्षम है। इस प्रकार, हम अपने आध्यात्मिक विकास के बढ़ते पैमाने पर चढ़ना शुरू करते हैं; और हमारी इच्छा ईश्वरीय इच्छा में विलीन हो जाती है।
‘जब परिवर्तन प्राप्त हो जाता है, तो आप पाएंँगे कि आपने केवल स्वयं से स्वयं तक की यात्रा की है, ईश्वर के साथ, आपके चारों ओर, आपके साथ और आपके आसपास।’
– श्री सत्य साई
मानवजाति हर जगह एक जैसी है. चाहे बाल विकास का बच्चा हो या स्कूल का विद्यार्थी, चाहे युवा हो अथवा वयस्क, चाहे भारत का नागरिक हो या किसी अन्य देश का, सत्य साईं एजुकेयर का लक्ष्य समान है। दुनिया में कहीं भी बोया गया आम का बीज आम का पेड़ बन जाएगा और केवल आम ही पैदा करेगा; पर्यावरणीय कारक केवल फलों की परिपक्वता अथवा परिपूर्णता को प्रभावित कर सकते हैं। इसी प्रकार, सत्य साईं एजुकेयर में नियोजित परिवर्तन तकनीकें समान रहती हैं। सामाजिक तथा सांस्कृतिक संदर्भों में सामग्री में बदलाव की आवश्यकता हो सकती है, दृष्टिकोण को शिशुओं से लेकर युवाओं और वयस्कों तक संशोधित करना पड़ सकता है, उद्धृत उदाहरण भिन्न हो सकते हैं; हालाँकि, अंतिम उत्पाद हमेशा वही रहेगा। सत्य साई एजुकेयर सार्वभौमिक रूप से लागू है। यह 21वीं सदी के सभी आध्यात्मिक ज्ञान, वेदों का सारांश है।
- रूपांतरण, स्रोत की ओर वापसी की यात्रा है।.
- रूपांतरण प्रक्रिया का प्रारंभिक आधार आस्था है।
- रूपांतरण प्रक्रिया के लिए जिन पांँच संसाधनों को विकसित करने की आवश्यकता है, वे हैं भक्ति, कर्त्तव्य, अनुशासन, विवेक और दृढ़ संकल्प।
- परिवर्तन प्रक्रिया के लिए नियोजित की जाने वाली पाँच तकनीकें हैं: प्रार्थनाएँ, भक्तिपूर्ण समूह गायन, निस्वार्थ सेवा, सामंजस्य एवं अच्छा वातावरण।