अतिप्रिय हिरण
बाबा के आश्रम में कई पशु-पक्षियों को आश्रय प्राप्त हुआ, जैसे कुत्ते, खरगोश, मोर, तोते(काकातुआ) और हिरण। इन सब पशुओं को उन्होंने खुले पिंजरों में रखा। उनकी प्रिय हथिनी साई गीता, अपने स्वामी से इतना अधिक प्यार करती थी, कि यदि बाबा बहुत दिनों तक बाहर रहें तो वह अश्रुपात करने लगती थी। वास्तव में साई गीता ने बाबा को जितने हार पहनाए हैं, उतने हार किसी अन्य भक्त ने नहीं पहनाए।
स्वामी ने एक नन्हें हिरण को भी बहुत प्रेम से पाला था, जो बड़ा होकर बहुत खूबसूरत मृग बन गया। वह चिलचिलाती धूप से भरी दोपहर थी और स्वामी नित्य की तरह दोपहर का भोजन कर अपने कक्ष में विश्राम कर रहे थे। सामान्यतः वे शाम को पुनः दर्शन देने के समय ही नीचे उतरते थे। परन्तु उस दिन, अपना भोजन समाप्त करके ही स्वामी नीचे आ गए और तेजी से चलते हुए हिरणों के बाग में पहुँचे। वे सीधे उस मृग के पास पहुँचे। ऐसा लगा, मानों मृग उनकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। स्वामी ने हौले-हौले उसको दुलारा और अपने कर कमलों से फल खिलाया। उनके दिव्य कर कमलों से फल पाकर, उस मृग की आँखों से आँसू बहने लगे। एकाएक वह अश्रुपात करते हुए उनके श्रीचरणों में गिर पड़ा और उसने प्राण त्याग दिए। भगवान के दिव्य प्रेम और असीम कृपा कितनी सुंदर है?
[Source: English lessons adapted from the Divine Life of Young Sai, Sri Sathya Sai Balvikas Group I, Sri Sathya Sai Education in Human Values Trust, Compiled by: Smt. Roshan Fanibunda]